Thursday 25 April 2013

वे आपसे मिलना चाहते हैं




एक सज्जन 
संदेश लेकर आए कि वे आपसे मिलना चाहते हैं। मैं उनकी बात सुनकर कुछ अचरज, कुछ चिंता में पड़ गया। अपने मनोभावों को दबाने का प्रयास करते हुए मैंने उनसे पूछा कि वे जिनका संदेश लाए हैं वे मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं। संदेशवाहक थोड़ा बिगडे- यह भी कोई सवाल हुआ। एक तो वे इतना कष्ट उठाने को तैयार हैं कि चलकर आप तक आएं और आप हैं कि खुश होने के बजाय उलटे सवाल पूछ रहे हैं।  मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि मैं खुश ही नहीं, धन्य हो जाऊंगा। मेरे बड़े भाग होंगे कि वे मेरे द्वार पधारेंगे, लेकिन मैं तो सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि मुझ अकिंचन पर ऐसी अयाचित कृपा क्यों? मेरा उत्तर सुनकर संदेशवाहक थोड़ा पिघले, उनके तेवर कुछ ढीले हुए- हां आपका यह सवाल तो ठीक है। मैं सोचता था कि इस सवाल का उत्तर तो आपको स्वयं मालूम होगा और आप ऐसा नहीं पूछेंगे।
मैंने कहा- चलिए छोड़िए, मैं नहीं समझ पाया, आप ही बता दीजिए कि उनका प्रयोजन क्या है। वे बोले- देखिए, आप एक नागरिक हैं, अच्छे शहरी हैं इसलिए वे आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा- तो इसके लिए उन्हें यहां आने की जरूरत क्या है। वे जब चाहें, जहां चाहें बुला भेजें। मैं हाजिर हो  जाऊंगा। वैसे भी उनकी कोठी, बंगला या निवास, जो कुछ भी हो पर सुबह से मुझ जैसे नागरिकों की लाइन लगी रहती है। आप कहेंगे तो मैं उस लाइन में खड़े होकर उनसे मिलने का इंतजार कर लूंगा।
अरे नहीं भाई, कुछ समझा करो, बात इतनी सीधी नहीं है। लाइन में तो वे लोग खड़े होते हैं जिन्हें अपना कोई काम होता है और लाइन सिर्फ सुबह नहीं बल्कि दिन भर लगा करती है। कितने ही लोग तो रात के एक-एक बजे तक उनसे मिलने के लिए बैठे रहते हैं। इन दिनों वे थोड़ा जल्दी सो जाते हैं, फिर भी ग्यारह बजे तक तो दर्शनार्थियों का रेला लगा रहता है।
मैंने कहा- अच्छा। तो क्या इन तमाम लोगों के लिए वहां कुछ चाय-पानी की व्यवस्था होती है!
अरे! आपने भी कहां की लगाई। तीन-चार-पांच बैरिकैड्स के बाहर पुलिस वाले लोगों को खड़े रहने की अनुमति दे देते हैं, यही क्या कम है। हां, कभी-कभी कुछ लोगों के साथ वे फोटो खिंचवा लेते हैं, जिससे पता चलता है कि उनके मन में आम लोगों के प्रति कितना दयाभाव है। आपको इस जहमत में न पड़ना पडे ऌसलिए वे ही आपसे मिलने आना चाहते हैं।
-यह सब मैं समझ गया, लेकिन यह बिन मौसम बरसात कैसी?
- लगता है कि आप सठियाने लगे हैं। मौसम तो आ गया है और आप कह रहे हैं कि आपको पता नहीं। जनाब कैसे भूले जा रहे हैं कि आम चुनाव में अब यादा वक्त नहीं है।
- हां, यह तो मैं जानता हूं कि चुनाव निकट है, लेकिन इसका उनके मिलने आने से क्या ताल्लुक?
- फिर वही बात। आप पत्रकार हैं इसलिए वे चुनाव पूर्व आपसे कुछ जरूरी मंत्रणा करना चाहते हैं।
- मैं पत्रकार हूं तो क्या हुआ? मेरे पास तो सिर्फ अपना एक वोट है। पत्नी भी किसे वोट देगी, मैं नहीं जानता। ऐसे में मैं उनका कीमती वक्त जाया करने का अपराधी क्यों बनूं? बेहतर हो कि वे अपना समय मतदाताओं से सम्पर्क साधने में बिताएं।
- आपको समझाना बहुत कठिन हैं। वे आपका वोट मांगने नहीं आ रहे हैं। उन्हें आपसे इस मौके पर आपसे कुछ और सहयोग की आवश्यकता है। रही बात मतदाताओं की, तो वे जिस दिन से राजनीति में आए हैं उस दिन से मतदाताओं का दिल जीतने में ही तो लगे रहे हैं, चुनाव हो या कोई और मौका।
- जब मतदाताओं से उनका इतना निरंतर सम्पर्क है, तो फिर चिंता की क्या बात है। मेरा जहां तक सवाल है, मैं तो एक छोटे से शहर का छोटा सा पत्रकार हूं। मुझसे उन्हें क्या हासिल होगा। 
- नहीं ऐसा नहीं है। वे आपकी बहुत इात करते हैं। आप इतने पुराने पत्रकार हैं। उन्हें तब से जानते हैं जब वे राजनीति में पहला कदम रख रहे थे। आपकी राय से उन्हें कुछ न कुछ लाभ जरूर होगा।
- आप कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे, लेकिन भारतवर्ष में बहुत बड़े-बड़े पत्रकार हैं। मैं तो समझता था कि वे उनके ज्यादा काम के हैं। देखिए न, एक को उन्होंने राज्यसभा में भेजा, दूसरे को फैक्ट्री का लाइसेंस दिया, तीसरे को खदान का पट्टा, चौथे को सरकारी जमीनों पर बेजा कब्जा करने की इजाजत, पांचवें को चिटफंड चलाने दिया, छठवें को कलेक्टर-एसपी के ट्रांसफर-पोस्टिंग करवाने से मालामाल किया, सातवें से पुलिस में मुखबिरी करवाई, आठवें को राजदूत बनाया, नौवें को अपना प्रेस सलाहकार, दसवें को पार्टी प्रवक्ता नियुक्त किया, ग्यारहवें को पद्मश्री। कहिए और कितना गिनाऊं। 
-यही तो रोना है। जिन पत्तों पर तकिया था, वे पत्ते हवा देने लगे। जो उनकी शान में कल तक कशीदे काढ़ रहे थे वे अब और कुछ न मिलने की उम्मीद देखकर किनाराकशी करने लगे हैं। उनके पास तो अब ऐसी रिपोटर्ें आ रही हैं कि जो उनके सामने उनके हितैषी बनते थे वे ही रात के अंधेरे में उनके विरोधियों से हाथ मिला रहे हैं।
- तो भाई! इसमें मैं क्या कर सकता हूं। मैं तो कहीं आता-जाता नहीं। घर बैठे जितना पढ़-सुन लेता हूं उतना ही मेरा ज्ञान है। चुनावों में क्या होगा ये मैं कैसे जानूं? हां, इतना जरूर जानता हूं कि अपने कई बरसों के राज में उन्होंने जो दर्जनों क्या सैकड़ों जनहितैषी योजनाएं लागू कीं, वे अगर ठीक चली होंगी तो उसका फायदा उन्हें जरूर मिलेगा।
- अब आप आए मुद्दे पर। वे आपसे मिलकर शायद यही जानना चाहेंगे कि उनकी घोषणाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों का जनता को कितना लाभ मिला और जनता उनसे कितनी खुश है। इस बारे में आप उन्हें सही-सही तस्वीर बतला सकेंगे।
- नहीं बंधु! मेरी इतनी क्षमता नहीं है। मैं इतना कह सकता हूं कि सिर्फ योजनाएं लागू करना काफी नहीं है। यह तो सरकार का काम है, लेकिन जनता इसके अलावा और भी कुछ चाहती है। 
- अच्छा ऐसा है। इस बात का थोड़ा खुलासा कीजिए।
भाई, खुलासा तो उस बात का हो जो छिपी हो। यहां तो जाहिर है कि जनता आपको काम करने के लिए चुनती है। आपकी इात भी करती है, लेकिन जब आप अहंकार में आ जाते हैं, भ्रष्टाचार करते समय आगा-पीछा नहीं सोचते, आम आदमी से दुर्व्यवहार करने लगते हैं, आपकी लालबत्ती उसे डराने लगती है, आपके काफिले को रास्ता देने के लिए उसे दुबकना पड़ता है, आपके मीठे आश्वासन जब झूठे हो जाते हैं, जब आप अवसरवादियों और खुशामदखोरों के चक्कर में पड़ जाते हैं, जब आप मोटा चंदा देने वालों के चंगुल में फंस जाते हैं, जब आप जनता को अधिकार नहीं, दया का पात्र मान  बैठते हैं, तब ऊपर से जनता भले ही खामोश रहे, भीतर-भीतर वह तड़पती रहती है और सबक सिखाने के लिए मौके का इंतजार करती है।
- बाबा रे बाबा! आप ऐसी बात सोच रहे हैं। वे जब आपसे मिलेंगे तब क्या यही बातें कहेंगे?
- हां भाई! मिलूंगा तो यही कहूंगा। आप कहें तो आपके साथ चलकर वे दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर जहां भी रहते हों  उनसे सामने-सामने यह बात कर सकता हूं। 
- ऐसा कहकर तो आप मेरी नौकरी खा जाएंगे। बेहतर है कि आप उनसे ना ही मिलें।
- यही तो मैं शुरू से ही कह रहा था कि मेरे जैसा आम आदमी उनके काम का नहीं है।

देशबंधु में 25 अप्रैल 2013 को प्रकाशित 

 

Wednesday 17 April 2013

नए माध्यम : सदुपयोग की संभावनाएं


पिछले सप्ताह अंग्रेजी पत्रकार प्रशांत झा का एक ट्वीट देखा कि भारत में सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं की संख्या छह करोड़ का आंकड़ा पार कर गई है। इनमें से अधिकतर जन फेसबुक के सदस्य हैं, लेकिन अन्य समूहों में भी सदस्यता लगातार बढ़ रही है। श्री झा ने ही 'द हिन्दू' में छपे एक लेख में संभावना व्यक्त की है कि सोशल मीडिया के ये उपयोगकर्ता लोकसभा की एक सौ साठ सीटों पर चुनावी नतीजों को किसी न किसी रूप में प्रभावित कर सकते हैं। इन टिप्पणियों से स्वाभाविक ही निष्कर्ष निकलता है कि आने वाले दिनों में भारतीय समाज में ये नए माध्यम एक बड़ी भूमिका निभाएंगे। सच पूछिए तो इस दिशा में उत्साही लोगों द्वारा इसकी पहल की जा चुकी है। टयूनीशिया और इजिप्त में घटित तथाकथित अरब के साथ ही हमारे यहां भी बहुत लोगों को लगने लगा था कि डिजिटल मीडिया के माध्यम से भारत में भी क्रांतिकारी परिवर्तन संभव हो सकता है। अन्ना हजारे का नया अवतार तथा बाबा रामदेव व अरविन्द केजरीवाल का राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रकट होना इस सोच का ही फलितार्थ था। (आगे बढ़ने के पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं सोशल मीडिया, न्यू मीडिया, डिजिटल मीडिया, माध्यम आदि संज्ञाओं का उपयोग यहां पर्यायवाची के रूप में कर रहा हूं।)

 यह हमारी जानकारी में है कि एक लम्बे समय तक समाचार पत्रों ने देश में वही भूमिका निभाई जिसकी उम्मीद आज नए माध्यमों से की जा रही है। चार सौ वर्ष पहले प्रिंटिंग मशीन के आविष्कार से पूरी दुनिया में एक नई लहर उठी व समय आने पर भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। उसके बाद रेडियो व सिनेमा ने भी इसी तरह का रोल अदा किया। अपने अनुभव से मुझे मालूम है कि छत्तीसगढ़ में कृषि की उन्नति में आकाशवाणी के कृषि संबंधी कार्यक्रमों ने कितना योगदान किया। जैसा कि हम जानते हैं दूरदर्शन को भी यही सोचकर प्रोत्साहन दिया गया था कि बेहतर सामाजिक प्रक्रिया के निर्माण में उससे मदद मिलेगी। यह दीगर बात है कि कालांतर में व्यवसायिक सिनेमा की तरह टीवी भी मनोरंजन के साधन तक सिमट कर रह गया। इसके बावजूद टीवी की एक सकारात्मक भूमिका मैं इस रूप में देखता हूं कि वह वृध्दजनों, घरेलू, महिलाओं और एकाकी लोगों के लिए मन बहलाव व समय बिताने का एक अच्छा अवलंब बन गया है। एक बड़ा वर्ग जिसके जीवन में रसाभाव है उसके लिए टीवी ही शायद एकमात्र मित्र है!

हम यहां टीवी के कार्यक्रमों की गुणवत्ता की समीक्षा नहीं कर रहे, बल्कि उसकी उसी भूमिका को रेखांकित कर रहे हैं जो सामाजिक परिस्थितियों के चलते अपने आप बन गई है। इस पृष्ठभूमि में गौर करने पर स्पष्ट हो जाता है कि नए जमाने में नए माध्यम वह भूमिका निभाने के लिए सामने आ गए हैं।  सिनेमा, रेडियो और टीवी इन तीनों में एक कमी भी है कि वहां संवाद एकपक्षीय होता है। श्रोता या दर्शक को अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए अनिवार्यत: अन्य माध्यमों की तलाश करनी पड़ती है। एक समय गांव-गांव में रेडियो क्लब इसीलिए बने और अनेक स्थानों पर फिल्म सोसायटियों की स्थापना होने का भी शायद यही कारण रहा। सोशल मीडिया ने इस पुराने इंतजाम को ऊपर से नीचे तक बदलकर रख दिया है। इसने उपयोगकर्ता को अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक तरह से लंदन के हाईड पार्क जैसा खुला मंच दे दिया है और भौगोलिक सीमाएं डिजिटल संसार में आकर पूरी तरह से पिघलकर लुप्त हो गई है। इसने समाज के जनतंत्रीकरण की एक धुंधली सी संभावना भी जगाई है। राजेश जोशी की एक कविता में कल्पना की गई है कि कवि अपना टेलीफोन नंबर प्रधानमंत्री को दे देता है ताकि प्रधानमंत्री को जरूरत पड़े तो वे भी एक सामान्य नागरिक से बात कर सकें। सोशल मीडिया ने राजेश की कल्पना को इस हद तक तो साकार कर ही दिया है कि एक आम आदमी भारत के प्रधानमंत्री अथवा अमेरिका के राष्ट्रपति को टि्वटर अथवा फेसबुक पर संदेश भेज सकता है।

इन नए माध्यमों के इस्तेमाल पर मेरे अपने कुछ निजी अनुभव हैं। पाकिस्तान के पत्रकार मजीद शेख और मैं कार्डिफ, वेल्स (यूके) में कुछ माह तक एक फेलोशिप कार्यक्रम में साथ-साथ थे। 1977 अप्रैल के बाद हमारा सम्पर्क टूट गया था, लेकिन गूगल सर्च की मेहरबानी से 2012 में हम एक-दूसरे से नेट पर मिले और अब फेसबुक के माध्यम से संवाद जारी है। इसी तरह स्कूल के सहपाठी डॉ. विजय भटनागर से 1986 के बाद सम्पर्क खत्म हो गया था, 2012 में ही उनसे फिर मुलाकात हुई। मैंने दो साल पहले फेसबुक, टि्वटर, गूगल प्लस व लिंकड् इन- इन चार माध्यमों का उपयोग करना प्रारंभ किया और अब मैं प्रतिदिन एक से डेढ़ घंटे तक का समय इन पर बिताता हूं। मेरे प्रिय अखबार लंदन से प्रकाशित गार्जियन और न्यू स्टेट्समेन भी मुझे अब नेट पर पढ़ने मिल जाते हैं। इधर मैं गंभीरतापूर्वक सोच रहा हूं कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई से एक दिन बाद रायपुर पहुंचने वाले अखबार खरीदना बंद कर दूं क्योंकि रोज सुबह मैं अपने स्मार्ट फोन में ही पढ़ लेता हूं।

इन माध्यमों के प्रयोग से देश-विदेश में न सिर्फ पुराने मित्रों से सम्पर्क सूत्र दोबारा जुड़े हैं, बल्कि बहुत बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि से भी परिचय होकर संवाद प्रारंभ हो गया है। मेरा यह लेख भी इसके पहले लिखे अनेक लेखों की तरह मेरे ब्लॉग पर आ जाएगा तथा दूरदराज में निवास कर रहे बहुत से मित्र इसे पढ सकेंगे। मैं देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छपे अपने पसंदीदा लेखों की सूचना व लिंक टि्वटर आदि पर डाल देता हूं ताकि समान रुचि के साथी उन्हें पढ़ सकें। ऐसे प्रदेशोें में जहां 'देशबन्धु' का प्रसार नहीं है वहां के पाठकों को मैं यह सलाह देता हूं कि वे इंटरनेट पर जाकर 'देशबन्धु' पढ़ सकें। दरअसल विदेशों में बसे छत्तीसगढ़वासियों के लिए तो देशबन्धु का ई-संस्करण ही घर की खबरें जानने का प्रमुख माध्यम है। 

इस तरह इन नए माध्यमों की उपादेयता स्वयं सिध्द है, लेकिन इसके आगे यह सवाल उठाना लाजमी है कि हम इनका उपयोग किस रूप में करते हैं। यह बात समझ में आती है कि दूर देश में बसे पारिवारिक सदस्यों व मित्रों से स्काइप के द्वारा बातचीत हो जाए। इसमें समय की बचत भी है और आमने-सामने बात करने का सुख भी। एक तरह से स्काइप और फेसबुक जैसे अभिकरण डाकघर की भूमिका में आ गए हैं। समाचारों का आदान-प्रदान हो जाए, जन्मदिन की बधाई दे दी जाए, तस्वीरें दिखला दी जाएं- यह सब उचित है। लेकिन इन माध्यमों में जो अपार संभावनाएं निहित हैं यह उनका एक प्रतिशत भी नहीं है। दूसरे जिस तरह के संवादों का विनियम इन पर होता है, वे कई बार बचकाने और कैशोर्य अनुभूति से भरे होते हैं, जिन्हें एक बड़े समूह के साथ बांटना मेरी दृष्टि में मूर्खतापूर्ण ही है।

इस बचकानेपन को एक सीमा तक बर्दाश्त किया जा सकता है, लेकिन इन माध्यमों का कुछेक राजनीतिक शक्तियों द्वारा जैसा दुरुपयोग किया जा रहा है उससे मन में चिंता होती है। एक उदाहरण सामने रखूं। देश के नागरिक भ्रष्टाचार से चिंतित हो, उसके खिलाफ आवाज उठाएं, आन्दोलनकारियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करें, स्वयं आन्दोलन में शामिल हों यहां तक तो ठीक है, लेकिन इसमें व्यक्तिगत आक्षेप व चरित्र हनन क्यों हो? याहू अथवा गूगल पर ऐसे समूह बन गए हैं, जो राजनेताओं के चरित्र हनन में तमाम मर्यादाओं को लांघ जाते हैं। इसी तरह यह लोगों का जनतांत्रिक अधिकार है कि वे प्रधानमंत्री पद पर किसे देखना चाहते हैं। उन्हें अपने प्रिय नेता के समर्थन में चर्चा करने का पूरा अख्तियार है, लेकिन यह अधिकार उन्हें क्यों दिया जाए कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों पर कमर के नीचे वार करें! जिस तरह से इन माध्यमों पर घृणा फैलाने वाली सामग्री परोसी जा रही है, वह विचारों की अभिव्यक्ति का दुरुपयोग कर रही है और इस पर सभ्य समाज को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

मेरा अंत में कहना यह है कि सोशल मीडिया के सदुपयोग की अपार संभावनाएं हैं। इस तरफ ध्यान देंगे तो उससे समाज को विचार सम्पन्न बनाने में सहायता मिलेगी और अगर छुटभैय्येपन में लगे रहेंगे तो इन माध्यमों की भूमिका नुक्कड़ पर होने वाली अनर्गल चर्चाओं का माध्यम बनकर खत्म हो जाएगी।

देशबंधु में 18 अप्रैल 2013 को प्रकाशित 
 
 

Thursday 11 April 2013

बौने टिड्डी बनकर छा गए



यह बताने की जरूरत शायद नहीं है कि हमारे समाज में शरीर से बौने लोगों के साथ क्या बर्ताव किया जाता है। अक्सर तो उन्हें उपहास का लक्ष्य बनाया जाता है या फिर कभी-कभी उन्हें बेचारगी की दृष्टि से भी देखा जाता है। शादी, ब्याह या जन्मदिन की आलीशान पार्टियों में कई बार बौने लोगों को अतिथियों का मनोरंजन करने के लिए दरवाजे पर खड़ा कर देते हैं। सर्कसों में तो इसी लिहाज से उनकी उपस्थिति कोई सौ साल से चली आ रही होगी। इधर यदा-कदा उन्हें फिल्मों में भी जोकर का रोल मिलने लगा है। यद्यपि कुछ समय पहले जेम्स बांड की एक फिल्म में एक बौने को खलनायक के जरखरीद क्रूर हत्यारे के रूप में भी चित्रित किया गया था। फिल्म के अंत में जेम्स बांड उसे किसी पेटी में बंद कर देता है। कुल मिलाकर बौने व्यक्ति की देहयष्टि ही उसके लिए अभिशाप बन जाती है और यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि उसकी मानसिक क्षमता कितनी है। 

यह हमारे समय की विडम्बना है कि एक तरफ यह नजारा है तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ऐसे लोग जो बुध्दि विवेक में बौने हैं, आए दिन किसी न किसी रूप में सम्मानित, पुरस्कृत और अलंकृत होते रहते हैं। उन्हें सर-आंखों पर बैठाते समय कोई भी यह सवाल नहीं पूछता कि उनका बौध्दिक स्तर क्या है। बौध्दिक स्तर से आशय यहां सिर्फ कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री से नहीं है। ऐसा व्यक्ति विवेक सम्पन्न है या नहीं, उसमें सिध्दांतों पर टिके रहने की जिद है या नहीं, वह बौध्दिक रूप से कितना ईमानदार है- इन बातों की तरफ शायद ही किसी की तवज्जो जाती हो। इस अनदेखी का ही परिणाम है कि देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण और निर्णयकारी स्थानों पर ऐसे-ऐसे लोग काबिज हो चुके हैं जो कि उसके सर्वथा अयोग्य थे और इस गफलत की भारी कीमत हमें सामूहिक रूप से चुकाना पड़ रही है।

ये बौने लोग सत्ता के शिखरों पर पहुंचने के बाद जिस तरह का गर्हित आचरण कर रहे हैं उसकी बानगी आए दिन देखने मिल रही है। अभी चार दिन पहले महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने आन्दोलनकारी जनता के प्रति जिस अभद्र शब्दावली का उपयोग किया, वह इसका एक प्रमाण है। ये वही पवार हैं जिन्हें सिंचाई घोटाले में नाम आने के कारण कुछ माह पूर्व अपना पद छोड़ना पड़ा था। फिर ऐसी क्या मजबूरी हुई कि उन्हें ससम्मान उसी पद पर वापिस ले आया गया। महाराष्ट्र की जनता चुपचाप और शायद हताशा के भाव से यह खेल देखती रही। अजीत पवार ने भाषण के दौरान जो हाव-भाव दिखाए जिसकी झलकी टीवी पर देखने मिली, उससे उनका बौध्दिक बौनापन ही प्रकट हुआ। महाकवि रहीम ने ऐसे लोगों के लिए ही पांच सौ साल पहले कहा था- 'प्यादा सो फरजी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाए।' 

अजित पवार का यह उदाहरण ताजा-ताजा है, लेकिन एक दिन भी नहीं जाता जब कहीं न कहीं से इस तरह की ओछी बातें सुनने न मिलती हों। अगर काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है तो कहना पड़ेगा कि ऐसा टुच्चापन हर प्रदेश में देखने मिल रहा है। महाराष्ट्र अपवाद नहीं है। बाकी प्रदेशों में और बाकी पार्टियों में भी यही सब रोज हो रहा है। और तो और, जिन तथाकथित साधु संतों के प्रवचन सुन लोग अपना परलोक सुधारने में लगे रहते हैं वे भी विचारों से बौने होने का परिचय आए दिन देते रहते हैं। संत (?) आसाराम के हाल के वक्तव्यों को देख लें। निर्भया कांड में उन्होंने जैसी टीका की वह मानो पर्याप्त नहीं थी। इसके बाद होली के अवसर पर भी पानी की बर्बादी का प्रश्न उठने पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में शब्दों पर संयम नहीं रखा।

यह बौनापन सिर्फ व्याख्यानों और वक्तव्यों तक सीमित नहीं है। इसका प्रदर्शन और भी बहुत रूपों में हो सकता है और होता है। मिसाल के तौर पर मुकेश अंबानी के सत्ताइस मंजिला महल को ही लें। सुना है कि कई अरब की लागत से बने इस भव्य प्रासाद में कोई वास्तुदोष निकल जाने के कारण अंबानी परिवार यहां रहने अभी तक नहीं आया है। संभव है कि कोई वास्तुपंडित कोई टोटका करके यह दोष खत्म कर दे, लेकिन हमें तो सत्ताइस मंजिल की इस मीनार को देखकर भारत की सबसे बड़े धनकुबेर की सोच के बौनेपन का ही अनुमान होता है। एक समय था जब राजा-महाराजाओं ने अपने लिए बड़े-बड़े महल बनवाए;  उनके सामने शायद इतिहास के दृष्टांत नहीं थे, लेकिन आज जब कई हजार साल के इतिहास की सूचनाएं उपलब्ध हैं तब भी उससे कोई सबक न लेने में कौन सी बुध्दिमानी है।

देश में जो हजारों पुरस्कार बांटे जाते हैं उनमें भी यही बौध्दिक कंगाली परिलक्षित होती है। ऐसी सैकड़ों गैर-सरकारी संस्थाएं हैं जिनकी स्थापना सिर्फ फर्जी अलंकरण देने के लिए ही की गई है। इन संस्थाओं के सूत्रधार किसी भूतपूर्व रायपाल, भूतपूर्व राजदूत या ऐसे किसी व्यक्ति को अपना अध्यक्ष बना लेते हैं और फिर उसके नाम का उपयोग कर पुरस्कार अभिलाषी लोग से सहयोग राशि इकट्ठी कर उसी से उनको कोई आकर्षक नाम वाला पुरस्कार दे देते हैं।  'जिसका जूता उसी का सिर'। जो सूत्रधार हैं उसके लिए तो यह कमाई का जरिया है, लेकिन जो महानुभाव उसे अपने नाम का इस्तेमाल करने देते हैं उनकी बुध्दि के बारे में क्या कहा जाए! अपने जीवन में बड़े-बड़े पदों पर रह चुके लोग यदि इस तरह के फर्जीवाड़े में शामिल होते हैं तो वे अपनी अपूर्ण, तुच्छ आकांक्षा को ही प्रदर्शित करते हैं। हमारे साहित्यकार और कलाकार तो पुरस्कार और प्रसिध्दि के लिए जैसे पागल हुए जाते हैं।  उनका सारा समय इसी जोड़-तोड़ में लगा रहता है कि कब कौन बुलाकर माला पहना दें और बन सके तो एकाध लिफाफा भी थमा दे। कुछेक संस्थाएं इसी उद्देश्य से स्थापित होती हैं  कि उसके माध्यम से रायपाल, मुख्यमंत्री या ऐसे प्रभावशाली लोगों में मेलजोल बढ़ाया जा सके। बहुत से लोग इन फर्जी संस्थाओं के कार्यकमों में शामिल भी इसीलिए होते हैं कि मंत्री-मुख्यमंत्री उनके ऊपर एक अनुग्रह भरी दृष्टि डाल दें। अभी पच्चीस-तीस साल पहले तक संत कवि कुंभनदास को साक्षी रखकर लेखक कहता था- संतन को कहा सीकरी सौ काम,  लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि सारे के सारे संत न सिर्फ सीकरी में बस गए हैं, बल्कि राजसत्ता की गोद में बैठने के लिए मचल रहे हैं और एक दूसरे से झगड़ रहे हैं।

यही स्थिति टीवी पर अवतरित होने वाले विशेषज्ञों की भी है। अधिकतर का लक्ष्य यही होता है कि वे जो बात कर रहे हैं उसके चलते उन्हें या तो रायसभा की मेम्बरी मिल जाएगी या फिर लाभ देने वाला ऐसा ही कोई अन्य पद। इस तरह से तमाम बौने लोग हमारे सामाजिक जीवन पर टिड्डियों की तरह छा गए हैं- कोई निर्वाचित प्रतिनिधि बनकर,  कोई रायसभा सदस्य बनकर, कोई पद्म अलंकरण पाकर, कोई विश्वविद्यालय से मानद उपाधि लेकर, कोई किसी संगठन में किसी पद पर, तो कोई स्वयं को लेखक या विचारक के रूप में स्थापित करके। यह पाने के लिए पैसा खर्च करना पड़े, साष्टांग दण्डवत करना पड़े, कोई भी मक्कारी करना पड़े, सब कुछ क्षम्य है। बुध्दि विवेक के इन बौनों से तो सर्कस के वे जोकर अच्छे जो अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं।

देशबंधु में 11 अप्रैल 2013 को प्रकाशित 

Friday 5 April 2013

यात्रा वृत्तांत : एक अनूठे गाँव की कहानी



गो दरगावां। बिहार के बेगूसराय जिले का एक छोटा सा गांव। इतना छोटा कि गोदरगावां सहित चार गांवों को मिलाकर एक ग्राम पंचायत बनी है। सर्वे ऑफ इंडिया के रोड एटलस याने सड़क मानचित्र में इस गांव को एक बिन्दु भर जगह भी नहीं मिल पाई है। फिर भी यह एक ऐसा गांव है, जिसे हिन्दी जगत में साहित्य तीर्थ की मान्यता मिली हुई है। नामवर सिंह, कमलेश्वर, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी- कौन नहीं आया यहां! तो ऐसा क्या खास है इस जगह में!

मैं खुद पिछले कई सालों से गोदरगावां जाने का कार्यक्रम बना रहा था, लेकिन किसी न किसी कारण से यात्रा टल जाती थी। लगभग दस साल की इच्छा अब जाकर पूरी हुई। जिन मित्रों को पता था कि मैं वहां जा रहा हूं उनमें से कुछ ने कहा- बेगूसराय बिहार का लेनिनग्राड है। यह उपमा मैंने पहले भी सुन रखी थी। पटना से गोदरगावां पहुंचा तो वहां भी नए-पुराने दोस्तों से बार-बार सुनने मिला कि आप लेनिनग्राड आ गए। यह इसलिए कि स्वाधीनता संग्राम में इस जिले ने तो देश के बाकी हिस्सों की तरह बढ़-चढ़ कर भाग लिया ही, हिन्दी भाषी क्षेत्र में यहीं कम्युनिस्ट पार्टी को एक मजबूत जमीन मिली और यहां के खेतों में समाजवाद के विचार बीज बोए गए।

पटना से गंगा के दक्षिणी किनारे के साथ-साथ पूरब की दिशा में चलते हुए सेमरिया घाट पर राजेन्द्र सेतु पार कर कोई तीन घंटे में हम बेगूसराय पहुंचे।  यहां निकट ही बरोनी में इंडियन ऑयल का तेलशोधन संयंत्र है और जो बिहार में औद्योगिक विकास का एकमात्र उदाहरण है। बेगूसराय में राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही महाकवि दिनकर की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। थोड़ा आगे बढ़कर गांव की तरफ रास्ता मुड़ता है। तीस-पैंतीस मिनट बाद गोदरगावां पहुंचते हैं। प्रवेश करते साथ ही चन्द्रशेखर आजाद की आदमकद मूर्ति लगी है। गांव के ही एक किसान ने अपने स्वर्गवासी अनुज की स्मृति में इस प्रतिमा की स्थापना की है। देश में ऐसे उदाहरण कम ही होंगे जहां प्रियजन की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए एक महान क्रांतिवीर की प्रतिमा लगाई जाए। यहां एक ओर निजी स्मृतियों को संजोए रखने की भावुकता थी, तो दूसरी ओर समाज को बदलने का अधूरा सपना वास्तविकता में बदलने का एक मौन संकल्प भी। 


बहरहाल, गोदरगावां को जो पहचान मिली है वह इसके अस्सी साल पुराने विप्लवी पुस्तकालय के चलते है। 1991 में गांव के लोगों ने महावीर पुस्तकालय की स्थापना की थी। कालांतर में इसका नाम बदलकर विप्लवी पुस्तकालय कर दिया गया। एक छोटे से गांव में जनता के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना हो सकती है, वह अस्सी साल तक चल सकता है, उसका अपना सुनियोजित भवन हो सकता है- इन सारी बातों की कल्पना कम से कम रायपुर में बैठकर तो नहीं की जा सकती; जहां पहले से चले आ रहे पुस्तकालय बंद हो गए हैं, जहां स्वाधीनता संग्राम का केन्द्र आनंद समाज पुस्तकालय मरणशय्या पर है और जिसकी तरफ देखने की किसी को फुरसत नहीं है।


विप्लवी पुस्तकालय का अपना दोमंजिला भवन है। इसमें नीचे एक वाचनालय है जहां बिहार के सारे अखबार और देश की तमाम महत्वपूर्ण पत्रिकाएं आती हैं। लाइब्रेरी में बाइस हजार पुस्तकों का भंडार है जिनमें अंग्रेजी की भी कुछ पुस्तकें हैं। इस विशाल भंडार में कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा वृत्तांत आदि तो हैं ही, धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र आदि पर भी पर्याप्त पुस्तकें हैं। सारी पुस्तकें तरतीबवार रखी गई हैं और उनका सूचीकरण भी विधिवत् किया गया है। अंदाज लगाइए, मुझे कितनी खुशी हुई होगी जब 2003 में प्रकाशित मेरा निबंध  संकलन ''समय के साखी'' लाइब्रेरियन महोदय ने मेरे सामने लाकर रख दिया। पुस्तकालय के प्रवेश द्वार पर ही शहीदे आजम भगत सिंह की प्रतिमा जनसहयोग से ही स्थापित की गई है, जिससे पुस्तकालय के नाम को सार्थकता मिलती है। 


पुस्तकालय के सामने सड़क पार एक तिमंजिला भवन भी लगभग दस साल पहले बनाया गया है, जिसमें अभी हाल तक निर्माण कार्य चलते रहा है। यहां देवी वैदेही सभागार है, जिसका निर्माण गांव के ही एक अन्य सेवाभावी सान ने अपनी स्वर्गीया पत्नी की स्मृति में करवाया है। इस सभागार की क्षमता साढ़े तीन सौ व्यक्तियों की है। मंच पर फिल्म आदि प्रदर्शन के लिए एक बड़ा परदा लगाया गया है। ऐसा सुंदर हाल, एक बार फिर कहूं कि रायपुर में भी नहीं है। इस प्रेक्षागृह के भवन में ही अनेक अतिथि कक्ष व बैठक कक्ष आदि बनाए गए हैं। जिनके नामकरण में साहित्यिक अभिरुचि का परिचय मिलता है- रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवा सदन, प्रेमाश्रम आदि, याने प्रेमचंद की प्रसिध्द कृतियों का स्मरण। अभी हाल में राहुल सांकृत्यायन के सुप्रसिध्द उपन्यास सिंह सेनापति के नाम पर एक कक्ष का नामकरण किया गया है। एक छत को नाम दिया गया है- कैफी आामी संस्कृति विहार। एक और छत है जो विवेकानंद वाटिका के नाम से पुकारी जाती है।


इस भवन के सामने की दीवार पर मीराबाई की आदमकद प्रतिमा उकेरी गई है। प्रवेश द्वार के एक तरफ प्रेमचंद की प्रतिमा स्थापित है तो दूसरी ओर कबीर की। जनवरी 1931 में शहीद पांच देशभक्तों का एक भित्तिचित्र भी सामने ही लगा है। दोनों भवनों में जगह-जगह पर देश के महान साहित्यकारों के चित्र दीवारों पर लगाए गए हैं। इनमें आप महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र से लेकर गजानन माधव मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई व मन्नू भंडारी तक के चित्र देख सकते हैं। यहां शेक्सपीयर, मार्क्स तथा लेनिन भी मौजूद हैं तथा गालिब, फौ, मााज व कैफी आामी भी। यहां जो भोजनकक्ष है उसे कबीर चौका नाम दिया गया है। अपने साहित्य मनीषियों के प्रति ऐसा समादर उनकी स्मृति को जीवित रखने का ऐसा प्रयत्न, और इस सबमें सरकार की नहीं, बल्कि जनता की भागीदारी और कहां देखने मिलेगी?


विप्लवी पुस्तकालय में हर साल 23 मार्च को भगतसिंह का बलिदान दिवस बहुत शिद्दत के साथ मनाया जाता है। आयोजनकर्ता देश के जाने-माने साहित्यकारों को मनुहार करके बुलाते हैं। हर साल की तरह इस साल भी 23 मार्च को 12 बजे भगतसिंह प्रतिमा से एक जुलूस निकला जो एक किलोमीटर दूर चन्द्रशेखर आजाद की प्रतिमा तक जाकर लौटा। इस जुलूस में कोई ढाई-तीन हजार लोग शामिल थे। वहां से लौटे नहीं कि ''नवसाम्राज्यवाद और प्रगतिशील आंदोलन की चुनौतियां''- इस विषय पर वैदेही सभागार में संगोष्ठी प्रारंभ हो गई। साढ़े तीन सौ लोग कुर्सियों पर, सौ-एक लोग अतिरिक्त कुर्सियों पर अथवा बालकनी की सीढ़ियों पर, गलियारे में और सौ लोग, फिर बाहर खुले मैदान में पंडाल के नीचे लाउड स्पीकर से चर्चा सुनते पांच सौ से ज्यादा। इस तरह एक हजार लोगों की उपस्थिति में यह पहली संगोष्ठी हुई जो एक बजे से साढ़े चार बजे तक साढ़े तीन घंटे निरंतर चलते रही। बाहर से आए वक्ता भूख से बेहाल थे, लेकिन श्रोता बराबर जगह पर जमे हुए थे। उस शाम हम लोगों को पांच बजे दिन का भोजन नसीब हुआ।


शाम सात बजे से इप्टा लखनऊ द्वारा ब्रैख्त के नाटक का मंचन था। गांव के लोग, खासकर महिलाएं अपना काम-काज निपटा कर आईं। सो आठ-सवा आठ बजे से शुरु होकर ग्यारह बजे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहा, उसमें भी ढाई हजार की भीड़। अगले दिन 11 बजे दूसरी विचार गोष्ठी प्रारंभ हुई वह भी दो बजे तक चली। इसमें श्रोताओं की संख्या पिछले दिन के मुकाबले कम, लेकिन चार सौ के आसपास थी। चार बजे अंतिम कार्यक्रम के रूप में जनसभा का आयोजन किया गया। इसमें भी खासे उत्साह के साथ ग्रामवासियों ने भाग लिया। 


कुल मिलाकर गोदरगावां की यात्रा एक नायाब अनुभव था। इस गांव के निवासी और बिहार में तीन बार विधायक रह चुके लेखक मित्र राजेन्द्र राजन पुस्तकालय व इस कार्यक्रम के प्रमुख सूत्रधार हैं। उनके साथ हमउम्रों के अलावा युवा सहयोगियों की एक समर्पित टीम है। इनके बल पर ही 2008 में इस छोटे से गांव में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन सम्पन्न हो सका था। एक आखिरी बात। 23 तारीख की शाम मैं ठेलेनुमा दूकान पर बिस्किट खरीदने गया तो पहले तो दूकानदार ने पैसे लेने से मना कर दिया। वहां खड़े अन्य लोगों ने भी कहा कि आप हमारे अतिथि हैं, हम पैसा नहीं लेंगे। मैं बहुत मुश्किल से उस युवा दूकानदार को कीमत अदा कर सका।


देशबंधु में 4 अप्रैल 2013  को प्रकाशित