Wednesday 7 September 2016

कश्मीर का जवाब बलोचिस्तान?


 

"भारत को अब आगे बढक़र बलोचिस्तान पर कब्जा कर लेना चाहिए। रूस ने वायदा किया है कि यदि भारत बलोचिस्तान पर आक्रमण करता है तो वह उसका साथ देगा। दोस्तों, इस बात पर पुतीन भाई के लिए एक लाइक और शेयर तो बनता ही है।’’

स्वाधीनता दिवस के कुछ ही दिनों बाद फेसबुक पर लगभग इसी इबारत में यह दिलचस्प पोस्ट मेरी नजर में आई। जाहिर है कि 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन से प्रेरित होकर यह टिप्पणी की गई थी। इसे देखते ही देखते बड़ी संख्या में फेसबुक सदस्यों ने लाइक या शेयर कर लिया। पहिले तो मुझे समझ नहीं आया कि पोस्ट पर हंसू  या रोऊं! हंसी की बात इसलिए कि यह टिप्पणी नादानीभरी बल्कि मूर्खतापूर्ण थी। लिखने वाला जान ही नहीं रहा था कि वह क्या कह रहा था। रोने की बात इसलिए कि उद्दाम भावना में बहकर हमारा देश किस दिशा में चला जा रहा है। क्या नरेन्द्र मोदी ने सोचा था कि 15 अगस्त के भाषण में वे जो कह रहे हैं उसका क्या असर देश-विदेश के जनमानस पर पड़ेगा? क्या वे सोच-समझकर भारतवासियों के ‘‘राष्ट्रप्रेम’’ को जगाने का उपक्रम कर रहे थे? क्या उन्हें अनुमान था कि राष्ट्रप्रेम फेसबुक पर इस तरह से व्यक्त होगा?

मैं यह अनुमान लगाने की भी कोशिश कर रहा हूं कि क्या संघ की शाखाओं में प्रधानमंत्री के भाषण पर चर्चा हुई होगी? क्या वहां स्वयंसेवकों को निर्देश दिया होगा कि वे अपने-अपने दायरे में इस भाषण का अनुमोदन करें? क्या संघ के अनुषंगी संगठनों में, खासकर सोशल मीडिया पर हस्तक्षेप करने वाले समूह में निर्णय हुआ होगा कि इस मुद्दे को हवा दी जाए? या फिर जो अपनी छाती पर राष्ट्रप्रेम व हिंदुत्व का बिल्ला लगाए  सोशल मीडिया पर जब देखो तब अपने विरोधियों को भद्दी-भद्दी गालियां देते रहते हैं, उन्हीं ने खुद होकर यह बीड़ा उठा लिया होगा कि पाकिस्तान को शिकस्त देने के लिए बलोचिस्तान पर कब्जा कर लिया जाए? उन्हें  मोदी जी की ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली स्टाइल शायद काफी पसंद आई होगी! यह भूलकर कि पाकिस्तान के मामले में हम दो साल पहिलेे जहां थे, वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं।

आभासी दुनिया में विचरण करने वाले हमारे फेसबुक बहादुरों को शायद जमीनी हकीकत की कोई फिक्र या परवाह नहीं होती। बहरहाल, जब उपरोक्त टिप्पणी मैंने पढ़ी तो एक लाइन में उस पर अपनी प्रतिक्रिया देना मुझे आवश्यक लगा। मैंने लिखा कि भई ! पहले नक्शे में देख तो लेते कि बलोचिस्तान कहां है। इस पर फिर कोई उत्तर मुझे नहीं मिला। लेकिन बात सिर्फ फेसबुक पर पोस्ट करने तक सीमित नहीं। देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो मानते हैं कि श्री मोदी ने बलोचिस्तान का मुद्दा उठाकर पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। वे यह मान बैठे हैं कि जिस तरह पाकिस्तान हमारे कश्मीर में लगातार उपद्रव करते रहता है, उसका जवाब यही है कि भारत प्रच्छन्न रूप से बलोचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान में  वहां के असंतुष्टों अथवा विद्रोहियों को अपना समर्थन देता रहे। वे सोचते हैं कि इससे शक्ति संतुलन स्थापित होगा तथा पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लग जाएगी।  ऐसा सोचनेे वाले न इतिहास जानते हैं, न भूगोल, और न राजनीति।

अव्वल तो यह समझ लेना चाहिए कि बलूचिस्तान भारत की सीमा से बहुत दूर है। इसी तरह गिलगिट-बाल्टिस्तान में भी भारत के सीधे प्रवेश का कोई रास्ता नहीं है। आज यदि भारत पाकिस्तान के इन प्रदेशों में किसी भी तरह की कार्रवाई की बात सोचे तो यह व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। एक समय था जब हमने बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को अपना समर्थन दिया था, लेकिन तब भौगोलिक स्थिति पाकिस्तान नहीं, वरन बंगलादेश के पक्ष में थी। जिस दिन भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के लिए हवाई गलियारा  बंद कर दिया उस दिन पाकिस्तान के सामने एक बड़ी अड़चन पैदा हो गई कि इस्लामाबाद से ढाका कैसे पहुंचा जाए। यह तो हुआ भौगोलिक पक्ष। इतिहास क्या कहता है वह भी देख लेना चाहिए। बलोचिस्तान अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित इलाका था जिसमें चार रियासतें थीं। 1948 में अंग्रेजों की मध्यस्थता से वहां के नवाबों ने पाकिस्तान में विलय स्वीकार किया था। इसके साथ कुछ शर्तें रखी गई थीं।

दूसरे शब्दों में बलोचिस्तान उसी तरह से पाकिस्तान का एक प्रांत है जैसे सिंध, पंजाब या खैबर-पख्तूनवां। आज अगर हम बलोचिस्तान में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करते हैं तो यह पाकिस्तान की सार्वभौम सत्ता को चुनौती देने की बात होती है। वह भी ऐसी चुनौती जिसमें आप जीत नहीं सकते। यह तर्क अपनी जगह पर सही है कि पाकिस्तान कश्मीर में दखलंदाजी करता है, लेकिन यह स्मरण कर लेना होगा कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें वहां की सेना के हाथ में खेल रही कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। मोदी जी ने पाक अधिकृत कश्मीर का भी उल्लेख अपने भाषण में किया, लेकिन वहां भी इतिहास भारत के पक्ष में नहीं है, और न ही गिलगिट-बाल्टिस्तान में। ये दोनों प्रदेश कश्मीर का हिस्सा अवश्य थे, लेकिन कश्मीर के साथ उनकी भावनात्मक एकता नहीं थी। इन इलाकों में न तो महाराजा का प्रभाव था और न शेख अब्दुल्ला का। मैंने अपने 28 जुलाई 2016 के लेख में इस बारे में कुछ विस्तार से वर्णन किया है।

इतिहास के कुछ और सबक ध्यान में रखना उचित होगा। पूर्वी पाकिस्तान याने बंगलादेश मुख्यत: भाषा के प्रश्न पर अलग होना चाहता था और वह हो गया। पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बंगलादेश की जनभावनाओं को न सिर्फ समझने से इंकार किया बल्कि इसका तिरस्कार किया। दूसरी ओर सिक्किम की जनता भारत के साथ मिलना चाहती थी और उसकी यह इच्छा पूरी हुई। किन्तु श्रीलंका में तमिलों का अलग देश बनाने की मांग को भारत ने अपना समर्थन नहीं दिया। हमने वहां विकेन्द्रीकरण और बराबरी का व्यवहार करने तक अपना समर्थन सीमित रखा। नेपाल में भी तराई की नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार न हो इसमें हमारी रुचि है; लेकिन तराई का इलाका नेपाल का अभिन्न अंग है, यह भी हम मानते हैं। हमारे सीमावर्ती प्रांतों में भी जन असंतोष को उग्र रूप लेते हमने देखा है, किन्तु इस कारण वे पृथक देश बन जाएं ऐसा हम स्वप्न में भी नहीं सोचते।

इस दृष्टि से पाकिस्तान के प्रदेशों में अगर कहीं असंतोष है तो इसमें हमारे खुश होने का कोई बड़ा कारण नहीं है। यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है तथा विश्व बिरादरी का एक जिम्मेदार देश होने के साथ-साथ तीसरी दुनिया का नेता होने के कारण यह अपेक्षा हमसे होती है कि हम एक पड़ोसी मुल्क के अंदरूनी मामलों में दखल न दें। प्र्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में बलोचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर व गिलगिट-बाल्टिस्तान के कथित नेताओं से प्राप्त संदेशों का जिक्र किया है। बाद में हमने ये खबरें भी पढ़ीं कि विदेशों में जहां-तहां पाकिस्तान के विरुद्ध सार्वजनिक प्रदर्शन हो रहे हैं। इनका संज्ञान लेकर हम अपने को मूर्ख सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि ऐसे छुटपुट आंदोलन कश्मीरी व खालिस्तानी अलगाववादियों द्वारा भारत के खिलाफ भी लंदन, वाशिंगटन आदि में किए जाते हैं। मैंने स्वयं मुठ्ठीभर लोगों द्वारा किए गए इन प्रदर्शनों को देखा है।

भारत के लिए यह बेहतर होगा कि हम अपने कश्मीर के बारे में कुछ अधिक गंभीरता के साथ विचार करें। अगर घाटी में पचास-पचास दिन तक कफ्र्यू लगा रहे तो इसे अपनी विफलता माननी चाहिए। अभी हमारा सर्वदलीय शिष्ट मंडल श्रीनगर गया था। शरद यादव आदि ने अलगाववादी नेताओं से संवाद करना चाहा तो उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। मेरा सोचना है कि इन अलगाववादी नेताओं का सिक्का घिस चुका है। हमें अगर बात करना है तो युवाओं से करना होगी। उनका विश्वास फिर से जीतना होगा। शेष भारत में उनके साथ बेहतर सलूक हो और संदेह की दृष्टि से न देखा जाए इसके लिए वातावरण बनाना होगा। मेरे विचार में कश्मीर का युवा भी जानता है कि उसका भविष्य भारत में सुरक्षित है। उसका यह विश्वास झूठा सिद्ध न हो इसके लिए प्रयास करना होगा।

अंत में, आकाशवाणी या ऑल इंडिया रेडियो का यह प्रहसन कि एआईआर से बलोची भाषा में प्रसारण किया जाएगा। तथ्य यह है कि 1973-74 से बलोची भाषा में प्रसारण हो रहा है। 2003 के बाद से बलोचिस्तान से भारत आए तीन भाई-बहन ही यह कार्यक्रम दे रहे हैं। इसके बाद प्रसारण प्रारंभ होगा की बात न जाने कैसे उठ गई। अरे भाई! हर चीज का श्रेय लेने की कोशिश मत कीजिए। जो पहले अच्छा हुआ है उसको मन मारकर ही सही स्वीकार तो कर लीजिए।

देशबंधु में 08 सितंबर 2016 को प्रकाशित 

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