Thursday 11 August 2016

तेल के दाम और प्रवासी भारतीय




दो साल पहले तक विश्व बाजार में खनिज तेल की कीमत एक सौ पचास डालर प्रति बैरल के आसपास थी, वह कम होते-होते चालीस डालर के न्यूनतम स्तर पर आ गिरी है। जानकारों का कहना है कि कीमतें और घट सकती हैं। तेल की कीमतों में आई इस गिरावट के पीछे अनेक कारण गिनाए गए हैं। जैसे अमेरिका में नई विधि से धरती के बहुत नीचे जाकर तेल उत्खनन करना, आधुनिक टेक्नालॉजी के प्रयोग से उद्योगों में पहले की बनिस्बत तेल की कम खपत, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों यथा पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा का विकास और इन सबसे बढक़र तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक द्वारा अधिकाधिक तेल उत्खनन करना। यहां एक विरोधाभास दिखाई देता है। ओपेक देश अधिक तेल उत्खनन में जुटे हुए हैं जबकि विश्व बाजार में  उतनी आवश्यकता नहीं है। यह तस्वीर का एक पहलू है। हमारे लिए यह समझना अधिक आवश्यक है कि भारत के ऊपर इसका क्या असर पड़ रहा है।

विगत कई वर्षों से हम पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होते हुए देख रहे थे। यह सामान्य समझ है कि किसी भी वस्तु की कीमत जब एक बार बढ़ जाती है तब फिर उसके घटने की कोई उम्मीद नहीं रहती। फिर बात चाहे सोना-चांदी की हो या साग-भाजी की। सोना-चांदी में बीच-बीच में कुछ गिरावट होती है और देखते ही देखते भाव फिर बढ़ जाते हैं। अभी अरहर और अन्य दालों की कीमतों में वृद्धि हम देख ही रहे हैं। ऐसे में जब तेल की कीमतें कम हुईं तो मानो एक चमत्कार हो गया। आम जनता को लगने लगा कि अब पेट्रोल-डीजल के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के मूल्य भी कम हो जाएंगे। यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। इसका गणित स्पष्ट था। जब विश्व बाजार में तेल के भाव बढ़ रहे थे तब केन्द्र और राज्य उस पर लगाए टैक्स में यत्किंचित समायोजन कर उपभोक्ताओं का बोझ कम करने की कोशिश कर रहे थे।  उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने विमान ईंधन याने एविएशन फ्यूल पर वाणिज्यकर एकदम कम कर दिया था।

चूंकि पेट्रोल-डीजल पर उसकी कीमत के अनुपात में कराधान की व्यवस्था थी इसलिए जब भाव घटे तो उस पर लगे टैक्स से हो रहे राजस्व कम होने की आशंका बन गई। यही कारण था कि विपक्षी दलों और आम जनता द्वारा आलोचना तथा व्यंग्य प्रहारों के बावजूद केन्द्र सरकार खनिज तेल पर लगातार टैक्स की दर बढ़ाते गई है। इससे सरकार को मिलने वाले राजस्व में कोई कमी नहीं हुई साथ ही सस्ती दर पर तेल आयात करने से विगत दो वर्षों में अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में काफी मदद मिली। दूसरी ओर केन्द्र सरकार ने आम उपभोक्ताओं के लिए समय-समय पर तेल के भाव में आंशिक कटौती भी की ताकि जनता को भी थोड़ी राहत मिलती रहे और उसका गुस्सा बेकाबू न हो जाए। मेरी अपनी राय में चूंकि हम अपनी खपत का अस्सी प्रतिशत तेल आयात करते हैं तथा उसके लिए बहुमूल्य विदेशी मुद्रा में भुगतान करना होता है, ऐसी स्थिति में तेल पर कर लगाने में कोई गलती नहीं है।

भारत पर विश्व बाजार में तेल के भाव गिरने का एक और असर हुआ जो अब देखने मिल रहा है। मुझे आश्चर्य है कि हमारे नीति निर्माताओं ने इस बारे में समय रहते विचार क्यों नहीं किया! मैं बात कर रहा हूं सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों में फंसे हुए भारतीय नागरिकों की जिनमें से अधिकतर कारीगर और मजदूर हैं। अभी हमने खबरें पढ़ी कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इनकी तकलीफ की खबर पाते साथ किस तरह फौरी कार्रवाई की, कि कैसे विदेश राज्यमंत्री जनरल सिंह को सऊदी अरब भेजा गया कि वे वहां जाकर स्थिति संभालें, कि कैसे भारतीय दूतावास के माध्यम से इन भारतीयों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई आदि। इन खबरों में सुषमाजी की बेहद तारीफ की गई। इस मौके का उपयोग उनके छवि निर्माण के लिए भी भलीभांति किया गया।

यह तो अच्छी बात है कि परदेस में मुसीबत में पड़े भारतीयों को समय रहते सहायता पहुंचाई गई। यद्यपि कुछेक कूटनीतिज्ञों ने इस अवसर पर यह कहकर आलोचना की है कि अतीत में भी ऐसे मौके आए हैं और तब बिना हो-हल्ले के जो करणीय है वह किया गया था।  बहरहाल मेरा सवाल कुछ अलग है। जो तेल उत्पादक देश डेढ़ सौ डालर में तेल बेच रहे थे, उन्हें धीरे-धीरे कर चालीस डालर पर बेचने की नौबत आई तो इसका मतलब साफ है कि उनकी अपनी आय में तेजी के साथ गिरावट आ रही थी।  इसकी कुछ भरपाई उन्होंने अधिक तेल उत्पादन करके अवश्य की, लेकिन कुल मिलाकर तो बजट बिगड़ ही रहा था। ऐसी स्थिति आने पर उसका प्रतिकूल प्रभाव सबसे पहले प्रवासी आबादी पर पडऩा स्वाभाविक था।  खाड़ी देशों के संदर्भ में प्रवासी का मतलब मुख्य रूप से भारतीय होना है। क्या हमारे कूटनयिकों, अर्थशास्त्रियों और सरकार को इस बात का कोई इल्म नहीं था? अगर होता तो आग लगने के बाद बुझाने की बात नहीं होती!

हम लंबे अरसे से वाकिफ हैं कि खाड़ी देशों में जो भारतीय मजदूरी करने जाते हैं उनके साथ वहां अच्छा बर्ताव नहीं होता। उन्हें गेस्ट वर्कर कहा जाता है लेकिन वे लगभग बंधुआ मजदूर की स्थिति में वहां जीवनयापन करते हैं।  विदेश में पहुंचते साथ ही उनका पासपोर्ट आदि नियोक्ता कंपनी द्वारा जब्त कर लिए जाते हैं। याने अगर वे कभी ठेके की शर्त समाप्त होने के पहले लौटना चाहें तो नहीं लौट सकते। उनके साथ अगर कोई अत्याचार हो तो स्थानीय पुलिस या प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती। इसका बड़ा कारण यह भी है कि ये जिन कंपनियों में काम करने जाते हैं वे अधिकतर वहां के शाही परिवार के नाते-रिश्तेदारों एवं नजदीकी लोगों की होती है। यहां से ये मजदूर सुनहरे सपने लेकर जाते हैं। डालर में कमाई होने और उसके द्वारा घर की माली हालत सुधारने का मोह उन्हें वहां ले जाता है।  इसके चलते वे हजार तकलीफें बर्दाश्त कर काम करते रहते हैं।

भारत सरकार को मजदूरी करने विदेश गए इन मजबूर नागरिकों के साथ कोई प्रेम नहीं है। सच पूछिए तो देश के भीतर भी जो मजदूर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश काम की तलाश में जाते हैं उनकी ओर भी हमारी सरकारें कहां ध्यान देती हैं! यह एक विडंबना है कि समृद्ध देशों में जा बसे समृद्ध भारतवंशियों के प्रति हमारा प्रेम ऐसा उमड़ता है कि बस पूछिए मत। उनके लिए सुविधाओं और सम्मान में कोई कसर बाकी नहीं रह जाती, फिर भले ही वे भारत कभी न लौटना चाहते हों। लेकिन जो भारतीय विदेशों में जाकर खून-पसीना एक करते हैं उनके प्रति हमारी सरकार उस वक्त तक दुर्लक्ष्य करती है जब तक कि कोई बड़ी वारदात न हो जाए, जैसा कि अभी सऊदी अरब में हुआ।

सऊदी अरब व अन्य तेल उत्पादक देश क्या सोचकर तेल का उत्पादन लगातार बढ़ा रहे हैं, ये तो वही जानें, लेकिन इतना तय है कि इससे उनकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। सुदूर वेनेजुएला जो कि विश्व का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है वह बदहाल हो चुका है। पश्चिम एशिया के देश भी कमोबेश इसी स्थिति से गुजर रहे हैं। यद्यपि सबकी स्थितियों में थोड़ा-थोड़ा फर्क है। जैसे दुबई अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन चुका है, या कुवैत को लंबे समय से अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त है। सऊदी अरब एक तरफ अमेरिका की कठपुतली है, दूसरी ओर मक्का और मदीना के कारण मुसलमानों का तीर्थ होने के साथ-साथ वहाबी इस्लाम का पोषक है, और तीसरी ओर सामाजिक रूप से विश्व के सबसे पिछड़े और पोंगापंथी देशों में से है। यहां का शाही परिवार अपनी विलासिता के लिए लंबे समय से कुख्यात है और अमेरिका की मदद से आईएस को खड़ा करने में उसने हाल के समय में बहुत खतरनाक भूमिका निभाई है।

इस परिपे्रक्ष्य में और पुराने प्रसंगों के प्रकाश में वहां भारतीय मजदूरों के साथ जो कुछ हुआ वह अनपेक्षित नहीं था। भारत सरकार को इसका अनुमान पहले ही लगा लेना था। जब वहां कारखाने बंद हो रहे थे तभी अपने नागरिकों को वापिस लाने का काम उसे कर लेना चाहिए थे। अब हमारी सरकार का यह दायित्व भी बनता है कि वह सऊदी सरकार से अपने मजदूरों के बचे वेतन और छंटनी के विरुद्ध मुआवजे की मांग कर उन्हें राहत पहुंचाए।

देशबंधु में 11 अगस्त 2016 को प्रकाशित 

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