Wednesday 26 June 2013

छत्तीसगढ़ : राजनीति में माटीपुत्र (और पुत्रियां)



युयुत्सु कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पिछले दिनों रायपुर की एक सभा में एक तरफ कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर वार किया, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह पर। उन्होंने इशारों-इशारों में दोनों पर बाहरी होने का आरोप मढ़ते हुए छत्तीसगढ़ की राजनीति में इनकी भूमिका पर एतराज जताया। श्री जोगी, इस टिप्पणी के माध्यम से, जाहिर है कि राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहते थे, किन्तु प्रदेश के राजनीतिक हलकों में उनकी इस बात को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। दिग्विजय सिंह राज्य पुर्नगठन के बाद तकनीकी रूप से भले ही अन्य प्रदेशवासी हो गए हों, लेकिन वे सात साल उस प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, जिसमें छत्तीसगढ़ शामिल था। इस नाते यहां के कांग्रेस संगठन में यदि उनके समर्थक हैं और इस प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों में श्री सिंह की दिलचस्पी बनी हुई है तो इस पर आपत्ति की कोई बात मुझे समझ नहीं आती। जहां तक डॉ. रमन सिंह की बात है, वे तो किसी दृष्टि से बाहरी नहीं हैं। जिस व्यक्ति का जन्म इस प्रदेश में हुआ हो और जिसका सारा जीवन यहीं बीता हो, उसे बाहरी कहने का कोई औचित्य नहीं बनता।

बहरहाल, श्री जोगी की यह टिप्पणी स्थानीय और आप्रवासी के व्यापक विमर्श की ओर चलने का निमंत्रण देती है। अपने और पराए, हम और वे, स्थानीय और आव्रजक जैसी द्वंद्वात्मक श्रेणियां न तो छत्तीसगढ़ के लिए नई हैं, न भारत के लिए और न दुनिया के लिए। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब अपनी राजनैतिक वैधता स्थापित करने के लिए राजसत्ता द्वारा इन विभाजक श्रेणियों का उपयोग किया गया है। रंगभेद, नस्लभेद आदि इस सोच की ही उपज हैं। इजरायल और पाकिस्तान का निर्माण ऐसी भावनाओं को उभारने से ही संभव हुआ। अमेरिकी जनतंत्र में बैरी गोल्डवाटर जैसे नस्लवादी नेता हुए तो ब्रिटिश जनतंत्र में इनॉक पॉवेल।  हमारे देश में भी ऐसा विभेद पैदा कर राजनैतिक लाभ उठाने  वाली शक्तियां कम नहीं हैं। एक समय तमिलनाडु में तमिल श्रेष्ठता का नारा गूंजा, तो असम में ''बहिरागत'' के खिलाफ लंबे समय तक आंदोलन चलता रहा, जो आज भी नए-नए रूपों में प्रकट होते रहता है। महाराष्ट्र में शिवसेना का गठन और विकास इसी भावना पर हुआ। आज भी उध्दव ठाकरे हों या राज ठाकरे, वे महाराष्ट्र से गैर-मराठी लोगों को बेदखल कर देना चाहते हैं।

जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब कांग्रेस के युवा तुर्क भूपेश बघेल ने भी स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा उठाया था। ''घर कहां है'' नामक नाटक में इसकी अनुगूंज सुनाई दी थी। याने राजनैतिक स्तर पर यह मुद्दा पिछले तेरह साल से कहीं न कहीं जीवित है। इसमें एक दिलचस्प पहलू नजर आता है कि श्री जोगी और श्री बघेल पार्टी के भीतर भले एक-दूसरे के विरोधी हों, एक भावनात्मक मुद्दे का लाभ लेने की प्रवृत्ति दोनों में दिखी। संभव है कि श्री बघेल के विचारों में इस लंबी अवधि में कोई परिवर्तन आया हो! लेकिन इस प्रश्न को यहीं तक सीमित न रख इसके कुछ और पहलुओं पर विचार करना चाहिए।

आज भारत के विभिन्न प्रदेशों में राजसत्ता के सूत्र मोटे तौर पर उन लोगों के हाथ में है जो स्थानीय निवासी होने का दावा कर सकते हैं। शुरुआती दौर में जिन लोगों ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, उनकी त्याग तपस्या का सम्मान करते हुए जनता ने उन्हें सत्ता की चाबी सौंप दी। इनमें से अधिकतर शहरी, संभ्रांत शिक्षित वर्ग के प्रतिनिधि थे- गोविन्द वल्लभ पंत और बिधानचन्द्र राय से लेकर, मोरारजी देसाई और राजाजी तक। पंडित रविशंकर शुक्ल भी इसी वर्ग से थे। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था होने के बाद और चुनावी राजनीति में आम जनता की भागीदारी होने के कारण धीरे-धीरे देश में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ तथा चौथे आम चुनाव के बाद से ऐसे तबकों का संसदीय राजनीति में वर्चस्व बढ़ते चला गया, जिन्होंने संभ्रांत राजनीति के घेरे को तोड़ा। महाराष्ट्र में वसंतराव नाइक, बिहार में कर्पूरी ठाकुर आदि इस नई चलन के प्रारंभिक प्रतिनिधि माने जा सकते हैं।

वर्तमान समय की बात करें तो शरद यादव, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, मायावती, अशोक गहलोत, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह जैसे नाम हमारे सामने हैं। आशय यह कि पिछले चालीस साल में भारतीय राजनीति का चेहरा बदला है। ग्रामीण भारत यदि पूरी तरह से राजनीति में काबिज नहीं भी है तो भी उसका दबदबा काफी है। कृषक समाज के प्रतिनिधियों में भी भूस्वामी नहीं, बल्कि खेतिहर वर्ग के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में चुने जा रहे हैं। इस राजनीति में दलित समाज ने जिस प्रखरता और मुखरता के साथ अपनी पहचान बनाई है वह स्पष्ट दिख रही है, यद्यपि आदिवासी समाज अभी भी अपनी राजनीतिक संभावनाओं को पूरी तरह प्रस्फुटित नहीं कर पाया है।

इस पृष्ठभूमि में अन्य प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ कहां है, यह विश्लेषण किया जा सकता है। सन् 2000 में गठित तीन नए राज्यों में से दो आदिवासी बहुल थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अपने आदिवासी नेता अजीत जोगी को मुख्यमंत्री चुना तो झारखण्ड में भारतीय जनता पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को। भाजपा ने वरिष्ठ नेता करिया मुंडा की उपेक्षा कर बाबूलाल मरांडी को क्यों चुना, इस बारे में कहा गया कि व्यापारिक लॉबी के दबाव में ऐसा किया गया; जबकि छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को अपने से कहीं ज्यादा वरिष्ठ के मुकाबले तरज् ाीह दी गई। खैर! इसके बाद झारखण्ड में लगातार आदिवासी ही मुख्यमंत्री बनता रहा, जबकि छत्तीसगढ़ में पिछले दस साल से एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री है, यद्यपि उसकी अपनी पृष्ठभूमि ग्रामीण है।

किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री आदिवासी है या गैर-आदिवासी, सवर्ण है या दलित, द्विज है या ओबीसी, इस तुलना से यादा मायने यह बात रखती है कि प्रदेश में आम जनता का राजनैतिक सशक्तिकरण किस सीमा तक हुआ है। इस पैमाने पर विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ में आम जनता की राजनीति में सक्रिय भागीदारी नहीं के बराबर है। यूं तो प्रदेश में 2004 और 2009 में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी विधिपूर्वक हुए हैं तथापि उस बुनियादी स्तर पर भी आम जनता का राजनीति में वर्चस्व लगभग शून्य है। यह एक ऐसी स्थिति है जिस पर अजीत जोगी और डॉ. रमन सिंह दोनों को ही चिंता करना चाहिए। श्री जोगी को ज्यादा  इसलिए क्योंकि स्थानीय और बाहरी का प्रश्न उन्होंने ही उठाया है। डॉ. सिंह को इसलिए  कि उनके दस साल के कार्यकाल की स्थायी उपलब्धि यही हो सकती थी।

मुझे अक्सर इस बात पर आश्चर्य होता है कि छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र (और पुत्रियों) को अपनी राजनीति चलाने के लिए ठेकेदारों और दलालों का मोहताज क्यों होना पड़ता है। हमारे ग्रामीण परिवेश से चुनाव जीतकर आने वाले नेता का प्रतिनिधि या प्रवक्ता अक्सर कोई व्यापारी ही क्यों होता है? कभी कोई शराब ठेकेदार, कभी कोई ट्रांसपोर्ट ठेकेदार, कभी कोई जमीन-जायदाद का कारोबारी- इनके बिना हमारे चुने हुए नेता एक  कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते? ऐसा क्यों है कि छत्तीसगढ़ के व्यापार-व्यवसाय में, यहां तक कि पारंपरिक व्यवसायों में भी यहां के माटीपुत्रों का हिस्सा बहुत छोटा है? वे न तो आर्थिक रूप से सशक्त बन पाए हैं और न राजनीतिक रूप से, वे न तो समाज परिवर्तन के आंदोलनों का नेतृत्व कर पाते हैं, न प्रशासन में वे शीर्ष पर हैं और न बौध्दिक-अकादमिक जगत में उनकी कोई आवाज बन पाती है। इसे ध्यान में रख हम अपने नेताओं से यही निवेदन कर सकते हैं कि वे छायायुध्द छोड़कर बुनियादी सवाल पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।

देशबंधु में 27 जून 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 19 June 2013

कुर्सी के दावेदार

 
 
 
 
देश की राजनीति में इस समय अजब सी आपाधापी मची है। लोकसभा के चुनाव 2014 में होना हैं और अभी से प्रधानमंत्री पद के लिए कोई डेढ़ दर्जन दावेदार खड़े हो गए हैं। भाजपा में लालकृष्ण अडवानी, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडक़री और शिवराज सिंह सात उम्मीदवारों के नाम तो चल ही रहे थे; रमन सिंह खामोश हैं, लेकिन उनका भी नाम जोड़ लेना चाहिए। समाजवादी पार्टी से मुलायम सिंह यादव और जद यू से नीतीश कुमार के साथ-साथ शरद यादव के नाम भी उठे हैं। एनसीपी के शरद पवार की महत्वाकांक्षा किसे पता नहीं है! जयललिता, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी भी अपने-अपने समीकरण बैठाने में लगे हुए हैं। मजे की बात है कि जिस पार्टी ने प्रधानमंत्री पद को लेकर अब तक कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई, उसे आठ उम्मीदवारों वाली भाजपा बार-बार चुनौती दे रही है कि अपना उम्मीदवार घोषित करो। अरे भाई! तुम पहले अपने बीच में तो एक राय कायम कर लो, उसके बाद सामने वाले को ललकारना।

इस उथल-पुथल में सबसे विचित्र स्थिति भाजपा की दिखाई दे रही है। अभी कुछ माह पूर्व तक बड़बोले पार्टी प्रवक्ता अहंकारपूर्वक बताते थे कि उनका राज किस-किस प्रदेश में है। जो प्रदेश उनके पास थे, उनमें से कर्नाटक, उत्तराखंड और हिमाचल हाथ से निकल गए। झारखंड में जो अनैतिक गठबंधन किया था वह त्रिशंकु की दशा को प्राप्त हो गया है। नवीन पटनायक ने तो पांच साल पहले ही दोस्ती तोड़ दी थी। अब बिहार में भी सत्ता की भागीदारी खत्म हो गई है। आज की तारीख में भाजपा के पास कुल साढ़े तीन प्रांत बचे हैं- गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा और पंजाब। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीता है, लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि क्या मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आसन्न चुनावों में भाजपा इस तरह का प्रदर्शन कर पाएगी!

यह तो लोग देख रहे हैं कि भाजपा में किस तरह मोदी और अडवानी के बीच प्रधानमंत्री पद पाने की होड़ लगी हुई है। इसे ही कहते हैं ''सूत न कपास...''। अभी लोकसभा चुनाव होना बाकी है, उसमें भाजपा ही विजयी होगी, यह पता नहीं किस दिव्य दृष्टि से इन्होंने देख लिया! कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने और उठते-बैठते, सोते-जागते उस पर आरोप लगाने से यदि चुनाव जीते जा सकते तो फिर कहना ही क्या था! अपने इस प्रमाद में भाजपा ने दो महत्वपूर्ण वास्तविकताओं की अनदेखी कर दी। एक तो यह कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनने के कारक तत्व क्या थे। दूसरे, नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा को हवा देते हुए यह तथ्य कि गुजरात पूरा भारत नहीं है। दरअसल यह बात तो 2004 के चुनाव में ही समझ आ जाना चाहिए थी। यह वाजपेयीजी की असफलता थी कि वे बहुत चाहकर भी श्री मोदी को नहीं हटा सके।

मैं भाजपा के बारे में विचार करता हूं तो  बिल्कुल भी नहीं समझ पाता कि यह पार्टी एक दक्षिणपंथी, अनुदार, पूंजीवादी जनतांत्रिक विकल्प के रूप में स्वयं को तैयार करने में क्यों हिचकती है। यह जानते हुए भी कि राम मंदिर, कॉमन सिविल कोड और धारा-370 को ठंडे बस्ते में डाल देने के बाद ही भाजपा एक राष्ट्रीय गठबंधन बना पाने में सफल हो सकी थी, वह पार्टी क्यों बार-बार उग्र हिन्दुत्व की ओर लौटती है। अगर भाजपा अपनी इस जिद को किसी दिन छोड़ दे तो वह स्वतंत्र पार्टी के नए अवतार के रूप में सामने आ सकती है। मुश्किल यह है कि अब भाजपा के पास न तो दीनदयाल उपाध्याय जैसा कोई सिध्दांतकार है और न अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई जननेता। लालकृष्ण अडवानी ने शायद इस बात को समझा था और अपने आपको एक नए सांचे में ढालने की कोशिश की थी, लेकिन संघ के जड़मति नियंताओं ने उनकी इस रणनीति को समझा ही नहीं और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।

इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी राजनीति के आकाश पर धूमकेतु की तरह उदित हुए हैं। मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें भी लग रहा है कि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए बेहतर उम्मीदवार हैं। इसके चलते उन्होंने भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर सत्रह साल और प्रदेश स्तर पर आठ साल से लगातार चले आ रहे गठबंधन को तोड़ने में कोई संकोच नहीं किया। यूं कहने को जदयू राष्ट्रीय दल है और उसके अध्यक्ष शरद यादव एनडीए के संयोजक थे, लेकिन सत्ता तो उनके हाथ कुल मिलाकर एक ही प्रदेश याने बिहार में है, जिसके चलते व्यवहारिक स्थिति यह है कि शरद यादव कुछ भी चाहें, होगा वही जो नीतीश कुमार चाहेंगे। नीतीश कभी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, दो वर्ष बाद वे अकेले विधानसभा चुनाव जीत पाएंगे या नहीं, इस बारे में कोई भविष्यवाणी करना  उचित नहीं होगा, लेकिन कम से कम आज बिहार के बाद जदयू और अधिक कमजोर हुई है। ऐसे में शरद यादव भी अपने वर्चस्व को तभी कायम रख पाएंगे जब वे अपने गृहप्रांत मध्यप्रदेश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने बलबूते पार्टी को मजबूत कर सकें। ऐसी खबरें सुनने मिली हैं कि श्री यादव तत्काल एनडीए छोड़ने के पक्ष में नहीं थे। मुझे यह सूचना सही लगती है।

बहरहाल, एनडीए में जो बिखराव होना था, वह हो गया। अब आगे की तस्वीर क्या बनेगी? इस घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में ममता बनर्जी और नवीन पटनायक भी एकाएक सक्रिय हो गए हैं। वे फैडरल फंड या कि संघीय मोर्चा बनाने की संभावना टटोल रहे हैं। वे इसमें झारखंड को भी इस बिना पर जोड़ना चाहते हैं कि इन चारों प्रदेशों की स्थितियां एक समान हैं। यह एक कुतर्क ही है, लेकिन राजनीति अक्सर तर्क से नहीं चलती। असली सवाल यह है कि क्या सचमुच इस तरह का कोई मोर्चा बन सकता है। चार प्रदेश, चार अलग-अलग पार्टियां- चुनाव पूर्व गठजोड़ की संभावना क्षीण है, लेकिन यदि चुनाव के बाद गठजोड़ होगा तो उसके आधार क्या होंगे? नवीन, ममता और नीतीश तीनों समय-समय पर भाजपा के साथ रह चुके हैं। चुनाव के बाद तीनों मिलकर किसका साथ देंगे- कांग्रेस का या भाजपा का और किन शर्तों पर? क्या वे अपने में से किसी के लिए प्रधानमंत्री का पद मांगेंगे या फिर और कुछ?

अभी इस प्रस्तावित मोर्चे को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। वामदल भी इनके इरादों के बारे में आश्वस्त दिखाई नहीं देते। वयोवृध्द कम्युनिस्ट नेता ए.वी. बर्ध्दन ने साफ-साफ कहा है कि बिना साझा कार्यक्रम तय किए बात आगे नहीं बढ़ सकती। ऐसे ही विचार माकपा की तरफ से भी आए हैं। वामदलों की हिचक समझ में आती है। वे ममता बनर्जी के साथ जाएं, असंभव है। वे शायद नवीन पटनायक के साथ भी न जाएं जिन्होंने उड़ीसा को पास्को व वेदांता जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए खुला छोड़ दिया है। वाममोर्चे को चन्द्रबाबू नायडू अच्छे लग रहे हैं, लेकिन उनमें अब वह चमक नहीं है जो आज से दस साल पहले थी। इस बीच एक और नई बात हुई है। सीपीआई के मुखर प्रवक्ता डी. राजा पहले डीएमके के समर्थन से रायसभा में पहुंचे थे, अब वे एआई डीएमके समर्थन से चुनाव लड़ रहे हैं। यह अपने आप में बड़ी बात नहीं है, लेकिन यदि कल को जयललिता अपने 'मित्र' नरेन्द्र मोदी का समर्थन करते हुए एनडीए में शामिल हो जाएं तब क्या स्थिति बनेगी? हां, जयललिता ने भाजपा का साथ न देने का संकल्प कर लिया हो तो बात अलग है।

इस खेल में दो खिलाड़ियों का जिक्र मैंने अभी तक नहीं किया है। एक- शरद पवार और दूसरे- मुलायम सिंह यादव। श्री पवार के बारे में फिलहाल हम मान लें कि वे यूपीए में बने रहेंगे। उनकी बेटी के नेतृत्व में शायद राकांपा कांग्रेस में लौट भी आए! लेकिन 2014 के चुनावों में हमेशा की तरह उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों की बड़ी भूमिका होगी। बहुत से अध्येता यहां कांग्रेस का भविष्य धूमिल बता रहे हैं, लेकिन मेरा सोचना है कि 2009 की स्थिति से कोई बहुत यादा परिवर्तन यहां नहीं होगा। मुलायम सिंह निर्णायक भूमिका निभा पाएंगे, ऐसा विश्वास तुरंत नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर यह कोहराम जल्दी थमते नज़र  नहीं आता।
 
देशबंधु में 20 जून 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 12 June 2013

अडवानी या मोदी : फर्क क्या है?




यह बहुप्रचारित है कि भारतीय जनता पार्टी भारतीय संस्कृति की संरक्षक, संवाहक और संपोषक है। उसकी यह छवि पिछले पचास-साठ साल में बड़ी मेहनत से संघ के उन स्वयंसेवकों ने बनाई थी, जो नागपुर से निकलकर अथवा नागपुर से दीक्षा प्राप्त कर देश के दूरदराज के हिस्सों में जाकर संघ के उद्देश्यों के लिए काम करते हुए अपना पूरा जीवन खपा देते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आपको भले ही सांस्कृतिक संगठन मानता रहा हो, लेकिन यह उसे शुरु से पता था कि राजनीतिक सत्ता हासिल किए बिना भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का उसका सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। यदि संघ के गठन के तुरंत बाद उसने हिन्दू महासभा का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मंच के रूप में किया तो बाद में भारतीय जनसंघ का गठन भी इसी मकसद से हुआ। जनसंघ से जनता पार्टी से होते हुए भाजपा के विकास तक की यात्रा में संघ के स्वयंसेवकों एवं पूर्णकालिक प्रचारकों ने महती भूमिका निभाई, इसमें दो राय नहीं। आज उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी, वे ही जानते होंगे!

1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2009 के चुनावों तक संघ के इस राजनीतिक मंच ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं। एक राजनीतिक दल के रूप में जब कभी भी उसे सत्ता में आने का अवसर मिला, उसने एक तरफ तो संघ के एजेंडा को लागू करने के लिए जो भी प्रयत्न किए जाना चाहिए थे किए, लेकिन दूसरी तरफ सत्ता में बैठे उसके नेता उन आकर्षणों और प्रलोभनों से नहीं बच सके जो सत्ताधीशों को सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह भले ही कमल हो, लेकिन  दुर्भाग्य से उसके नेता और कार्यकर्ता सत्ता के कीचड़ से उठकर स्वयं कमल नहीं बन सके। कल-परसों टीवी की एक बहस में भाजपा के किसी प्रवक्ता ने बेहद हास्यास्पद तरीके से पहले तो लालकृष्ण अडवानी की तुलना महात्मा गांधी से की कि उनके घोषित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारम्मैया त्रिपुरी कांग्रेस (1939) में सुभाषचंद्र बोस से हार गए थे। इसके बाद उन्होंने अडवानीजी की तुलना ज्योति बसु से की जो पार्टी के आदेश को मानकर प्रधानमंत्री नहीं बन पाए।

जाहिर है कि इन दोनों तुलनाओं का कोई औचित्य नहीं था। महात्मा गांधी स्वयं  अपने लिए चुनाव नहीं लड़ रहे थे। उनका नेताजी से मतभेद सैध्दांतिक स्तर पर था। इसी तरह ज्योति बाबू ने पार्टी के आदेश के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था। दरअसल, पिछले पांच-सात दिन में भाजपा के भीतर जो उठापटक देखने मिल रही है, उसका पार्टी या संघ परिवार की नीति, सिध्दांत या परंपरा से कोई लेना-देना नहीं है। मोदी बनाम अडवानी की यह लड़ाई येन-केन-प्रकारेण प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो जाने की महत्वाकांक्षा से उपजी है। इस लड़ाई का हश्र क्या होगा, यह अनुमान तो भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता ही लगा सकते हैं, लेकिन एक आम नागरिक का जहां तक सवाल है उसकी नजर में न तो श्री मोदी की प्रतिष्ठा बढ़ी है और न श्री अडवानी की।

लालकृष्ण अडवानी आज याने अब तक भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक वरिष्ठ नेता हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की असाध्य बीमारी के चलते उन्हें यह अवसर मिला है। वे पार्टी के सर्वाधिक वयप्राप्त नेता भी हैं। वे अपनी इस वरीयता का लाभ उठाकर सहानुभूति व समर्थन जुटाना चाहते हैं किन्तु इसकी ओट में वे अपने अतीत को छिपा नहीं सकते। राजनीति के अध्येता जानते हैं कि श्री अडवानी एक महत्वाकांक्षी नेता हैं तथा पिछले पच्चीस वर्षों से वे प्रधानमंत्री बनने की फिराक में लगे हुए हैं। 1990 में उनकी रथयात्रा का मकसद आखिरकार क्या था? इसके उपरांत एनडीए सरकार बनने पर उन्होंने कोशिश कर अपने लिए उपप्रधानमंत्री का दर्जा हासिल किया ताकि वे खुद को सरदार पटेल के समकक्ष खड़ा कर सकें। वे महज केबिनेट मंत्री बनकर संतुष्ट नहीं थे। इसके बाद 2003 में वाजपेयीजी की अस्वस्थता को मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री बनने के लिए जोर लगाया। वह तो जब आमसभा में वाजपेयीजी ने ''न टायर न रिटायर'' का जुमला कसा तब अडवानीजी के तेवर ठंडे हुए। बात यहीं नहीं रुकी। उन्होंने 2004 में समय पूर्व चुनाव करवाने की पहल भी की, लेकिन पांसा फिर एक बार गलत पड़ा। 2005 में अडवानीजी पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर गए और पाकिस्तान के मरहूम संस्थापक को धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाण दे आए, शायद यही सोचकर कि अपने इस करतब से वे भारत के दक्षिण-उदारवादी तबके का समर्थन हासिल कर लेंगे, उसी तरह जैसा कि वाजपेयीजी को मिला था। अडवानीजी की राजनीतिक यात्रा के ये प्रसंग जिसे भी याद हैं, उसकी सहानुभूति उनके प्रति नहीं हो सकती।

भाजपा की इस ताजा अर्न्तकलह के दूसरे मुख्य पात्र हैं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। इस पद पर कार्य करते हुए पिछले बारह साल में उनकी जो उपलब्धियां रही हैं उन्हें देखते हुए ऐसा कोई भी व्यक्ति उन्हें अपना वोट नहीं दे सकता, जो जनतंत्र, समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी उसूलों में विश्वास रखता हो। अगर अटल बिहारी वाजपेयी की बात सुनी गई होती तो 2002 में ही नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री के पद से हट जाना चाहिए था। यह विडंबना है कि जिन अडवानी ने मोदी का बचाव किया था वे ही आज अपने आपको  ठगा महसूस कर रहे हैं। इस प्रसंग से यह जाहिर होता है कि श्री मोदी और श्री अडवानी दोनों राजधर्म की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। इसलिए इन पर से किसी पर भी विश्वास करना देश के संविधान के साथ धोखा करना है।

नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में गुजरात में 2002 का नरसंहार ही नहीं हुआ, उसके बाद का घटनाचक्र भी उनकी कोई  बेहतर छवि पेश नहीं करता। आज उन्होंने अडवानीजी को किनारे लगाया है, लेकिन इसके बहुत पहले वे गुजरात में भाजपा की नींव मजबूत करने वाले केशुभाई पटेल व सुरेश मेहता जैसे नेताओं को दरकिनार कर चुके हैं। याने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में वे व्यक्तिगत संबंधों की परवाह नहीं करते। अपने ही एक मंत्री हरेन पंडया की हत्या को लेकर उनकी भूमिका पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। दूसरी तरफ वे हत्या के आरोपी अमित शाह को पार्टी महासचिव बनवाते हैं और सरेआम बंदूक का डर दिखाने वाले विट्ठल रादडिया को भाजपा प्रवेश कर उन्हें लोकसभा का टिकट देते हैं। याने उन्हें इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है कि उनके साथी-सहयोगियों का चरित्र क्या है। नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रिय छवि बनाने के लिए निरंतर उपाय करते रहे हैं। इसके बावजूद सोहराबुद्दीन हत्याकांड, इशरत जहां हत्याकांड और एहसान जाफरी की हत्या जैसे दुखदायी प्रसंग भूत बनकर उनका पीछा कर रहे हैं। माया कोडनानी सहित उनके कुछ और कट्टर साथी जेल में सजाएं भुगत ही रहे हैं। ऐसे प्रकरणों पर पर्दा डालते हुए श्री मोदी अपने छवि निर्माण के लिए विराट सम्मेलन करते हैं, लेकिन वे उस क्षण बेनकाब हो जाते हैं जब वे मुसलमान फकीर द्वारा दी गई टोपी पहनने से खुले मंच पर इंकार कर देते हैं। दूसरे शब्दों में दीनदयाल उपाध्याय के जिस एकात्म मानवतावाद का मंत्र लेकर अटल बिहारी वाजपेयी आगे बढ़े थे उसके लिए नरेंद्र मोदी के विचार और कार्य में कोई जगह नहीं है।

दरअसल नरेंद्र मोदी की आज की जो विराट छवि जनता के सामने पेश की गई है वह एक छलावा है, मायाजाल है और उसे बुनने-बिछाने का काम कारपोरेट घरानों और उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया ने किया है। टाटा और अंबानी से लेकर छोटे-छोटे औद्योगिक घराने भी आज नरेंद्र मोदी पर उसी तरह न्यौछावर हो रहे हैं जिस तरह 1932-36 के दौरान जर्मनी के पूंजीपति हिटलर पर मुग्ध हो रहे थे। श्री मोदी के लिए तो कारपोरेट मीडिया भी पर्याप्त नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं वे पिछले छह साल से अमेरिका के एप्रो नामक उस पब्लिक रिलेशन फर्म की सेवाएं ले रहे हैं जिसमें रूस में येल्तसिन और यूक्रेन आदि अनेक देशों में कुछ और तानाशाहों ने अपनी सेवाएं दी थीं।

भाजपा और संघ दोनों इस सच्चाई से परिचित हैं। इसके बावजूद अगर वे कच्ची भावनाओं को उभाड़ने का खेल खेलना चाहते हैं तो हमें विश्वास है कि अगले चुनाव में देश की परिपक्व जनता उन्हें इसका माकूल जवाब देगी।

देशबंधु में 13 जून 2013 को प्रकाशित 

Tuesday 11 June 2013

वी.सी. शुक्ल








अदम्य जिजीविषा के धनी विद्याचरण शुक्ल लगातार अठारह दिन तक   मौत से संघर्ष करते हुए आज अंतत:  हार गए। 1957 में अपना पहला लोकसभा चुनाव जीतने वाले विद्याचरण शुक्ल ने अपने पचपन वर्ष के सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन इस बात की कल्पना शायद कोई नहीं करता था कि वे एक दिन बस्तर की एक पहाड़ी सड़क पर दुर्दान्त नक्सलियों की गोलियों का शिकार हो जाएंगे। श्री शुक्ल ने ताउम्र आक्रामक राजनीति की और मौत को भी उन्होंने बहुत आसानी से नहीं जीतने दिया। जीरम घाटी की खूनी सड़क पर शरीर में तीन गोलियां लगने के बावजूद 84 वर्षीय श्री शुक्ल कितने ही घंटों तक अकेले कार के दरवाजे से टिककर अपने को सम्भालते हुए सहायता का इंतजार करते रहे: स्थानीय टीवी पर जिन्होंने यह दृश्य देखा होगा, वे कभी उसे नहीं भूल पाएंगे।

वीसी शुक्ल को अपने अग्रजों की ही भांति राजनीति विरासत में मिली थी, लेकिन यह स्मरणीय है कि वे अपने पिता व मध्यप्रदेश की राजनीति के पुरोधा पंडित रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद ही चुनावी राजनीति में आए और इसके बाद उन्होंने अपना जो स्थान बनाया, तो वह सिर्फ अपने राजनीतिक कौशल से। आज छत्तीसगढ़, बल्कि अविभाजित मध्यप्रदेश उनकी मृत्यु से स्तब्ध है तो इसकी एक बड़ी वजह है कि उत्तर- नेहरू युग की राजनीति में मध्यप्रदेश की यदि कोई पहचान बनी तो वह मुख्यत: वीसी शुक्ल के कारण। एक समय वे इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र थे और उनके प्रशंसक मानते थे कि वे किसी दिन इंदिराजी के उत्तराधिकारी बनेंगे। अपनी महत्वाकांक्षा अथवा समर्थकों की शुभाकांक्षा अपनी जगह पर सही है, लेकिन कठोर वास्तविकता के धरातल पर ही उनका परीक्षण हो सकता है। श्री शुक्ल को छत्तीसगढ़ की जनता सामान्यत: विद्या भैया का प्यार भरा संबोधन देती थी। यह संबोधन उन्हें सेंत-मेंत ही हासिल नहीं हुआ था। 1957, 62 (निरस्त), 64 (उपचुनाव), 67,71, 80, 84, 89 और 91 में उन्होंने महासमुंद अथवा रायपुर से चुनाव जीतकर संसदीय राजनीति में एक लंबी पारी खेली। 1977, 1998 और 2004 में चुनाव हारे भी। वे कभी मंत्री रहे, कभी मंत्री पद से हटाए गए, कभी मंत्री नहीं भी बनाए गए- इस सबको उन्होंने चाहे-अनचाहे स्वीकार किया, लेकिन अपनी शर्तों पर राजनीति करने की जिद उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। वे चाहते तो रायपाल बन सकते थे या फिर रायसभा में जा सकते थे, लेकिन उन जैसे जुझारू व्यक्ति को यह कबूल नहीं था। 

वीसी शुक्ल के निधन से छत्तीसगढ़ ने अपने सबसे कद्दावर नेता को खो दिया है। देश भी अपने एक अति वरिष्ठ राजपुरुष से महरूम हो गया है। भारतीय राजनीति में उनका क्या योगदान रहा, छत्तीसगढ़ को उनकी सेवाओं का क्या लाभ मिला, एकाधिक बार कांग्रेस छोड़क़र दूसरी पार्टी यहां तक कि भाजपा में शामिल होने से उनकी राजनीति किस तरह प्रभावित हुई, आपातकाल में उनकी क्या भूमिका थी, ऐसे बहुत से बिन्दुओं पर आनेवाले समय में अध्ययन होगा। आज तो इस प्रदेश ने अपने एक बुजुर्ग को खो दिया है। इसका शोक प्रत्येक नागरिक को है। ''देशबन्धु'' वीसी शुक्ल को श्रध्दांजलि देते हुए श्रीमति सरला शुक्ल व उनके परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करता है।

देशबंधु में 12 जून 2013 को प्रकाशित 

Thursday 6 June 2013

अगर नक्सली चुनाव लड़ते!



जनसामान्य, खासकर मुखर वर्ग, में यह धारणा बलवती हो गई है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा और शांति के रास्ते में नक्सलवाद ही सबसे बड़ी बाधा है। एक तरफ कहा जा रहा है कि नक्सलवाद वह सबसे कड़ी चुनौती है, जिससे देश को जूझना है तो दूसरी ओर यह आशंका भी जतलाई जाती है कि तिरुपति से पशुपति तक कथित रूप से बन गया रेड कारीडोर कहीं पूरे देश को अपनी चपेट में न ले ले। इन दोनों धारणाओं में जो अतिशयोक्ति है उसे न भी मानें तब भी इसमें कोई शक नहीं कि समस्या विकट है। रेड कारीडोर की जहां तक बात है तो देख लिया जाय कि वस्तुस्थिति क्या है। पशुपति के वास याने नेपाल में माओवादी अब एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हो चुके हैं। तिरुपति याने आंध्र प्रदेश में माओवादियों का नहीं फिलहाल तो वाय.एस.आर. के वंश का ही सिक्का चल रहा है। उड़ीसा, झारखंड, महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ में उनका असर एक छोटे भूभाग तक ही सीमित है। 

बहरहाल, हम छत्तीसगढ़ क़ी बात करें। नब्बे  सदस्य वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में नक्सल वर्चस्व वाले बस्तर क्षेत्र की बारह सीटें हैं। अभी विधानसभा में भाजपा के पास 51 और कांग्रेस के पास 37 और बसपा के पास 2 सीटें हैं। इनमें से बस्तर की बारह (भाजपा की 11 कांग्रेस की 1) को निकाल दें तो विधानसभा का नक्शा इस तरह होगा कि भाजपा के पास 40 और कांग्रेस के पास 36 याने दोनों बड़े दलों के पास लगभग  बराबर सीटें होंगी। ऐसे में प्रदेश में सरकार किस पार्टी की बनेगी? जाहिर है कि जिस पार्टी को बस्तर का समर्थन मिलेगा वही सरकार बना पाएगी। यहां  संभावना बनती है कि यदि नक्सली बुलेट की बजाय बैलेट पर विश्वास करें तो ये बारह की बारह सीटें उनके खाते में आ  सकती हैं। इस स्थिति में वे किसी भी पार्टी को समर्थन देने से पहले अपना एजेंडा लागू करवाने की शर्त रख सकते हैं जिसे मानना सहयोगी बड़े दल की मजबूरी होगी। इस एजेंडे में वे सारे मुद्दे हो सकते हैं जिनके बारे में नक्सली बार-बार अपना सरोकार हिंसक उपायों से जाहिर करते रहते हैं।  इस तर्क को पंचायत चुनावों पर भी लागू किया जा सकता है।

इस सुझाव को कोरी कल्पना की उड़ान मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। विश्व के अनेक देशों के साथ-साथ स्वाधीन भारत के इतिहास में भी इसके दृष्टांत देखे जा सकते हैं। एक उदाहरण उत्तर-पूर्व के आदिवासी बहुल मिजोरम प्रदेश का है। राजनीतिक इतिहास के अध्येता जानते हैं कि हमारे उत्तर-पूर्व के प्रदेश सन् 1825-30  के आसपास उपनिवेशवादी काल में भारत में शामिल हुए थे। उसके पहले नगा, मिजो ये सब एक तरह से स्वतंत्र कबीलाई राय थे। 1947 में देश की आजादी की बेला में ये कबीले भारत संघ में बने रहने के बजाय वापिस अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम करने के इच्छुक थे। जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने भारत के विरुध्द लड़ाई छेड़ दी थी। लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब उन्हें समझ आया कि एक अंतहीन लड़ाई लड़ते रहने से कोई लाभ नहीं होगा।

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक बड़ा निर्णय तो यह ले ही लिया गया था कि असम को जनजातीय विशेषताओं के आधार पर विभाजित कर दिया जाए।  इस तरह अरुणांचल, नागालैण्ड, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय ये छह नए प्रांत अस्तित्व में आए। यह निर्णय पूरी तरह कारगर सिध्द नहीं हुआ तथा असंतुष्ट कबीलों की छापामार कार्रवाईयां चलती रहीं। यह एक पेचीदा विषय है जिसकी  बारीकियों में जाने का अवसर यहां नहीं है। जो तथ्य उल्लेखनीय है वह यह कि ललडेंगा के नेतृत्व में विद्रोह का झंडा उठाए मिजो जन केन्द्र सरकार से बातचीत के लिए राजी हुए। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दूतों के साथ उनकी बात चलती रही और  1986 में अंतत: वह दिन आया जब राजीव गांधी के साथे ललडेंगा ने ऐतिहासिक संधि पत्र पर हस्ताक्षर किए व मिजोरम में शांति का मार्ग प्रशस्त हुआ। आज 30 साल के भीतर मिजोरम देश के सबसे उन्नत प्रदेशों में से एक बन चुका है। मानव विकास के सूचकांकों पर वह बहुत ऊपर है। 

मिजोरम का यह उदाहरण है जो सिध्द करता है कि किसी भी समाज की प्रगति के लिए शांति और स्थिरता अनिवार्य तत्व हैं। नि:संदेह उत्तर-पूर्व भारत की स्थिति पूरी तरह से संतोषजनक नहीं कही जा सकती। वहां नगा विद्रोहियों के साथ अभी भी वार्ताएं चल रही हैं जो वृहत्तर नगालिम की मांग पर अड़े हुए हैं। इसका असर मणिपुर की राजनीति पर भी पड़ रहा है। असम में भी क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर हिंसक आंदोलन थमे नहीं हैं। इसके बावजूद कहा जा सकता है कि मिजोरम अपने पड़ोसी प्रदेशों के लिए एक बेहतर उदाहरण के तौर पर मौजूद है। हमारी बात  पूर्वोत्तर रायों तक सीमित नहीं है। एक दौर था जब तमिलनाडु में (तत्कालीन मद्र्रास प्रांत) द्रविड पृथकतावादी आंदोलन चला हुआ था। इस बात को भी यादा वक्त नहीं बीता है कि पंजाब में खालिस्तान की मांग हो रही थी। काश्मीर में भी पृथकतावादी तत्व अब भी मौजूद हैं और अपनी उपस्थिति का अहसास करवाते रहते हैं।

इन तमाम प्रांतों व छत्तीसगढ़ में दो-तीन फर्क हैं। काश्मीर, पंजाब और उत्तर-पूर्व ये सभी सीमावर्ती राय हैं और यहां के विद्रोहियों को सीमा पार से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मदद मिलते रही है। दूसरे, जम्मू-काश्मीर व पंजाब प्रांत आदिवासी बहुल नहीं है जबकि पूर्वोत्तर राय आदिवासी बहुल होने के बावजूद वहां शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की स्थितियां पहले से ही छत्तीसगढ़ के मुकाबले बेहतर रही हैं। इस तरह देखें तो छत्तीसगढ़ में बस्तर के आदिवासियों को अपना कोई आंदोलन चलाने के लिए बाहर से सहायता मिलने की कोई गुंजाइश नहीं है और दूसरे पूर्वोत्तर जैसी राजनीतिक चेतना न होने के कारण अन्याय का मुकाबला करने के लिए किसी हद तक उदासीन रहे हैं। कहा जा सकता है कि इन दोनों कमियों को आंध्र प्रदेश व अन्य  प्रान्तों  से आए नक्सल नेताओं ने पूरा किया है!

इस पृष्ठभूमि में कुछ अन्य सवाल उभरते हैं। राय के सशस्त्र बलों और नक्सली दस्ते के बीच मुठभेडाें का सिलसिला लगातार बना हुआ है। कितने ही नक्सली नेता मारे जा चुके हैं। यह भी हम जानते हैं कि जो हैं उनमें से अधिकतर किसी तरह के आदर्शवाद से प्रेरित नहीं हैं। इन मुठभेड़ों के बारे में सरकारी दावे पूरी तरह से पूरे सच न हाें तब भी यह दिखाई देता है कि महाराष्ट्र, आंध्र और सीमावर्ती क्षेत्र से नक्सली पहले के मुकाबले कमजोर हुए हैं। वे बस्तर के आदिवासियों के बीच राजनीतिक चेतना विकसित करने में सफल हुए हैं, ऐसा मानना गलत होगा। आदिवासियों के बीच शोषण से मुक्तिदाता की उनकी जो छवि थी वह भी खंडित हो चुकी है। दूसरे शब्दों में आदिवासी इस तस्वीर में सिर्फ प्रसंगवश हैं। असली लड़ाई तो सरकार और नक्सलियों के बीच हो रही है और इसमें नक्सली कभी जीत पाएंगे, ऐसा  मुमकिन नज् ार नहीं आता। इस लड़ाई से अंतत: किसे फायदा होगा, इसका जिक्र मैं कुछ समय पहले कर चुका हूं। उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। मैं इस लेख के प्रारंभ में उठाए गए बिंदु पर लौटता हूं कि यदि आज के नक्सली और उनसे बौध्दिक सहानुभूति रखने वाले बस्तर में जनतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के बारे में सोचें, वे भले ही अपनी ही पार्टी बना लें और बारह की बारह सीटें जीतें, इससे उन्हें आदिवासियों के अधिकार एवं सम्मान की रक्षा का एजेण्डा लागू करने के लिए जो अवसर मिलेगा, वह बंदूक की गोली से कभी नहीं मिल सकता।


देशबंधु में 06 जून 2013 को प्रकाशित