Wednesday 24 August 2016

संशयग्रस्त भारत और ओलंपिक


 डोपिंग के आरोप में प्रतिबंधित पहलवान नरसिंह यादव ने कहा कि उनका जीवन बर्बाद हो गया। उधर जिमनास्ट दीपा कर्माकर ने भारत लौटने के बाद रियो में अपने प्रदर्शन पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि यह उनका पहला ओलंपिक था, कि वे तो सातवें-आठवें स्थान पर आने की आस लगाए हुए थी और चौथे स्थान पर आने की स्वयं उन्होंने कल्पना नहीं की थी। किसी समय विश्व नंबर एक रह चुकी बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल पूरी तरह फिट न होने के बावजूद कोर्ट पर उतरीं तथा हार के बाद देश लौटते साथ उन्हें घुटने का ऑपरेशन तत्काल करवाने की आवश्यकता आन पड़ी। गोल्फ में अदिति अशोक ने साठ खिलाडिय़ों में सातवां स्थान प्राप्त कर फाइनल में प्रवेश कर लिया, किन्तु उस आखिरी बाजी में वे एकाएक फिसल कर चालीस से भी निचले स्थान पर आ गईं। ये कुछ तस्वीरें ओलंपिक-2016 में भारत के प्रदर्शन की हैं जिनको मैंने चलते-फिरते टीवी पर देख लिया। इनके बरक्स दो और चित्र हैं-साक्षी मलिक और पी.वी. सिंधु के।

ये तमाम तस्वीरें क्या कहती हैं? इस बार भारत ने अब तक का अपना सबसे बड़ा दल किसी ओलंपिक में भेजा था। 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत ने कुछ छह पदक जीते थे जो कि उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। उम्मीद जताई गई थी कि रियो में हम लंदन से बेहतर प्रदर्शन करेंगे। वर्तमान प्रधानमंत्री ने तीन साल पहले ही तो तत्कालीन सरकार का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि वह ओलंपिक जीतने वाले खिलाड़ी तैयार करने में नाकाम सिद्ध हुई है। इसके साथ उन्होंने अपनी तरफ से एक फार्मूला भी दिया था कि अगर वे प्रधानमंत्री बन गए तो खेल क्षेत्र में किस तरह के सुधार लाए जाएंगे जिससे ओलंपिक में भारत का माथा ऊंचा हो सकेगा। उनकी बातों पर विश्वास करने वाले इस समय बहुमत के साथ सत्ता में हैं। यह भी शायद एक वजह रही कि रियो को लेकर भारत एक अजीब से और अपूर्व  आत्मविश्वास में डूबा हुआ था। अब जाकर पता चल रहा है कि यह वास्तव में आत्मप्रवंचना थी।

हमारे देश में खेलों को लेकर निरंतर कुछ न कुछ बहस चलती रहती है। एक समय हम अफसोस के साथ आश्चर्य करते थे कि जो देश लगातार हॉकी में सिरमौर रहा और जिसे राष्ट्रीय खेल का दर्जा प्राप्त था उसके स्तर में इतनी गिरावट कैसे आ गई? उसमें जनता की रुचि एकदम से क्यों घट गई और हॉकी का स्थान क्रिकेट ने क्यों ले लिया? उन दिनों हॉकी में आई गिरावट के लिए बहुत से बहाने खोजे गए। मसलन हमारे खिलाड़ी नंगे पैर खेलने के आदी हैं, उन्हें एस्ट्रो टर्फ पर खेलने का अभ्यास नहीं है; यहां तक कहा गया कि भारतीय हॉकी को नीचा गिराने के लिए पश्चिम देशों ने भारत के विरुद्ध षडय़ंत्र रचा है। हमारा दूसरा प्रिय खेल फुटबॉल था। बंगाल की जनता तो फुटबॉल की दीवानी ही है। मोहन बागान, ईस्ट बंगाल व मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब जैसे फुटबॉल क्लबों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा चलती थी। फुटबॉल पर बंगला भाषा में उपन्यास भी लिखे गए, फिर भी इस खेल में आगे हम कभी नहीं बढ़ पाए।

ऐसी स्थितियों को देखते हुए ही किसी प्रमुख व्यक्ति (शायद प्रीतीश नंदी) ने टिप्पणी की है कि जब तक ओलंपिक में कबड्डी और क्रिकेट को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक भारत के पदक पाने की कोई खास उम्मीद नहीं है। आज की निराशाजनक स्थिति में यह वक्रोक्ति लोगों को पसंद आ सकती है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। भारत ने विभिन्न खेलों में विगत सत्तर वर्षों में चोटी के खिलाड़ी दिए हैं। उन्हें विश्वस्तर पर सम्मान मिला है। यह बात अलग है कि वे ओलंपिक खेलों में पदक न जीत पाए अथवा  वह खेल ही ओलंपिक के दायरे से बाहर रहा हो। बैडमिंटन में नंदू नाटेकर, प्रकाश पादुकोण व पुलेला गोपीचंद, टेनिस में रामनाथन कृष्णन, विजय अमृतराज व रमेश कृष्णन, बिलियर्ड में विल्सन जोन्स, माइकल फरेरा, गीत सेठी, पंकज अडवानी जैसे नाम हैं। एथेलेटिक्स में मिल्खा सिंह व पी.टी. उषा सर्वकालिक आदर्श की तरह उपस्थित हैं। शतरंज में विश्वनाथन आनंद भारत से पहले ग्रैंड मास्टर बने। उसके बाद से महिला व पुरुष दोनों वर्गों में कितने तो ग्रैंड मास्टर बन चुके हैं तथा इंटरनेशनल मास्टर की गिनती करना ही शायद मुश्किल हो।

इस सूची में हो सकता है कि मुझसे बहुत से नाम छूटे हों, लेकिन इनकी चर्चा करने का अभीष्ट यही है कि विश्व के खेल परिदृश्य में भारत प्रतिष्ठापूर्ण हैसियत हासिल न कर सके, ऐसा कोई अभिशाप देश पर नहीं है। यहां आकर यह सोचना होगा कि वे ऐसी कौन सी परिस्थितियां रहीं जिसमें हमारे खिलाडिय़ों ने अच्छा प्रदर्शन किया और वे क्या कारण थे जिनके चलते वे आशाओं पर खरे नहीं उतर सके। एक तरह से सिक्के के दोनों पहलुओं को देखने की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि देश में खेलों का जो व्यवसायीकरण हुआ है वही दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है। इस पर गौर कीजिए कि क्रिकेट की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि क्यों हुई? शायद इसका उत्तर यही है कि क्रिकेट में विज्ञापन और विपणन की जितनी संभावना है वह अन्य किसी खेल में नहीं है। आज जब क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो वह टेलीफोन या बिजली के खंभे की तरह नज़र आता है जिस पर दर्जनों पोस्टर चिपके रहते हैं। यह गुंजाइश किसी दूसरे खेल में कहां हैं?

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमें खिलाडिय़ों के साथ मैदान को भी विज्ञापनों से पाटा जा सकता है। अन्य खेलों में यह गुंजाइश कम इसलिए है क्योंकि उनमें अधिक गति होती है और सवा डेढ़ घंटे में खेल खत्म हो जाता है। बेशक फुटबॉल और टेनिस में सट्टेबाजी होती है, खासकर विदेशों में, लेेेेकिन क्रिकेट की सट्टेबाजी के सामने वह कुछ भी नहीं। इस व्यवसायिकता का दूसरा पहलू है कि कोई भी खिलाड़ी जिसने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर ली हो, उसे अपने कब्जे में लेने के लिए विज्ञापनदाता टूट पड़ते हैं। इसमें शायद युवा खिलाडिय़ों के माता-पिता के लालच का भी दोष होता है! एक खिलाड़ी को पर्याप्त आर्थिक प्रोत्साहन मिले यह तो ठीक है, लेकिन अगर वह विज्ञापन से मिलने वाले करोड़ों रुपए की चकाचौंध में खो जाएं तो फिर उसका एकाग्रचित्त होकर खेल पाना मुश्किल हो जाता है। हाल के वर्षों में कुछ नए खिलाडिय़ों ने जो बेहतरीन उपलब्धियां हासिल कीं उनकी चमक कम पड़ जाने का कारण शायद यही है।

एक बार-बार कही गई बात मुझे भी दोहराना चाहिए। हमारे खेल संगठनों पर अधिकतर राजनेता व अधिकारी कब्जा करके बैठे हैं। तर्क दिया जाता है कि यह उनका जनतांत्रिक अधिकार है। यह भी कहा जाता है कि उनके रहने से सुविधाएं हासिल हो जाती हैं। ये दोनों तर्क गलत हैं। राजनेता और अधिकारी दोनों के पास बहुत काम है। उनका प्रमुख काम न्यायसंगत नीति बनाना और उसे ईमानदारी से लागू करना है। अगर वे खेल संगठन में हैं तो उनसे अपने पद का दुरुपयोग करने की आशंका हमेशा बनी रहेगी। दूसरे प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? ये प्रभावशाली लोग खेल संगठनों का उपयोग निजी लाभ के लिए करते हैं। इन्हें खिलाडिय़ों से वास्तव में कोई लेना-देना नहीं होता।

सच तो यह है कि अपने देश में खेल संस्कृति का विकास ही नहीं हुआ है। मैं कोई चालीस बरस से अपने शहर रायपुर में देख रहा हूं कि खेल के मैदान एक-एक कर नष्ट कर दिए गए। कहने को तो जगह-जगह स्टेडियम बन गए हैं, लेकिन उनमें खेल कम और बाकी तमाशे ज्यादा होते हैं। स्टेडियम आदि बनाने में करोड़ों की राशि खर्च होती है उसका हिस्सा किस-किस को और कहां तक पहुंचता है यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। एक शोचनीय उदाहरण रायपुर का ही है। एक सौ पच्चीस साल पुराने गवर्मेंट हाईस्कूल का मैदान रायपुर नगर निगम ने स्टेडियम बनाने के लिए ले लिया। अंतिम परिणाम यह हुआ कि बच्चों से मैदान छिन गया, स्टेडियम में अधिकतर समय खेलेतर गतिविधियां होती रहीं, अब उसे भी तोडक़र नए सिरे से स्टेडियम बनाने की जद्दोजहद चल रही है। सीधी सी बात है, अगर  बचपन से सही वातावरण और सुविधाएं न मिलेंगी तो खेल की संस्कृति कैसे विकसित होगी? जो कुछ हो पा रहा है वह सिर्फ व्यक्तिगत लगन और ज़िद के कारण।

मेरा यह भी मानना है कि खेल हो या और भी बहुत सी बातें, हम हमेशा संशय में पड़े रहते हैं। शायद यह भारत का राष्ट्रीय चरित्र भी है कि हम क्षणिक उपलब्धियों पर जश्न मनाने लगते हैं और क्षणिक पराजय हमें निराशा के गर्त में ढकेल देती है। अगर हम इस क्षेत्र में सचमुच प्रगति करना चाहते हैं तो हमें खेल को खिलवाड़ समझने की मनोभावना का परित्याग करना होगा।

देशबंधु में 25 अगस्त 2016 को प्रकाशित 

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