Wednesday 30 March 2016

उच्च शिक्षा : कुछ सवाल





खबर है कि भारत सरकार विदेशियों के लिए भारत को एक शिक्षा गंतव्य के रूप में विकसित करना चाहती है। दूसरे शब्दों में सरकार की मंशा है कि दूसरे देशों से बड़ी संख्या में छात्र आकर हमारे विश्वविद्यालयों में पढ़ें। अभी हर साल अमूमन तीस हजार विदेशी छात्र भारत में पढऩे के लिए आते हैं। इसमें अधिकतर तीसरी दुनिया के देशों के होते हैं। उन्हें यहां के वातावरण में जो असुविधाएं होती हैं उन्हें कैसे दूर किया जाए तथा इन छात्रों के लिए भारत कैसे एक आकर्षक गंतव्य बन सके इस पर विचार चल रहा है। इसके साथ दूसरी खबर है कि केन्द्र सरकार स्वायत्तशासी शिक्षण संस्थानों पर लगाम कसने की तैयारी कर रही है। मोदी सरकार की सोच है कि उच्च शिक्षा के ये संस्थान अपने लक्ष्य से भटक गए हैं। सरकार का यह भी ख्याल है कि आर्थिक अनुदान में कटौती कर उन्हें रास्ते पर लाया जा सकता है। इस हेतु वरिष्ठ नौकरशाहों की सदस्यता वाली दो समितियां बना दी गई हैं, जिनकी सिफारिश आने के बाद इस संबंध में कोई अंतिम फैसला हो पाएगा।

दोनों खबरों में स्पष्ट अंतर्विरोध दिखाई देता है। यदि किसी विश्वविद्यालय अथवा उच्च शिक्षा के अन्य संस्थान में पर्याप्त स्वायत्तता नहीं है तो वह स्थान युवाओं के लिए आदर्श और आकर्षक कैसे हो सकता है? ऐसे संस्थान में दोहरी व्यवस्था तो होगी नहीं कि भारतीय विद्यार्थियों को निगरानी में रखा जाए, उनकी स्वायत्तता में कटौती हो और दूसरी ओर विदेशी विद्यार्थियों को उनके मनमाफिक आदर्श वातावरण मिल सके! आखिरकार परिसर एक ही होगा, शिक्षक भी वही होंगे तथा प्रशासनिक व्यवस्था भी अलग नहीं होगी। कोई भी विदेशी विद्यार्थी भारत में पढऩे के लिए अगर आएगा, तो उसका पहला कारण होगा- किफायती शिक्षण शुल्क और किफायत से जीवन निर्वाह। किन्तु इसके अलावा उसकी आंखों में उदार वातावरण का सपना होगा कि इंग्लैण्ड, अमेरिका नहीं जा सके तो भारत में चल कर पढ़ाई कर लो। जहां शैक्षणिक परिसर में घुटन की आशंका हो, तो वह शायद वहां नहीं जाना चाहेगा।

दरअसल भारत में उच्च शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इसे लेकर हम अभी तक कोई साफ समझ विकसित नहीं कर पाए हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में जो संस्थान स्थापित किए गए थे वे अपने समय में मॉडल माने जाते थे तथा विदेशों के संस्थानों से उनकी तुलना की जा सकती थी। उनके निधन के पांच साल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की स्थापना हुई। उसमें हार्वर्ड, कैम्ब्रिज अथवा ऑक्सफोर्ड जैसा वातावरण एवं परंपराएं देने की काफी हद तक सफल कोशिश की गई, लेकिन आज तो उस पर भी खतरा मंडरा रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में आधुनिक शिक्षा के उच्च संस्थानों की स्थापना पहले पहल अंग्रेजों के कार्यकाल में हुई थी जब 1857 में एक साथ कलकत्ता, बंबई और मद्रास में वि.वि. खोले गए। इन्हें ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर ही स्थापित किया गया था। गो कि कालांतर में इनकी आभा कम होते गई।

हमारे नीति निर्माताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तभी संभव है जब स्वायत्तता के अलावा समाज में शिक्षक का यथेष्ट सम्मान हो, फिर बात चाहे प्राथमिक शिक्षा की हो या उच्च शिक्षा की। दुर्भाग्य से न तो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि और न ही नौकरशाह इस बुनियादी तथ्य को समझने के लिए तैयार हैं। आप 5 सितंबर को शिक्षक दिवस चाहे जितने बड़े पैमाने पर मना लें, यह सोचकर देखिए कि डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन के बाद क्या हमने किसी शिक्षक को राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर बैठाया? यह जवाहर लाल नेहरू ही कर सकते थे कि 1962 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति इन दोनों पदों पर क्रमश: दो शिक्षक ही आसीन किए गए। हमारे सत्ताधीश जब तक इस बात के महत्व को नहीं समझ लेते और जब तक समाज सत्ताधीशों पर इसके लिए दबाव नहीं डालता तब तक हमें शिक्षा में गुणवत्ता को भूल जाना ही बेहतर होगा।

पिछले दिनों जेएनयू, हैदराबाद, इलाहाबाद, आईआईटी मुंबई, जादवपुर, मद्रास समाजशास्त्र संस्थान इत्यादि में जो हुआ उसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हमें एक नज़र विराट शैक्षणिक परिदृश्य पर डाल लेना चाहिए। आज विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की क्या हैसियत है? कितने ही प्रदेशों से सुनने में आता है कि पदेन कुलाधिपति याने राज्यपाल ने कुलपति नियुक्त करने के लिए कहीं तीस लाख तो कहीं चालीस लाख रुपए की रिश्वत ले ली। ये घटनाएं झूठी नहीं हैं। कुछेक राज्यपालों को इन आरोपों के कारण हटाए जाने के प्रसंग भी सामने आए हैं। जब व्यक्ति कुलपति बनने के लिए रिश्वत देगा तो स्वाभाविक है कि पद स्थापना के बाद सबसे पहले तो वह अपने घाटे की भरपाई करने पर ध्यान देगा। ऐसे में विश्वविद्यालय को न तो अच्छे शिक्षक मिलेंगे, न अच्छा भवन, न अच्छा पुस्तकालय और छात्रों की पढ़ाई जितनी होगी वह भगवान भरोसे।

कुलपतियों की नियुक्ति में राजनैतिक हस्तक्षेप भी बहुत होता है। इसमें जातीयता व स्थानीयता के दबाव भी अपनी भूमिका निभाते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति कुछ बेहतर है, किन्तु प्रदेश सरकार के अंतर्गत विश्वविद्यालयों में इन दबावों को स्पष्ट देखा जा सकता है। लब्बो-लुआब यह कि सत्ताधीशों को विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नागवार गुजरती है और उसका अतिक्रमण करने का कोई भी अवसर वे नहीं चूकते। जो कुलपति और अध्यापक भांति-भांति की हिकमतें कर पद प्राप्त करते हैं, वे अपने संरक्षकों की सेवा करने का भी कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते। ऐसा शायद ही कोई कुलपति हो जो अभिमानपूर्वक कह सके कि यह मेरा विश्वविद्यालय है और मैं इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करूंगा। जब यह हकीकत हमारे सामने हो तब विश्वस्तरीय शिक्षा देने की बात एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं हो सकती।

वह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि आज हमारे विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के पूर्णकालिक शिक्षकों को जो वेतन-भत्ते मिल रहे हैं उसकी कल्पना आज से सात-आठ साल पहले नहीं की जा सकती थी। जब छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुर्ईं तब विवि अनुदान आयोग याने यूजीसी ने विश्वविद्यालयों के लिए एक बेहतरीन वेतन ढांचा तैयार किया। आज विश्वविद्यालय के कुलपति को प्रदेश के चीफ सेक्रेटरी या भारत सरकार के सचिव के बराबर वेतन मिलता है तथा कॉलेज में नवनियुक्त सहायक प्राध्यापक का वेतन कलेक्टर से अधिक होता है। उम्मीद की गई थी कि आर्थिक रूप से निश्चिंत होकर प्राध्यापक स्वयं अपने ज्ञान को विकसित करने तथा विद्यार्थियों को उसका लाभ देने के लिए दिलोजान से काम करेंगे। अफसोस कि यह उम्मीद फलीभूत नहीं हो सकी। अधिकतर शिक्षकों की मानसिकता में कोई खास परिवर्तन देखने में नहीं आता। वे जो है उससे संतुष्ट न होकर अन्य उपायों से धनोपार्जन करने तथा सुख-सुविधाएं जुटाने में ही अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।

हमें लगता है कि उच्च शिक्षा के वर्तमान ढांचे पर समाज के भीतर व्यापक बहस होना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों को सही अर्थों में स्वायत्तता मिले, यह हमारा सोचना है; लेकिन इस विषय में रुचि रखने वाले लोग यह भी सोचें कि अगर विद्यार्थियों को तरुणोचित विकास का वातावरण न मिले, तो क्या उनकी प्रतिभा कुंठित नहीं होगी? दूसरे यह भी विचारणीय है कि शिक्षा हमारी एक अनिवार्य जिम्मेदारी है या नहीं? क्या हम उसे किसी बिक्री योग्य माल में बदल दें कि अभी बेचा और अभी पैसा कमा लिया या फिर मजबूती से यह कहें कि शिक्षा हासिल करना युवा पीढ़ी का अधिकार है तथा इसके लिए जो भी खर्च हो वह उचित है, इस पर सवाल खड़े करना ठीक नहीं है। फिर हमें अपने नौैकरशाहों से भी पूछना चाहिए कि आप किस बिना पर वाइस चांसलर, प्रिंसिपल या प्रोफेसर को अपने से छोटा समझते हैं।

समाज व्यवस्था में सबके काम बंटे हुए हैं। इसमें वेतन अथवा पदनाम के आधार पर कोई भेदभाव क्यों? जिलाधीश या सचिव का काम अपनी जगह है तो कुलपति और अध्यापक का अपना स्थान है। दोनों के बीच परस्पर सम्मान का रिश्ता होगा तभी बात बनेगी। यही बात समाज को राजनेताओं से भी पूछना चाहिए कि आप क्यों उम्मीद करते हैं कि कुलपति आपके पैर छुए या आपकी सार्वजनिक झिड़कियां सुने या रात बारह बजे आपके बंगले पर मत्था टेकने आए। अंत में इसी तरह हमें अपने शिक्षकों से भी यह पूछना होगा कि आप अपने आपको इतना दीन-दरिद्र क्यों मानते हैं? आप क्यों नहीं अपने आत्मसम्मान और अपने पेशे की रक्षा करना सीखते? जिस दिन ये प्रश्न उठेंगे उस दिन से उच्च शिक्षा में वांछित सुधार देखने मिलने लगेगें।

देशबन्धु में 31 मार्च 2016 को प्रकाशित 

Thursday 24 March 2016

अगला राष्ट्रपति कौन होगा?



भारत में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव अगले साल होंगे। भारतीय जनता पार्टी या यूं कहें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मनोनीत व्यक्ति ही इन दोनों पदों पर चुने जाएंगे। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश फिलहाल नर नहीं आती। सवाल यह है कि भाजपा राष्ट्रपति पद के लिए अपने प्रत्याशी का चयन किस आधार पर करेगी। क्या वह कोई वरिष्ठ राजनीतिज्ञ होगा अथवा कोई अकादमिक, क्या वह सैन्यतंत्र अथवा प्रतिरक्षा मामलों का जानकार होगा या कोई सेवानिवृत्त  न्यायमूर्ति या नौकरशाह? भाजपा जिस किसी को भी चाहेगी क्या उसके लिए सरसंघचालक मोहन भागवत के आशीर्वाद की आवश्यकता होगी? यूं तो इस चुनाव के लिए एक साल से अधिक का समय बाकी है, लेकिन राज्यसभा में अपनी सीटें बढ़ाने के उद्देश्य से भाजपा जिस तरह ताबड़तोड़ दल-बदल को प्रश्रय दे रही है, उससे यह आशंका भी बनती है कि देश के दो सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए यह रणनीति उस समय भी अपनाई जाएगी।

एनडीए-1 याने वाजपेयी जी के कार्यकाल में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को सत्तापक्ष ने अपना प्रत्याशी बनाकर विजय प्राप्त की थी। उसमें कांग्रेस ने भी साथ दिया था। डॉ. कलाम देश के सैन्यतंत्र से गहराई से जुड़े हुए थे। उनकी पहचान मिसाइलमैन के रूप में बन चुकी थी। भारत के पहले खुले आणविक परीक्षण का नायक उन्हें ही माना गया था। इसके अलावा वे भारतरत्न से भी विभूषित हो चुके थे। आज सैन्यतंत्र अथवा प्रतिरक्षा प्रतिष्ठान में उनकी बराबरी का कोई दूसरा व्यक्ति नहीं दिखाई देता। इसलिए यह संभावना कम ही है कि किसी सेनाधिकारी या प्रतिरक्षा विशेषज्ञ को एनडीए-2 मनोनीत करे। प्रसंगवश यह जान लेना दिलचस्प होगा कि डॉ. कलाम के विरुद्ध चुनाव लड़ रही वामदलों की प्रत्याशी कैप्टन लक्ष्मी सहगल की पृष्ठभूमि भी सेना की थी। वे आज़ाद हिन्द फौज की प्रख्यात कैप्टन लक्ष्मी थीं और रानी झांसी बिग्रेड का उन्होंने नेतृत्व किया था। डॉ. कलाम की भांति वे भी मूलत: तमिलभाषी थीं। उन्हें पद्मविभूषण से भी अलंकृत किया जा चुका था। मालूम नहीं कांग्रेस ने क्या सोचकर उनका समर्थन नहीं किया। यद्यपि इससे परिणामों पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

जहां तक अकादमिक क्षेत्र से प्रत्याशी लेने की बात है तो भाजपा के पास ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता जिसकी अकादमिक क्षेत्र में अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा हो। अर्थशास्त्री जगदीश भगवती का नाम ध्यान आता है, लेकिन क्या राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों गुजरात से हो सकेंगे? हमें यह भी नहीं पता कि प्रोफेसर भगवती भारत के नागरिक हैं या अमेरिका के? वैसे किसी अकादमिक को राष्ट्रपति बनाने की परंपरा डॉ. जाकिर हुसैन के बाद से समाप्त हो चुकी है। बाद के राष्ट्रपतियों में कुछ की विद्वता पर संदेह नहीं, लेकिन अकादमिक वातावरण से उन्होंने बहुत पहले अवकाश ले लिया था। जहां तक किसी न्यायाधीश को नियुक्त करने की बात है तो जस्टिस गोपाल स्वरूप पाठक और जस्टिस एन. हिदायतुल्ला कांग्रेस के दौर में उपराष्ट्रपति तो बने, राष्ट्रपति बनने का अवसर उन्हें भी नहीं दिया गया। जनसंघ ने अवश्य जस्टिस कोका सुब्बाराव को 1967 में राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा किया था लेकिन वे चुनाव हार गए थे।

शासनतंत्र अथवा नौकरशाही से राष्ट्रपति बनने का एकमात्र उदाहरण के.आर. नारायणन का है, जो भारतीय विदेश सेवा से निवृत्त होने के बाद पूर्णकालिक राजनीति में आ चुके थे। कुल मिलाकर यह एक मिला-जुला मामला था। वैसे फिलहाल हमारे उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी सेवानिवृत्त नौकरशाह ही हैं। सेवानिवृत्त अधिकारियों की पदलालसा किसी से छुपी हुई नहीं है। वे कई बार नियमों में अपने मनमाफिक संशोधन भी करवा लेते हैं। मैंने कुछ साल पहले इसी संदर्भ में सुझाव दिया था कि कैबिनेट सेक्रेटरी और चीफ सेक्रेटरी को क्रमश: प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहना चाहिए।  इस दृष्टि से देखें तो भाजपा में दोनों पदों के लिए बहुत सारे उम्मीदवार हो सकते हैं। यह अब किसी से छिपा नहीं है कि यूपीए शासनकाल में भी अनेक अधिकारी भाजपा अथवा संघ के प्रति निष्ठा रखते थे। समय आने पर इन्हें अपनी सेना का पुरस्कार मिला। अब सवाल यही है कि क्या कोई ऐसा वरिष्ठ नौकरशाह है, जिसे भाजपा राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित करें और जनमानस में उसका गलत संदेश न जाए। क्या पूर्व सीएजी विनोद राय ऐसे व्यक्ति हैं? यद्यपि मुझे शक है कि मोदी जी किसी रिटायर्ड अफसर को राष्ट्रपति बनाना पसंद करेंगे।

कुल मिलाकर बात आ टिकती है राजनीति के ऊपर। यहां भी प्रत्याशियों की कोई कमी नहीं है। पचहत्तर से ऊपर वालों को छोड़ दीजिए, उनके अलावा भी काफी लोग हैं। कुछ नाम ध्यान में आते हैं जैसे राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज व सुमित्रा महाजन। वयोवृद्ध नेताओं में अपवाद स्वरूप एक नाम नजमा हेपतुल्ला का भी हो सकता है। इनमें से राजनाथ सिंह वरिष्ठता के नाते दावेदार तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी संभावना कम ही दिखती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वैदेशिक मामलों में उनका दखल बहुत सीमित है। राष्ट्रपति का पद संवैधानिक तो है, लेकिन उससे अधिक वह एक अलंकारिक पद है तथा विदेश नीति के मोर्चे पर इस महिमामंडित पद का उपयोग अकसर किया जाता है। राजनाथजी संभवत: इस भूमिका में फिट नहीं बैठ पाएंगे।

सुमित्रा महाजन के पक्ष में चार बिन्दु हैं- एक तो वे छह बार की अनुभवी लोकसभा सदस्य हैं, दूसरे- वर्तमान में लोकसभा अध्यक्ष के पद पर हैं, तीसरे- अध्यक्ष के नाते निर्णय लेते हुए सरकार के प्रति उनकी पक्षधरता जब-तब प्रकट हो जाती है, चौथे वे संघ की समर्पित कार्यकर्ता हैं। उन्हें यदि उम्मीदवार बनाया गया तो एनडीए में शायद ही कहीं उनका विरोध होगा। लेकिन राष्ट्रपति को अनेक बार जटिल संवैधानिक प्रश्नों का समाधान करना होता है। वे इस दिशा में कितनी सक्षम हैं यह पता नहीं है। नजमा हेपतुल्ला अगले वर्ष ससत्तर साल की हो जाएंगी।  लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए यह उमर अधिक नहीं है। वे राज्यसभा   की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं, अल्पसंख्यक हैं, मौलाना आज़ाद के परिवार से संबंध रखती हैं, संसदवेत्ता हैं- ये सारी बातें उनके पक्ष में जाती हैं। उन्हें प्रत्याशी बनाकर श्री मोदी अपने धर्मनिरपेक्ष होने का सबूत भी दे सकेंगे।

सुषमा स्वराज का नाम मेरी लिस्ट में सबसे ऊपर है। वे 1977 में पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा सदस्य बनी थीं याने वे राजनीतिक जीवन के चालीस वर्ष पूर्ण कर चुकी होंगी। वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल में पहले और अब भी अपनी कार्यक्षमता सिद्ध कर चुकी हैं। हिन्दी, संस्कृत और अंगे्रजी में वे समान अधिकार से बात कर सकती हैं। विदेश मंत्री के रूप में उनका अब तक का काम संतोषजनक ही माना जाएगा। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि संघ की है और पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा अविचल है। अपने संसदीय जीवन में उन्होंने विपक्षी दलों से भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा है और उनकी सद्भावना अर्जित की है। उन्होंने सोनिया गांधी के बारे में जो कहा था, वह अब शायद पुरानी बात हो चुकी है।  रेड्डी बन्धुओं अथवा ललित मोदी से निकटता आज की राजनीतिक वातावरण में क्षम्य ही मानी जाएगी!

अब बात आती है उपराष्ट्रपति की। यह चर्चा राजनीतिक हल्कों में चल रही है कि दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग भाजपा की ओर से इस पद के दावेदार हो सकते हैं। अगर सुषमा स्वराज राष्ट्रपति और नजीब जंग उपराष्ट्रपति बने तो एक तरह से 2007 की पुनरावृत्ति होगी जब प्रतिभा देवीसिंह पाटिल और हामिद अंसारी क्रमश: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बने थे। यदि राष्ट्रपति पद के लिए नजमा हेपतुल्ला का मनोनयन हुआ तो उपराष्ट्रपति के लिए फिर शायद किसी वरिष्ठ भाजपा नेता को अवसर दे दिया जाए। जो कुछ भी हो अभी तो ये सब कयास है। होली के अवसर पर अगर कोई गंभीर बात लिखी जाए तो उसे पढ़ेगा कौन? इसलिए बैठे ठाले जो मन में आया वह लिख दिया।

देशबन्धु में 24 मार्च 2016 को प्रकाशित 
 

Wednesday 16 March 2016

शिक्षा का अधिकार : कानून बनाम हकीकत



परीक्षाओं का मौसम है और हमारे सत्ताधीश इन दिनों बच्चों के भविष्य को लेकर खासे चिंतित नजर आ रहे हैं। पहले तो प्रधानमंत्री ने 'मन की बात' में बच्चों को नसीहत दी कि वे पास-फेल की चिंता में घबराएं नहीं इत्यादि।  उनका अनुकरण छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने मासिक रेडियो प्रसारण 'मन के गोठ' में किया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इसी तरह से चिंतित हैं। वे टीवी पर मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन में दिन में न जाने कितनी बार बच्चों के परीक्षाफल और बालमन पर उसके प्रभाव की चिंता प्रकट करते हैं। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और हरियाणा में भी अगर ऐसा कुछ हो रहा हो तो उसकी जानकारी मुझ तक नहीं पहुंची है। यह देखकर मन भर आता है कि हमारे सत्ताधीशों को युवा पीढ़ी की कितनी चिंता है! टीवी और रेडियो पर देख-सुन कर तो यही लगता है कि बच्चों का इनसे बढ़कर हितैषी और कोई नहीं है।

एक तरफ राजनेताओं के ये उद्गार हैं और दूसरी ओर शिक्षा प्राप्त कर रहे बाल-बालिकाओं के असली हालात।  हम अभी विश्वविद्यालयों में जो हो रहा है उसकी चर्चा नहीं छेडऩा चाहते किन्तु स्कूली विद्यार्थियों की क्या दशा है, उसके दृश्य आए दिन सामने आ रहे हैं। एक बच्चा स्कूल के पास कुएं से पानी खींचते हुए डूब कर मर जाता है, क्योंकि दलित होने के कारण शाला के हैण्डपंप से पानी पीने की मनाही है। किसी स्कूल में दो मासूम बच्चों से अध्यापक नाराज हो जाते हैं तो उन्हें नंगे होकर कक्षा के बाहर खड़े रहने की सजा दे दी जाती है। कहीं आदिवासी छात्रों को छात्रवृत्ति लेने के लिए हर माह पैंतीस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है, तो आज भी कहीं बच्चे स्कूल जाने के लिए मीलों पैदल चलते हैं। मध्याह्न भोजन जैसी बेहतरीन योजना का हाल यह कि हर रोज विद्यार्थियों के बीमार पडऩे और अस्पताल में भर्ती होने के समाचार आते हैं। बकौल कवि सोमदत्त-किस्से अरबों हैं।

यूं तो अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में शिक्षा हासिल करने को मौलिक अधिकार का दर्जा मिल गया और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उसे अमली जामा पहनाने के लिए कानून भी पास हो गया था, लेकिन जैसा इन दिनों सुनने में आ रहा है सत्तारूढ़ भाजपा की यही मंशा प्रतीत होती है कि शिक्षा का अधिकार कानून समाप्त नहीं, तो इस तरह से संशोधित कर दिया जाए कि उसमें से वंचितों के हित के प्रावधान निरस्त हो जाएं। अगर ऐसा हुआ तो यह बहुत बड़ा अनर्थ होगा। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इत्यादि बच्चों के हित में जो उद्गार व्यक्त कर रहे हैं यह उनका भी तिरस्कार होगा। सवाल यह है कि कानून में खामियां हैं या उसे लागू करने में गड़बडिय़ां हैं अथवा प्रावधानों को अमल में लाने की ईमानदार कोशिश ही नहीं है। इसकी सिलसिलेवार समीक्षा करना आज आवश्यक हो गया है।

हमारे छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा की बहुत अधिक दुर्दशा है जिसके कारण इस प्रदेश के उज्ज्वल भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है। मुख्यमंत्री इस सच्चाई को जानते हैं। इसलिए वे स्वयं बीच-बीच में स्कूलों का निरीक्षण करने पहुंच जाते हैं। उनकी देखादेखी तमाम मंत्री और आला अफसर भी स्कूल जाते हैं, एकाध कक्षा लेते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, अखबार में तस्वीर छप जाती है और बात वहीं खत्म हो जाती है। शिक्षा व्यवस्था को तथा शिक्षा का अधिकार कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने का  यह कोई तरीका नहीं है। इसे अगर शोशेबाजी कहा जाए तो भी गलत नहीं होगा। अगर इस विषय पर सच्चे मन के साथ काम करना हो तो इस हेतु निम्नानुसार कदम उठाना होगा।

अभिजात मानसिकता- समाज के सम्पन्न अथवा अपेक्षाकृत सुखी तबके में यह धारणा है कि बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहिए, साथ ही निजी स्कूलों में गरीब बच्चों को प्रवेश नहीं देना चाहिए। यह वर्गभेद की धारणा है। बच्चों को आगे बढऩे के लिए समान अवसर मिलना आवश्यक है और उसमें शिक्षा की जहां तक बात है सरकारी स्कूल से बेहतर कुछ नहीं है। यदि देश के भावी नागरिकों को बचपन से ऊंच-नीच का पाठ पढ़ाया जाएगा तो आगे चलकर समाज में खाई बढ़ेगी और अशांति का वातावरण बनेगा।

शिक्षक- पिछले तीस-चालीस सालों के दौरान विश्व बैंक आदि के दबाव के चलते पूरे देश में पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती बंद है। ऐसे में  अच्छे शिक्षक कहां से आएंगे? छत्तीसगढ़ में ठेके या अनुबंध पर जो नियुक्त किए गए हैं उन्हें पंचायत शिक्षक का पदनाम मिला है। उनकी सेवा शर्तें भी कई अन्य राज्यों से बेहतर हैं। लेकिन इन्हें एक तो समय पर वेतन नहीं मिलता, दूसरे भ्रम  की स्थिति बनी हुई है कि ये राज्य शासन के कर्मचारी हैं अथवा जिला पंचायत के। इसके अलावा यह कटु तथ्य अपनी जगह पर है कि ये स्थायी शिक्षक नहीं हैं। ऐसी विपरीत स्थितियों में इनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
यह आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव से मुक्त होकर सरकार शिक्षा  को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी माने और इसके लिए स्थायी शिक्षकों सहित अन्य आवश्यकताएं पूरी करे।

प्रशिक्षण- स्कूली बच्चों को पढ़ाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। शिक्षक का काम एक तकनीकी  काम है, जिसके लिए उसे आवश्यक प्रशिक्षण लेना होता है। डीएड, बीएड और एमएड इत्यादि पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करके ही कोई प्रशिक्षित शिक्षक बन सकता है। इसमें विषय के ज्ञान के अलावा बाल मनोविज्ञान तथा विषय को आयुक्रमानुसार पढ़ाना इत्यादि बहुत सी बातें शामिल होती हैं। यह काम मुख्यमंत्री या मुख्यसचिव के वश का नहीं है। लेकिन हो क्या रहा है? एक तो बीएड इत्यादि के लिए बहुत से नए कॉलेज खुल गए हैं। निजी महाविद्यालयों ने इसे कमाई का उत्तम जरिया बना लिया है। इन कॉलेजों में भी शिक्षकों की कमी है। इन पाठ्यक्रमों के संचालन के लिए एक नहीं बल्कि तीन एजेेंसियां जिम्मेदार हैं जिनमें आपस में कोई तालमेल नहीं हो पाता। इससे तथाकथित प्रशिक्षित शिक्षकों की योग्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।

परीक्षा- यह एक भ्रम अच्छे तरीके से फैलाया गया है कि आठवीं कक्षा तक परीक्षा नहीं लेना है। यह सही है कि पारंपरिक तरीके से जो परीक्षाएं होती रही हैं वैसा अब नहीं होना है, किन्तु इसमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान है कि विद्यार्थियों का सतत् मूल्यांकन किया जाना है। अर्थात शिक्षक उनकी पढ़ाई पर लगातार ध्यान रखेंगे तथा जो बच्चे कमजोर हैं उन पर विशेष ध्यान देंगे। अगर शिक्षक अपने विद्यार्थियों की उन्नति के लिए हर समय प्रयत्नरत है तो स्वाभाविक है कि विद्यार्थी लगातार अपनी प्रतिभा का विकास करते जाएंगे और अपवादों को छोड़कर फेल होने का सवाल ही नहीं उठेगा।

दंड- हमारे यहां लंबे समय से मान्यता चली आ रही है कि बच्चों को पीटे बिना वह सुधर नहीं सकते। यह दरअसल बड़ों के मन की कुंठा का ही प्रतिबिंब है। इससे सुकुमार बच्चों की प्रगति अवरूद्ध ही होती है। उन्हें अपने विकास के लिए खुला तथा अनुकूल वातावरण मिलना चाहिए।

समाज का दायित्व- शिक्षा का अधिकार कानून में शाला प्रबंधन समिति का प्रावधान किया गया है। इस समिति को शाला की आवश्यकताओं को सूचीबद्ध करना, प्राथमिकताओं का निर्धारण करना, संसाधन जुटाना आदि दायित्व वहन करना चाहिए। जिस भी गांव या मुहल्ले में स्कूल हैं, वहां अधिकतर सदस्य पालकों के बीच से ही चुने जाते हैं। अपने इस महती दायित्व को पालकों को गंभीरता से लेना चाहिए। आज भी ऐसे स्कूल आपके आसपास होंगे जो उदारमना नागरिकों के सहयोग से स्थापित हुए होंगे। आज एक बार फिर समाज को ही दुबारा इस हेतु उद्यम करने की आवश्यकता है।

शिक्षा का अधिकार एक कानूनी साधन है, किन्तु किसी भी कानून का क्रियान्वयन बड़ी हद तक नागरिकों के सहयोग एवं सन्मति पर निर्भर करता है। हमें अपने बच्चों का भविष्य बनाना है तो सरकार की तरफ मुंह ताकना बंद कर अपनी सामूहिक इच्छाशक्ति को जगाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।

देशबन्धु में 17 मार्च 2016 को प्रकाशित 
 

  

Sunday 13 March 2016

नीरजा: वीरता की अनुपम परिभाषा



मेरा सिनेमाघर में जाकर फिल्म देखना लगभग बंद हो गया है। छठे-छमाहे किसी ने तारीफ कर दी तो उस फिल्म को देखने का मन बन जाता है वरना टीवी पर आधी अधूरी फिल्में देखकर  संतोष कर लेता हूं। अभी हाल में 'नीरजा' देखी तो यह फिल्म कई दृष्टियों से अच्छी लगी और उसके साथ जो ऐतिहासिक संदर्भ जुड़े हैं वे भी एकाएक ध्यान में आ गए। तब मन हुआ कि इस फिल्म के तमाम संदर्भों को समेट कर कुछ लिखा जाए। सबसे पहले तो यह नोट किया कि 'नीरजा' आज की शब्दावली में एक बायोपिक है अर्थात जीवनी पर आधारित फिल्म। हमारे यहां इस तरह की फिल्में कम ही बनीं। यूं तो कहा जा सकता है कि भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिशचन्द्र' एक तरह से बायोपिक ही थी, लेकिन वह एक पौराणिक कथानक पर आधारित थी। इसके बाद संत तुलसीदास, भक्त सूरदास, चंडीदास आदि पर फिल्मेंं बनीं। महाकवि कालिदास पर भी, लेकिन मैं नहीं जानता कि क्या ऐसी तमाम फिल्मों को बायोपिक की श्रेणी में रखा जा सकता है, क्योंकि इनमें कल्पना का अंश प्रबल है और वृत्तांतों की सच्चाई काफी हद तक संदिग्ध।

बहरहाल, आजकल जिन्हें बायोपिक कहा जा रहा है वे उन व्यक्तियों पर बनी फिल्में हैं। जिन्हें आज की पीढ़ी ने देखा है और जिनके नाम-काम से लोग परिचित हैं। इन फिल्मों में भाग मिल्खा भाग, मैरी कॉम और पानसिंग इत्यादि फिल्में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पानसिंग तो मैंने देखी है और मुझे जो कुछ जानकारी है उसके आधार पर कह सकता हूं कि इस फिल्म में पानसिंग का चरित्र-चित्रण बिना अतिरंजना के किया गया है तथा उसके जीवन से जुड़ी घटनाओं के ब्यौरे तथ्यों पर आधारित है। कहना न होगा कि ऐसा चलचित्र बनाने के लिए फिल्मकार को औसत से अधिक परिश्रम करना पड़ता है तथा यह कार्य पर्याप्त शोध किए बिना पूरा नहीं हो सकता। ऐसी फिल्म बनाने में कुछ अलग तरह की मुश्किलें भी पेश आती हैं मसलन चरित्र नायक या नायिका के परिजनों की अनुमति और अगर उन्हें कहीं आपत्ति हो तो उनका समाधान करना भी आवश्यक हो जाता है। ऐसी फिल्म आप किसी खूबसूरत जगह पर आउटडोर शूटिंग करके नहीं बना सकते। और न इनमें नाच-गाने की कोई खास गुंजाइश होती जिसके बिना बॉलीवुड की फिल्में चलती ही नहीं हैं। याने यह डर भी होता है कि फिल्म नहीं चली तो पैसा डूब जाएगा।

इन सब दृष्टियों से देखें तो नीरजा एक प्रामाणिक, सुंदर और सफल फिल्म है जिसके लिए फिल्म निर्माता अतुल कस्बेकर और निदेशक राम माधवानी दोनों बधाई के हकदार हैं। अतुल कस्बेकर की ख्याति एक ग्लैमर फोटोग्राफर के रूप में है, लेकिन यह उनकी बनाई पहली फिल्म है। राम माधवानी भी विज्ञापन की दुनिया से आए हैं। एयरटेल के लिए उनका बनाया विज्ञापन खूब चला था-हरेक फ्रैण्ड जरूरी होता है। उनके लिए भी फीचर फिल्म बनाने का यह पहला मौका था। इन दोनों ने पहली फिल्म बनाने की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया। फिल्म की नायिका नीरजा का रोल अभिनेता अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर ने किया है। उनके अभिनय ने मुझे बहुत प्रभावित नहीं किया, लेकिन नायिका नीरजा का चरित्र इतना मजबूत और उससे जुड़े प्रसंग में इतनी गत्यात्मकता है कि किरदार बिना बहुत मेहनत किए बिना ही उभर आता है। फिल्म में अभिनय का मौका अगर किसी के पास था तो वह सिर्फ शबाना आजमी के पास। वे सिद्धहस्त कलाकार हैं और फिल्म के भीतर बहुत अधिक गुंजाइश न होने पर भी हर शॉट में उन्होंने अपनी अभिनय प्रतिभा की छाप छोड़ी है।

हम जैसा कि जानते हैं यह फिल्म एक विमान परिचारिका याने एयर होस्टेस नीरजा भनोट के जीवन पर आधारित है। नीरजा ने मॉडलिंग से अपना कॅरियर शुरु किया था; उस दौर में जबकि इस व्यवसाय को भारत में बहुत अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता था लेकिन नीरजा के पत्रकार पिता हरीश भनोट और मां रमा उसकी इच्छा में बाधक नहीं बने। फिर जैसा कि एक आम भारतीय परिवार में होता है नीरजा का विवाह घरवालों की पसंद से कर दिया गया। वह पति के साथ ओमान चली गई। वहां उस पर अत्याचार हुए तो माता-पिता के पास वापिस लौट आई तथा शीघ्र ही उसे अमेरिका की पान एम एयरलाइंस में एयर होस्टेस का काम मिल गया। अपने नए काम में वह खुश भी है और इतनी दक्ष भी कि विमान में परिचारिका दल की प्रमुख का दायित्व संभालती है। 3 सितम्बर 1986 को वह मुंबई से करांची होते हुए न्यूयार्क की फ्लाइट पर सवार होती है। करांची में फिलीस्तीनी संगठन अबू निदाल के सदस्य विमान पर कब्जा कर लेते हैं। ऐसे समय वह पल-पल अपनी कर्तव्यपरायणता, साहस, तीव्र बुद्धि व प्रत्युत्पन्नमति का परिचय देती है। विमान में सवार दो सौ उन्यासी यात्रियों में से दो सौ उनसठ के प्राण बचाने में वह सफल होती है और कर्तव्य पथ से दूर हटने या पलायन करने के बजाय स्वयं मृत्यु का वरण करना पसंद करती है। 3 सितम्बर को उसकी मृत्यु हुई। विडंबना ऐसी कि सिर्फ दो दिन बाद 5 सितम्बर को वह जीवन के तेईस बसंत पूरे करती जिसका स्वयं उसे और उसके प्रियजनों को इंतजार था।

यह एक असाधारण जीवन गाथा है जिसका निर्वाह फिल्मांकन में बखूबी किया गया है। निर्देशक ने बारीक से बारीक बात का ध्यान रखा है। जिन्होंने फिल्म देखी है, वे याद करें उस दृश्य को जब मुंबई में विमान पर यात्री सवार हो रहे हैं। बोर्डिंग के समय हवाई जहाज में जिस तरह की गहमागहमी होती है उसका निर्देशक ने जीवंत चित्रण किया है। शबाना के अभिनय की बात तो हम ऊपर कर ही चुके हैं। यह रेखांकित करने योग्य है कि फिल्म में किसी तरह का अतिरेक नहीं है। इन दिनों कथित राष्ट्रवाद की हवा जो बह रही है उसमें ऐसा कुछ हो जाना अस्वाभाविक नहीं होता। एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान जाता है कि करांची में एयरपोर्ट के अधिकारियों तथा पाकिस्तान के सुरक्षा बल ने विमान अपहरणकर्ताओं से निपटने में काफी सूझबूझ और मुस्तैदी दिखाई। नीरजा भनोट की वीरता की कहानी 1986 की है। याने इस घटना को तीस साल पूरे हो चुके हैं। इस बीच में भारत की जनता ने भी नीरजा को लगभग भुला ही दिया था। नई पीढ़ी को तो शायद उसके बारे में कुछ भी पता नहीं होगा।

नीरजा देखते हुए दर्शकों को भारत के एक दूसरे विमान अपहरणकांड का ध्यान आ सकता है जब 1999 में तालिबान ने काठमांडू से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाईंस के विमान पर कब्जा कर लिया था। यह विमान लगभग पैंतालीस मिनट तक तेल भरने के लिए अमृतसर हवाई अड्डे पर खड़ा रहा था और हमारी सरकार अपनी ही धरती पर इस अपहृत किए गए विमान को छुड़ाने के लिए कुछ न कर सकी थी। तेल भरने के बाद हमारा विमान कंधार ले जाया गया था और उसे छुड़ाने के लिए सरकार को आतंकियों की सारी शर्तें मानने पर मजबूर होना पड़ा था जिसमें कुख्यात आतंकी मौलाना मसूद अजहर की रिहाई भी शामिल थी। यह कड़वी सच्चाई भूलना मुश्किल है कि बाद में मुंबई में 26 नवम्बर 2008 याने 26/11 के भयंकर नरसंहार का मुख्य षडय़ंत्रकारी यही मसूद अजहर था। नीरजा पर बनी फिल्म तो सत्य घटना पर आधारित है, लेकिन कंधार अपहरण पर बॉलीवुड के निर्माता 'जमीन' जैसी एक अविश्वसनीय फिल्म से बेहतर कुछ और न बना सके।

मैंने जब नीरजा देखी तो मुझे विमान अपहरण के दो अन्य प्रसंग याद आए। पहली घटना 30 जनवरी 1971 की है। इंडियन एयरलाईस के श्रीनगर से जम्मू आ रहे एक छोटे विमान (फोकर फ्रैण्डशिप) का दो कश्मीरी नौजवानों ने अपहरण कर लिया और वे उसे उड़ा कर लाहौर ले गए। लाहौर में खुद तानाशाह याह्या खान ने विमानतल आकर कश्मीर की  'आज़ादी' के इन लड़ाकों का सम्मान किया, लेकिन फिर न जाने क्या बात हुई कि अगले ही दिन ये दोनों जेल में डाल दिए गए। इनमें से एक हाशिम कुरैशी पाक जेल में कई साल कैद रहा। वहां से छूटने पर वह नार्वे चला गया तथा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत वापिस लौटा। पाकिस्तान सरकार ने उसे क्यों जेल में डाला, वाजपेयीजी ने उसे भारत आने की इजाजत क्यों दी और क्या इसका कोई संबंध बंगलादेश मुक्ति संग्राम की पूर्व पीठिका से था? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर मिलना बाकी हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि हाशिम कुरैशी की उम्र उस समय मात्र सत्रह साल थी।

दूसरा प्रसंग इसके दो वर्ष पूर्व याने 1969 का है। मेरा ख्याल था कि यह शायद विमान अपहरण की पहली घटना थी, लेकिन ऐसा नहीं है। फिलिस्तीन की पच्चीस वर्षीय युवती लैला खालिद का नाम तब अचानक सुर्खियों में आ गया था जब उसने अमेरिकी एयरलाईंस टीडब्लूए के एक विमान का अपहरण कर लिया था। यह विमान रोम से एथेंस के रास्ते पर था, जिसे लैला खालिद ने सीरिया की राजधानी दमिश्क में उतरने पर मजबूर कर दिया। उसने विमान रुकने के बाद सारे यात्रियों को सुरक्षित उतरने की अनुमति दे दी थी। उसका उद्देश्य कोई हिंसा न कर फिलिस्तीनी जनता के साथ हो रहे अन्याय की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करना था। यह सितम्बर 1969 की घटना है। इसके एक साल के भीतर ही उसने इजरायली विमान सेवा के एक विमान का अपहरण किया लेकिन इजरायली सुरक्षाकर्मियों ने अपहरण को नाकाम कर लैला खालिद को गिरफ्तार कर लिया। उसके पास हथगोले थे, लेकिन उनका इस्तेमाल उसने नहीं किया। उसने कहा कि वह निर्दोष यात्रियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती थी। इसके बाद उसने ऐसे किसी अभियान में भाग नहीं लिया। फिलिस्तीन से विस्थापित होकर जोर्डन में रह रहे परिवार की बेटी लैला अपने देशवासियों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहती थी, जिसके लिए उसने यह खतरनाक खेल खेला था।

विमान अपहरण करने का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है, जितना नागरिक उड्डयन का इतिहास। संदर्भ तलाशते हुए जानकारी मिली कि विश्व में पहिला विमान अपहरण 25 सितंबर 1932 को ब्राजील में हुआ था। अपहर्ताओं में से किसी को भी विमान उड़ाना नहीं आता था। किसी तरह उड़ तो लिए लेकिन थोड़े समय बाद एक पहाड़ी से टकराकर विमान ध्वस्त हो गया तथा तीनों षडय़ंत्रकारियों के साथ चौथा व्यक्ति जो बंधक था वह भी मारा गया। तब से अब तक इन अस्सी सालों में विमान अपहरण की एक सौ तीस (130) घटनाएं घट चुकी हैं। इनमें सबसे हैरतअंगेज 9/11 का वाकया है, जब एक दिन, एक समय पर चार विमान एक साथ अपहृत कर के अमेरिका में न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड टावर पर आत्मघाती हमला किया गया था। हाल के बरसों में इस्लामी आतंकवादियों द्वारा विमान अपहरण किए जाने की घटनाएं हमारी स्मृति में बस गई हैं; किन्तु इस तथ्य से अधिकतर जन परिचित नहीं है कि ब्राजील से लेकर जापान तक कितने ही देशों में इस प्रकार की वारदातें हो चुकी हैं। 

1969 में अमेरिका में तो मात्र चौदह वर्ष आयु के बालक डेविड बूथ ने यह दुस्साहस सिर्फ यह बतलाने के लिए किया था कि देश में किशोर अपराधों की न्याय प्रक्रिया संतोषजनक नहीं है। शीतयुद्ध के दौरान पूर्वी यूरोपीय देशों से पश्चिम में राजनैतिक शरण लेने की दृष्टि से भी कई बार विमान अपहरण की घटनाओं को अंजाम दिया गया। चीन, जापान व अमेरिका में भी विभिन्न कारणों से इस तरह की कोशिशें की गईं। फिर भी संगठित और सुनियोजित तरीके से विमान अपहरण करने के लगभग सभी प्रयत्न पहिले तो फिलिस्तीन में हो रहे अन्याय की ओर ध्यान खींचने के लिए किए गए, जबकि कंधार व वल्र्ड ट्रेड सेंटर जैसी वारदातों से इस्लाम की एक धर्मांध, कट्टरपंथी, जड़तावादी, क्रूर और नृशंस परिभाषा सामने आई जिसने विश्व में इस्लाम के तमाम अनुयायियों को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। 

विमान अपहरण के इतिहास में एक ओर 9/11 है तो दूसरी ओर एंटेबी विमानतल का उदाहरण भी है। पाठकों को स्मरण होगा कि तानाशाह ईदी अमीन के समय यूगांडा की राजधानी कंपाला के एंटेबी विमानतल पर इजराइली सशस्त्र बल ने दुस्साहिक रूप से छापामार कार्रवाई कर बंधक बनाए गए इजराइली यात्रियों को छुड़ा लिया था। यह 4 जुलाई 1976 की घटना है। इसके पूर्व 27 जून को एयरफ्रांस का एक विमान 248 सवारियों को लेकर तेल अवीव से उड़ा था। इसे अपहरण कर एथेंस, बेनगाजी (लीबिया) होते हुए कंपाला में उतारा गया। सारे यात्रियों को उतारकर विमानतल के भवन में बंद कर दिया गया। इनमें से जो गैर-इजराइली यात्री थे, उन्हें छोड़ दिया गया, लेकिन 106 इजराइली बंधक बना लिए गए। अपहरणकर्ताओं की मांग थी कि इजराइल की जेलों में कैद फिलिस्तीनियों को छोड़ा जाए। उनकी यह मांग नहीं मानी गई। मुकम्मल तैयारी कर छापामारों ने अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर कंपाला जाकर धावा बोल 102 यात्रियों को सकुशल बचा लिया। इसके साथ उन्होंने जमीन पर खड़े यूगांडाई वायुसेना के 30-40 विमानों को भी नष्ट कर दिया, क्योंकि ईदी अमीन अपहरणकर्ताओं का साथ दे रहा था। इस कारनामे पर बहुत सारी फिल्में भी बनीं व किताबें भी लिखी गई। 

इस घटना का एक पहलू यह है कि अपहरणकर्ताओं ने यात्रियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। दूसरे उनकी मांग फिलिस्तीनी कैदियों की मुक्ति की थी। ठीक 10 वर्ष बाद करांची में जो वारदात हुई उसमें भी इजरायल में कैद पन्द्रह सौ फिलिस्तीनी नागरिकों को रिहा करने की मांग थी। अपहरणकर्ता इस सच्चाई को भूल गए कि इजराइल इस तरह से दबाव में नहीं आएगा। बहरहाल, नीरजा में अगर इस मांग का जिक्र कहीं हो गया होता तो दर्शकों को अपहरण का कारण पता चल जाता। आतंकवादी चाहे किसी भी देश, धर्म, विचार के हों, उन्हें मालूम नहीं क्यों यह समझ नहीं आता कि हिंसा से कभी भी, किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। एक बिन्दु पर पहुंचकर हिंसा अपने आप में लक्ष्य बन जाती है, साधन की  बजाय साध्य। इस अविवेक में निर्दोष लोग मारे जाते हैं। लेकिन इस नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी समय में विश्व समाज शायद अभिशप्त है कि वह चारों तरफ से हिंसा का शिकार बनता रहे। 

इस माहौल में नीरजा एक आदर्श, एक आशा किरण के रूप में सामने आती है। वह जिन निर्दोष यात्रियों को बचाने में अपने प्राणों का उत्सर्ग करती है, उनमें तीन मासूम बच्चे भी हैं। उनमें से एक आज अमेरिका की एक एयरलाइंस में कैप्टन के पद पर हैं और कहता है कि नीरजा उसकी प्रेरणास्रोत है। उसी ने उसे नया जन्म दिया। हम देख सकते हैं कि नीरजा की वीरता सामान्य परिभाषा से आगे बढ़कर है। वह स्वयं अपने प्राण बचाने की वीरता नहीं है। वह किसी सैनिक की रणक्षेत्र में दिखलाई वीरता नहीं है। वह पूर्व प्रेम को आलोकित करती लहना सिंह की वीरता भी नहीं है। इस वीरता में कर्तव्यपरायणता तो है, लेकिन उससे बढ़कर एक सामान्य नागरिक द्वारा हिंसा के प्रतिकार की वीरता है। नीरजा वीरता के बारे में हमारी समझ को बेहतर बनाती है।
 देशबन्धु अवकाश अंक में 13 मार्च 2016 को  प्रकाशित 

Thursday 10 March 2016

पवन दीवान : कुछ स्मृतियां


देशबन्धु का रायपुर कार्यालय जिस परिसर में अवस्थित है, उसका भूमिपूजन 29 जून 1978 को संत-कवि पवन दीवान ने किया था। वे उन दिनों अविभाजित मध्यप्रदेश की जनता पार्टी (बाद में भाजपा) सरकार में मंत्री थे। यह एक ऐसा प्रसंग था, जिसे हम कभी नहीं भूल सकते। उस दिन पवन दीवान हमारे लिए संकटमोचन बनकर आए थे। यह एक लंबा किस्सा है। जिन्हें भूमिपूजन करना थे, वे राजनैतिक प्रपंच में फंसकर कार्यक्रम के निर्धारित समय के पूर्व एकाएक रायपुर छोड़ नागपुर चले गए। ऐसे आड़े अवसर पर दीवानजी का ध्यान आया। वे राजिम-किरवई के आश्रम से अन्य कार्यक्रम छोड़कर रायपुर आए। अपने पार्टी-नेताओं की दलीलें अनसुनी कर वे भूमिपूजन के मुख्य अतिथि हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री किशोरीलाल शुक्ल ने की। इस तरह जनता में सही संदेश गया कि देशबन्धु किसी पार्टी विशेष का नहीं, बल्कि एक निष्पक्ष समाचारपत्र है। जो लोग राजनैतिक रंग देना चाहते थे, उनकी मनोकामना पूरी नहीं हुई। उस दिन किरवई से आते समय जब दीवानजी रायपुर सर्किट हाउस में दस मिनिट के लिए रुके तब अपनी गाड़ी के सामने लेट गए एक उद्धत पार्टी कार्यकर्ता को उन्होंने लगभग इन शब्दों में जवाब दिया- मेरी पहिली कविता बाबूजी ने छापी थी। आज उन्होंने बुलाया है तो मैं जरूर जाऊंगा। इसके लिए भले ही तुम्हारी लाश पर कदम रखकर क्यों न जाना पड़े।

इस 2 मार्च को पवन दीवान हमसे सदा के लिए बिछुड़ गए। जिस दिन वे किरवई आश्रम में अचानक बीमार पड़़े और रायपुर अस्पताल में उपचार के लिए लाए गए, तब मैं उन्हें देखने गया था। जिस मित्र के ठहाके बरसों सुने, वह अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में चेतनाविहीन लेटा हुआ था। बस जीवन-रक्षक मशीनों के भरोसे सांस चल रही थी। उन्हें इस हालत में देखकर मन को बेहद तकलीफ हुई। दो मिनिट शय्या के पास खड़े रहकर वापिस आ गया। अपने वश में प्रार्थना करने के अलावा और कुछ नहीं था। अब जब पवन दीवान हमारे बीच नहीं हैं, तब उनके साथ जुड़े प्रसंग अनायास मानसपटल पर उभर रहे हैं। दीवानजी से मेरा पहिला परिचय कवि के नाते ही हुआ। देशबन्धु में प्रारंभ से ही नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने की नीति रही है। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के अनेकानेक लेखक ऐसे हैं, जिनकी पहली कविता या पहली कहानी देशबन्धु में ही छपी होगी।  मेरा अनुमान है कि 1964-65 के आसपास पवन दीवान की कविताएं इस अखबार में छपना शुरु हुईं। इसी नाते हमारी पहिली भेंट भी हुई होगी, क्योंकि तभी मैंने पत्र के साहित्य परिशिष्ट को देखना प्रारंभ किया था।

पवन दीवान जिस राजिम ग्राम (अब नगर) के निवासी थे, वहां साहित्य साधना की एक लंबी परंपरा रही है। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के प्रबल प्रतीक, स्वाधीनता सेनानी व समाज सुधारक पं. सुंदरलाल शर्मा अपने समय के एक जाने-माने कवि थे। उन्होंने आज से सवा सौ साल पहले राजिम में सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित किया था। उनकी परंपरा को पवन दीवान व उनके साथियों ने आगे बढ़ाया। राजिम से 1967 में 'बिंब' नामक साइक्लोस्टाइल पत्रिका इन्होंने प्रारंभ की, जिसने हिंदी जगत में धूम मचा दी। बिंब समूह के लगभग हर सदस्य ने प्रदेश स्तर पर लेखक के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। इनमें से एक प्रमुख नाम कृष्णा रंजन का है जो पत्रकार, कवि, लेखक इन सारी भूमिकाओं को छोड़कर गैरिक वस्त्र धारण कर अब भागवत कथा करने लगे हैं। दीवानजी के निधन के बाद अब रवि श्रीवास्तव ही इस दल के एकमात्र सक्रिय सदस्य बचे हैं। पवन दीवान ने भी अपनी कविता यात्रा को बीच में छोड़कर दूसरा पथ अपना लिया था। इस नए पथ पर चलकर स्वयं उन्हें कितना संतोष या संताप हुआ और छत्तीसगढ़ प्रदेश की आशाओं को उन्होंने कितना फलीभूत किया, यह तो भविष्य में राजनीतिशास्त्र का कोई शोधार्थी ही बता पाएगा।

पवन दीवान ने सन्यास तरुणाई में ही ले लिया था किंतु वे खड़ाऊ और कौपीन धारण करने के बावजूद सिर्फ सन्यासी बनकर नहीं रहे। उनके कवि रूप का संक्षिप्त वर्णन तो मैंने ऊपर किया ही है, 1967 के आसपास वे छत्तीसगढ़ भ्रातृसंघ से जुड़ गए थे और यहां से उनकी राजनैतिक यात्रा प्रारंभ होती है। सन्यासी, कवि, भागवत पाठी, युवा और हिंदी, छत्तीसगढ़ी के साथ संस्कृत व अंग्रेजी का ज्ञान तथा भाषण कला में प्रावीण्य। दीवानजी जहां जाएं, भीड़ उनके पीछे लग जाए। उनका खूब उपयोग जनसंघ ने अपने चुनाव अभियानों में किया। पवन नहीं आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है, जैसा नारा उनके लिए प्रचलित हो गया। इसका पुरस्कार जनसंघ ने उन्हें 1977 में राजिम क्षेत्र से विधानसभा प्रत्याशी बना कर दिया। आपातकाल के तुरंत बाद का समय था। कांग्रेस की लोकप्रियता का ह्रास हो चुका था। पवन दीवान ने मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को अच्छे खासे अंतर से हराया था। वे कैलाश जोशी के मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। लेकिन इन सबका दीवानजी पर कोई खास असर नहीं पड़ा। वे पहिली की भांति सहज भाव से सबसे मिलते रहे- और उनके अट्टहास वैसे ही गूंजते रहे।

कैलाश जोशी ने पवन दीवान को जेल विभाग दिया। इस विभाग के मंत्री रहते हुए उन्होंने देशबन्धु को एक बार फिर अलग ही ढंग से सहायता की, जिससे अखबार की तारीफ पूरे देश में हुई और जिसकी चर्चा आज भी होती है। 1978 में रायपुर केन्द्रीय कारावास में एक बंदी को फांसी की सजा दी जाना थी। जेलमंत्री ने देशबन्धु को अनुमति प्रदान की कि हमारे संवाददाता फांसी देते समय उपस्थित रह सकते हैं। सुबह 4 बजे फांसी दी गई और दो घंटे बाद अखबार का नगर संस्करण बाजार में आया। पहले पन्ने पर रिपोर्ट थी- हमने बैजू को फांसी पर चढ़ते देखा। स्वतंत्र भारत की किसी जेल में फांसी देने का आंखों-देखा विवरण प्रकाशित करने वाला पहला अखबार बन गया देशबन्धु। इस रिपोर्ट से पत्र को जो सराहना व प्रतिष्ठा मिली, उसका मुख्य श्रेय तो पवन दीवान को ही मिलना चाहिए। अगर वे नियमों को शिथिल कर अनुमति न देते तो यह रिपोर्टिंग कैसे संभव होती? मैं समझता हूं कि देशबन्धु परिवार के साथ दीवानजी जिस परस्पर आत्मीयता का अनुभव करते थे, उसके कारण ही हमारे अनुरोध पर यह अनुमति दी।

पवन दीवान अब तक साहित्य जगत से काफी हद तक विमुख हो चुके थे। 1980 में जब अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बने तो दीवानजी की राजनैतिक यात्रा में एक नया मोड़ आया। श्री सिंह ने उन्हें जनसंघ या जनता पार्टी छोड़ कांग्रेस में आने के लिए प्रेरित किया और वे मान भी गए। ऐसा समझा जाता है कि श्री सिंह ने दीवानजी को छत्तीसगढ़ के हितों का ध्यान रखने का वायदा करके उन्हें अपने पक्ष में किया। कुछ दिनों बाद ही छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण का गठन हुआ, जिसमें पवन दीवान सदस्य मनोनीत हुए। पशुचिकित्सा महाविद्यालय अंजोरा (दुर्ग) में स्थापित हुआ और विकास के ऐसे अनेक निर्णय  लिए गए। मध्यप्रदेश की राजनीति के अध्येताओं को ध्यान होगा कि अर्जुनसिंह ने इन कामों के अलावा पं. सुंदरलाल शर्मा, गुरु घासीदास व शहीद वीर नारायण सिंह की छवि जनमानस में प्रतिष्ठित करने के अनेक उपक्रम किए। इन उपायों से अर्जुनसिंह ने छत्तीसगढ़ में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत तो अवश्य की; यह भी मानना होगा कि उन्होंने पवन दीवान से जो वायदा किया था, वह पूरा किया। इस तरह प्रकारांतर से दीवानजी ने अपने प्रदेश के विकास में सहभागिता निभाई।

इसके बाद पवन दीवान कांग्रेस टिकिट पर दो बार लोकसभा के लिए भी चुने गए। अर्जुनसिंह के साथ उनका जो सम्मान व विश्वास का संबंध था, वह श्री सिंह के निधन तक कायम रहा। इस बीच 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण भी हो गया। इसकी सबसे अधिक प्रसन्नता दीवानजी को ही होना चाहिए थी, लेकिन नए प्रदेश में वे एक तरह से अप्रांसगिक हो गए या कर दिए गए। कांग्रेस से उनका मोहभंग हुआ तो वे अपनी पुरानी पार्टी भाजपा में चले गए। फिर वहां बात न बनी तो दुबारा कांग्रेस में शामिल हो गए और उसके बाद एक आखिरी बार उन्होंने भाजपा का दामन पुन: थाम लिया। मैं नहीं जानता कि  यह एक कविहृदय व्यक्ति की निरी भावुकता थी, या राजनीतिक महत्वाकांक्षा या कोई आंतरिक बेचैनी जो उन्हें यहां से वहां भटकाती रही। अगर राजनैतिक प्रपंच से मुक्त होकर वे आध्यात्मिक साधना या साहित्य साधना की ओर लौट गए होते तो उनके सम्मान में वृद्धि ही होती।

जो भी हो, पवन दीवान के निधन के साथ छत्तीसगढ़ ने अपने एक विरल तथा बहुमुखी व्यक्तित्व को खो दिया है। अपने हितचिंतक मित्र को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

देशबन्धु में 10 मार्च 2016 को प्रकाशित 

Thursday 3 March 2016

बजट क्या कहता है-2


 2016-17 के बजट में जो बेहतरीन प्रस्ताव हैं उनमें से एक मोटरकार पर लगने वाले कर में  बढ़ोतरी का है, लेकिन यह वृद्धि बहुत अधिक नहीं है। महंगी गाडिय़ों का शौक रखने वाले सुविधाभोगी वर्ग को बढ़ी हुई कीमतों से बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। जिस समाज में मोटर-गाडिय़ों की बिक्री को सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का प्रतीक माना जाए और वित्त मंत्री भी जिसका  उदाहरण बजट भाषण में दें तो समझा जा सकता है कि हमारा सामाजिक परिवेश किस तरह बदल रहा है। वित्त मंत्री ने सड़क निर्माण को अपनी प्राथमिकता सूची में जोड़ा और सड़क मार्ग से यात्रा को सुगम बनाने का वायदा किया है। हम इसका स्वागत करते हैं किन्तु मुझे यहां दो कमियां नज़र आ रही हैं। एक तो सार्वजनिक यातायात के प्रमुख साधन याने बसों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रस्ताव वित्त मंत्री ने नहीं दिया है। दूसरे मोटर बाइक पर कराधान में कोई बदलाव नहीं किया गया है। हमें खुशी होती कि वित्त मंत्री निजी वाहनों को महंगा करने और दूसरी तरफ सार्वजनिक वाहनों को प्रोत्साहन देने के लिए कोई नीति बनाते।

एक और अच्छा प्रस्ताव बीपीएल परिवारों को रियायती दर पर रसोई गैस उपलब्ध कराने का है। इसके लिए बजट में दो हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है और इससे डेढ़ करोड़ परिवारों को लाभ होने का अनुमान व्यक्त किया गया है। दूसरी तरफ इस बात पर भी वित्त मंत्री ने संतोष व्यक्त किया है कि पचहतर लाख उपभोक्ताओं ने रसोई गैस पर सब्सिडी का त्याग कर दिया है। मुझे गणित बहुत समझ नहीं आता किन्तु लगता है कि पुराने उपभोक्ताओं द्वारा छोड़ी गई सब्सिडी से बीपीएल श्रेणी के नए उपभोक्ताओं को रियायती दर पर रसोई गैस मिल जाएगी। यह एक अच्छी पहल है किन्तु इस घोषणा के साथ श्री जेटली अगर यह बताते कि इसके बाद कितने बीपीएल परिवार बच जाएंगे तो पूरा दृश्य स्पष्ट हो जाता।

वित्त मंत्री ने सिंचाई सुविधा बढ़ाने पर भी काफी जोर दिया है। उन्होंने बताया कि जो अधूरी सिंचाई योजनाएं हैं उन्हें समयबद्ध कार्यक्रम हाथ में लेकर पूरा किया जाएगा। इस वर्ष वे ऐसी तेईस योजनाओं को हाथ में लेंगे। यह स्वागत योग्य कदम है। किन्तु देश के किसान यह समझना चाहेंगे कि खेती के नाम पर सिंचाई सुविधाओं का विस्तार कर अंतत: लाभ किसे मिलेगा? यह कौन सुनिश्चित करेगा कि आगे चलकर पूंजीपतियों की नज़र इस सिंचित भूमि पर नहीं गड़ेगी और वे कारखाने लगाने के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं करेंगे? श्री जेटली ने गांवों में तालाब और कुएं खोदने व पुनर्जीवित करने की मद में राशि आबंटित की है। यह प्रस्ताव भी सराहनीय है। किन्तु यहां फिर सवाल उठता है कि देश के तालाबों तथा जलाशयों को संरक्षित करने के लिए भारत सरकार की नीति क्या है? हम सिर्फ एनडीए सरकार की बात नहीं कर रहे हैं। यह खेल तो पिछले चालीस साल से चला आ रहा है और इस बारे में कोई भी सरकार स्पष्ट नीति बनाने में असफल रही है।

जैसा कि हम जानते हैं देश के सभी राष्ट्रीयकृत बैंक गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। रिजर्व बैंक का अनुमान है कि इन बैंकों की चार लाख करोड़ से अधिक राशि डूबत खाते में चली गई है। इसके लिए एक बढिय़ा संज्ञा गढ़ ली गई है- एनपीए अथवा नॉन परफार्मिंग असेट। असेट याने संपत्ति। जो पैसा डूब गया हो उसे संपत्ति कैसे माना जाए? बहरहाल बजट में इन बैंकों की माली हालत सुधारने के लिए पच्चीस हजार करोड़ की राशि का प्रावधान किया गया है। इतनी कम राशि से बैंकों को पुनर्जीवन कैसे मिलेगा? दूसरी ओर जो राशि डूबत खाते में चली गई है उसकी वसूली कैसे संभव होगी? इस पर सरकार अभी तक मौन है। बजट में भी बस इतना ही कहा गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर इस बारे में त्वरित सूचनाएं एकत्र की जाएंगी इत्यादि। हमारी समझ में सरकार को बजट के माध्यम से नीति स्पष्ट करना चाहिए थीं कि जो बड़े बकायादार या डिफाल्टर हैं उनके साथ सरकार किस तरह पेश आएगी।

इस बजट में कृषि क्षेत्र से संबंधित एक और घोषणा है। इसके अनुसार खाद्यान्न उत्पादन, प्रसंस्करण एवं वितरण में शत-प्रतिशत एफडीआई की अनुमति होगी। वित्त मंत्री का मानना है कि इससे किसानों को फायदा होगा तथा रोजगार के विपुल अवसर निर्मित होंगे। हम श्री जेटली की तरह आशावादी नहीं हैं। इस नीति से होगा यह कि विदेशी कंपनियां हमारे कृषि संसाधनों पर कब्जा जमा लेंगी। यह काम दबे हुए अभी भी चल रहा है, लेकिन अब खुलकर छूट मिल जाएगी। इससे यह भी होगा कि हमारा किसान अपने ही खेत में विदेशी पूंजीपतियों का ताबेदार बन जाएगा। खेत में वही फसल ली जाएगी जो विदेशी मालिक चाहेगा। एक तरह से यह खेती का कारपोरेटीकरण करना होगा। यहां शंका होती है जो सड़क व सिंचाई की बातें हो रही हैं वह भी कहीं इन नए मालिकों के फायदे के लिए तो नहीं है?

इसी तरह यह आशंका भी बलवती होती है कि सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों का पूरी तरह निजीकरण करने की ठान ली है। सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश तो एनडीए-1 में ही प्रारंभ  हो गया था। इसके लिए जो विनिवेश मंत्रालय बनाया गया था उसका नाम अब बदलकर निवेश एवं सार्वजनिक संपदा प्रबंधन विभाग किया जा रहा है। सार्वजनिक संपदा का प्रबंधन कैसे होगा यह वित्तमंत्री ने बिना लाग-लपेट स्पष्ट कर दिया है। वे कहते हैं कि सरकार सार्वजनिक उद्यमों को प्रोत्साहित करेगी कि वे अपनी संपदाएं यथा जमीन, मशीन इत्यादि बेच दें और उससे जो पैसा मिले उसे नई योजनाओं में लगाएं। नीति आयोग ऐसे सार्वजनिक उद्यमों की सूची बनाएगा। हम पुराने अनुभव से जानते हैं कि विनिवेश से जो राशि प्राप्त हुई उससे कोई नई परिसंपत्तियां खड़ी नहीं की गईं। बल्कि सरकारी अमले के वेतन भत्तों में ही अरबों-खरबों की राशि चली गई। अब सिर्फ नाम बदल देने से ही कुछ नया हो जाएगा इस पर कौन विश्वास करेगा?

वित्तमंत्री ने ग्रामीण क्षेत्र के विकास पर जोर देते हुए एक ऐसी घोषणा की है जिस पर सहसा विश्वास करने का मन नहीं होता। वे चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के मुकाबले ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं को लगभग तीन लाख करोड़ की राशि आबंटित करने जा रहे हैं। इससे हरेक ग्राम पंचायत को औसतन अस्सी लाख रुपया और प्रत्येक नगरीय निकाय को औसतन इक्कीस करोड़ रुपए की ग्रांट मिलेगी। इसके लिए पंचायती राज मंत्रालय राज्यों के साथ बातचीत कर नीति निर्धारित करेगा। एक तो हमें डर लगता है कि यह भी कहीं स्मार्ट सिटी जैसा झुनझुना तो नहीं है। फिर भी चूंकि चौदहवें वित्त आयोग का संदर्भ आया है तो इस घोषणा को खारिज नहीं किया जा सकता। यह राशि स्वायत्तशासी संस्थाओं को किश्तों में मिलेगी, विभिन्न मदों में मिलेगी, एकमुश्त मिलेगी, संस्था को सीधे मिलेगी या राज्य के माध्यम से- इन सब प्रश्नों के उत्तर अभी आना बाकी है। यहां सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी भी राज्य में पंचायतों और नगरीय निकायों की स्वायत्तता बराएनाम होती है। राज्य सरकार उनके कार्यक्षेत्र में निरंतर हस्तक्षेप करती है और अगर निकाय पर विपक्षी दल काबिज हो तब तो कहना ही क्या? अगर केन्द्र से पंचायतों को राशि सीधे और एकमुश्त मिले तब तो इस प्रावधान का कोई महत्व है वरना वही ढाक के तीन पात होंगे।

आखिरी बात कौशल विकास के बारे में। पिछले कुछ सालों में सरकार का इस मुद्दे पर काफी जोर रहा है। वित्त मंत्री ने दावा किया है कि अब तक छिहतर लाख युवाओं को कौशल उन्नयन प्रशिक्षण दिया जा चुका है।  इस कार्यक्रम की भावना सही है, लेकिन यह बात छिपी हुई नहीं है कि प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने, प्रशिक्षक तैयार करने और प्रशिक्षण देने के नाम पर ऐसी अनेक संस्थाएं खड़ी हो गई हैं जो सच्चे-झूठे आंकड़े पेश कर इस कार्यक्रम में सेंध लगा रही हैं।  इन पर कैसे रोक लगाई जाए यह भी वित्तमंत्री को विचार करना होगा। (समाप्त)

देशबन्धु में 04 मार्च 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 2 March 2016

बजट क्या कहता है-1



देश का बजट हो या प्रदेश का, उस पर अमूमन तीन तरफ से प्रतिक्रियाएं आती हैं। पहली सत्तापक्ष से, दूसरी प्रतिपक्ष से और तीसरी आम जनता से। सत्तापक्ष का यह पुनीत कर्तव्य होता है कि वह अपने वित्तमंत्री द्वारा लाए गए बजट की सराहना करे और उसमें जितनी संभव है अतिशयोक्ति भर दे। इसी तरह प्रतिपक्ष भी बजट की अतिरंजना की हद तक जाकर बजट आलोचना कर अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि बजट आने के पहले ही तय कर लिया जाता है कि क्या बोलना है। आम जनता का जहां तक सवाल है तो वह अधिकतर बजट की पेचीदगियों से अवगत नहीं होती और अपने हित-अहित के तात्कालिक मुद्दे देख कर राय व्यक्त कर देती है। आप पूछेंगे कि अर्थशास्त्रियों का रोल इस समय क्या होता है तो वे भी मोटे तौर पर उपरोक्त तीनों श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं। याने कुछ सत्तापक्ष से जुड़े होते हैं, कुछ प्रतिपक्ष से और अधिकतर विषय की गहराई में जाने का कष्ट ही नहीं करते।

मैं हर साल यह देखकर हैरान होता हूं कि हमारे पत्रकार वे चाहे टीवी के हों, चाहे अखबारों के, नेताओं के पास बजट पर प्रतिक्रिया लेने जाते ही क्यों हैं। क्या उन्हें पता नहीं होता कि नेताजी क्या कहेंगे? एक तरह से यह हमारी बिरादरी के सामूहिक आलस्य का बढिय़ा उदाहरण है। इस कारण टीवी पर समय और अखबार में स्थान की जो बर्बादी होती है उस पर कोई नहीं सोचता। अभी तीन दिन के अंतराल में देश का रेल बजट और फिर वार्षिक बजट संसद में पेश किए गए। इन पर अधिकतर प्रतिक्रियाएं हल्के-फुल्के ढंग से ही आईं। आर्थिक मामलों के जो विशेषज्ञ हैं उनके साथ पर्याप्त चर्चा करके ही बजट के प्रभावों को समझा जा सकता है। यह प्रयत्न बहुत कम लोग करते हैं। हमारी एक बड़ी कमी यह भी है कि हिन्दी में इस विषय पर गंभीर अध्ययन करने वाले विद्वान गिने-चुने ही हैं।

इन वर्गों के अलावा उद्योग और व्यापार जगत में अर्थनीति का जो विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञ अवश्य हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे सरकार के खिलाफ कभी भी खुलकर नहीं बोलते। बजट चाहे चिदंबरम पेश करें, चाहे जेटली- उनसे आप तारीफ के अलावा कुछ नहीं सुनेंगे। इस सबके मुकाबले शेयर मार्केट में बजट पेश होने के तुरंत बाद जो उतार-चढ़ाव होता है वह किसी हद तक बजट के परिणामों का संकेत दे देता है। यद्यपि उसे भी पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता। दरअसल, सामान्य तौर पर जनता इन्कम टैक्स की छूट तथा कुछ अन्य वस्तुओं के महंगे या सस्ते होने के आधार पर बजट का आकलन करती है। इस साल अगर आयकर में छूट की सीमा बढ़ाई गई होती तो जनता एकदम खुश हो जाती। ऐसा न होकर सेवाकर में और आधा प्रतिशत की वृद्धि हुई तो जनता दुखी हो गई। कार की कीमतें बढ़ गईं तो वह भी चिंता का कारण बन गया। उनके लिए भी जिन्हें हाल-फिलहाल कार नहीं खरीदना है।

यह तथ्य संभवत: स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि बजट भाषण के दो हिस्से होते हैं। भाग-ब या भाग-दो में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर की दरों में छूट या बढ़ोतरी के ब्यौरे होते हैं। जबकि भाग-अ या पहले हिस्से में वित्तमंत्री देश की भावी अर्थनीति का खुलासा करते हैं और इसे जाने बिना बजट को नहीं समझा जा सकता। अब जैसे वर्ष 16-17 के बजट में प्रचारित किया गया है कि यह किसानों का और ग्रामीण भारत का बजट है। हमें यह बात अच्छी लगना चाहिए कि सरकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शा रही है। लेकिन प्रश्न उठता है कि यह सिर्फ आश्वासन के स्तर पर है या ठोस कदम उठाए जाएंगे और इसके सुपरिणाम कब सामने आएंगे।  प्रधानमंत्री ने रविवार को बरेली की सभा में जो कहा वह बात वित्तमंत्री ने बजट में दोहराई कि अगले पांच वर्षों में किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी। सुनकर अच्छा लगा।

अब हम वित्तमंत्री से जानना चाहेंगे कि वर्तमान में किसान की औसत आय कितनी है और पांच साल बाद याने 2022 में बढ़कर वह कितनी हो जाएगी। इन पांच सालों में महंगाई और मुद्रा स्फीति की दर क्या होगी। याने दूसरे शब्दों में अगर आज आमदनी एक हजार है और पांच साल बाद दो हजार और इस बीच बाजार में वस्तुएं एवं सेवाएं भी उतनी ही महंगी हो गईं तो फिर हासिल क्या आएगा? हम देख रहे हैं कि देश में शिक्षा और स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण हो रहा है। आज गांव के किसान या खेतिहर मजदूर का बेटा बिना फीस वाले सरकारी स्कूल में जाता है। वहां उसे मध्याह्न भोजन भी मिलता है। युक्तियुक्तकरण के नाम पर सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं। पांच साल बाद ग्रामीण को अगर अपने बच्चे को निजी स्कूलों में भेजना पड़ा या परिवार का इलाज निजी अस्पताल में करवाना पड़ा तो उसकी कथित अतिरिक्त आमदनी तो वहीं खत्म हो जाएगी?

श्री जेटली ने दावा किया है कि एनडीए सरकार ने इस साल मनरेगा में सर्वाधिक प्रावधान किया गया है, अड़तीस हजार करोड़ का। अच्छी बात है किन्तु यूपीए में इससे अधिक प्रावधान इकतालीस हजार करोड़ का किया गया था। पिछली सरकार पर आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होंने जितना प्रावधान किया उतना खर्च नहीं किया।  लेकिन फिर इस बात की क्या गारंटी है कि आप जो प्रावधान कर रहे हैं उसे पूरा खर्च कर पाएंगे। अभी तो हम छत्तीसगढ़ में देख रहे हैं कि मनरेगा के पिछले कामों का कई करोड़ का भुगतान अभी तक नहीं हुआ है क्योंकि केन्द्र से राशि जारी नहीं हुई। फिर मनरेगा में जो भ्रष्टाचार है उस पर रोक लगाने का कौन सा मंत्र आपके पास है?  आज भी जे
सीबी मशीन से काम होता है और फर्जी मस्टररोल से भुगतान। इसे अगर नहीं रोका तो ग्रामीण जनता की आमदनी क्या सचमुच बढ़ जाएगी?

भारत उन देशों में से है जिन्होंने सामाजिक कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के सहस्राब्दि लक्ष्यों को लागू करने के लिए संकल्प व्यक्त किया था। पिछले साल उसका स्थान टिकाऊ विकास लक्ष्यों ने ले लिया है, उसमें भी सरकार की सहमति है। इसके तहत शिक्षा और स्वास्थ्य इन दो क्षेत्रों में हमें सकल घरेलू आय का कम से कम छह प्रतिशत एवं तीन प्रतिशत खर्च करना चाहिए। यूपीए-1 में इस बारे में सरकार कुछ उत्साहित थी, लेकिन नवपूंजीवादी दौर में इस मोर्चे पर हमारी प्रतिबद्धता दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है।  यूपीए-2 में भी यही हुआ और वर्तमान सरकार में भी। इसलिए इस बजट में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यस्था के प्रावधानों को लेकर चाहे जितनी चर्चा हो रही हो, सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर शायद ही किसी टीकाकार ने चर्चा की हो। स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में तो खासकर यही समझ आता है कि सरकार ने बीमा कंपनियों और उसके माध्यम से निजी अस्पतालों के लिए राजमार्ग खोल दिया है।

केन्द्रीय बजट का एक अहम् बिन्दु रक्षा बजट होता है। उस पर भी इस बार कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है। रक्षा बजट के लिए आबंटन में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। यहां तक तो ठीक है लेकिन यह ध्यातव्य है कि उस बिना बढ़े बजट में से ही एक बड़ा हिस्सा समान पद समान वेतन (ओआरओपी) के लिए चला जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि रक्षा क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिए जो योजनाएं बनाई गई थीं वे अधर में लटक जाएंगी। इसका कुल मिलाकर क्या परिणाम निकलेगा यह तो रक्षा विशेषज्ञ ही बतला पाएंगे। प्रस्तुत बजट के बारे में एक-दो बातें और, जो तर्कसंगत प्रतीत नहीं होतीं। एक तो एक तरफ आप विदेशों में पारित जमा धन के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, कड़े कानून बनाते हैं, दूसरी तरफ देश में जिनके पास कालाधन है उनसे पैतालीस प्रतिशत कर और पैनाल्टी लेकर उन्हें काले को सफेद में लाने का सरल अवसर दे रहे हैं। यद्यपि इसकी सफलता हमें संदिग्ध प्रतीत होती है। दूसरे, भविष्यनिधि यानी पीएफ पर टैक्स लगाने की सलाह वित्तमंत्री को किसने दी और उन्होंने कैसे मान ली? यह बात तो बिल्कुल भी समझ नहीं आती। इस एक बिन्दु से ही यह शंका बलवती होती है कि वर्तमान सरकार को कारपोरेट भारत के हितों की जितनी चिंता है आम जनता की नहीं।
 (कल दूसरी और अंतिम किश्त)


देशबन्धु में 03 मार्च 2016 को प्रकाशित