Thursday 26 January 2017

तिरुवनंतपुरम : कुछ यात्रा चित्र




 एक समय था जब मनुष्य ने मिट्टी को पकाकर ईंट और खपरैल बनाना नहीं सीखा था। इनका आविष्कार लगभग पन्द्रह सौ -सत्रह सौ साल पहले हुआ होगा। छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर सिरपुर का प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर कोई पन्द्रह सौ साल पुराना है जो धूप में पकाई गई ईंटों से बना है। क्या उस दौर में भी पर्यावरण की चिंता करने वाले कोई लोग थे? जब मिट्टी, बांस और ताड़पत्र आदि से मकान बनते थे तब ईंट और खपरैल के भवन निर्माण का प्रयोग एक नयी बात ही थी। क्या उस समय के लोगों को भी चिंता हुई होगी कि इस नई सामग्री के प्रयोग से प्राकृतिक सुंदरता नष्ट हो रही है या पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है? यह सवाल पिछले सप्ताह केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम  के प्रवास के दौरान अनायास ही मेरे मन में उठा। मुझे फिर सुप्रसिद्ध लेखिका आयन रैंड के उपन्यास ‘‘द फाउंटेनहैड’’ का भी ध्यान आया। इस कथा का नायक एक वास्तुशिल्पी है जो भवन निर्माण में सीमेंट, स्टील और कांच का भरपूर उपयोग करता है। उसका तर्क है कि आखिरकार इन सामग्रियों का आविष्कार इसीलिए तो हुआ है कि इनका उपयोग किया जाए। दूसरे शब्दों में उसने आवश्यकता आविष्कार की जननी है को ही रेखांकित किया।

दरअसल आज से दस साल पहले मैंने जिस त्रिवेन्द्रम अथवा तिरुवनंतपुरम को देखा था और अभी जो देखा उसमें जमीन-आसमान का फर्क था। जो हर स्थिति से समझौता कर लेते हैं उन्हें इससे कोई खास परेशानी नहीं होती। समय बदल गया है, सब कुछ पहले जैसा थोड़े ही रहेगा, कहकर अपने मन को दिलासा दे सकते हैं; किन्तु समय बदला है तो स्थितियां बेहतर होना चाहिए, तब तो प्रगति का कोई अर्थ है! दक्षिण भारत के समुद्र तट पर बसे इस नगर की संरचना अपने आपमें कभी बहुत खूबसूरत थी। पश्चिम में अरब सागर और चारों दिशाओं में बेहद घनी हरियाली, नारियल और सुपारी के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष, नगर की ऊंची-नीची सडक़ें और राजधानी होने के बावजूद पुरसुकून जीवन शैली। न  ज्यादा शोर, न कोई हड़बड़ी, शहर को पांच किलोमीटर में उत्तर से दक्षिण  नाप लीजिए, पूर्व से पश्चिम भी लगभग उतना ही विस्तार। मेरे देखे में दक्षिण के ऐसे दो शहर थे- मंगलोर और त्रिवेन्द्रम, जहां पेड़ों की छाया घरों को ढांक लेती थी, नगर के ऊपर मानो पहले हरा आकाश होता था,  नीला उसके ऊपर।

यह पुराना दृश्य तेजी के साथ बदल रहा है। ईंट और कवेलू से बने पुराने एक-दो मंजिला घर टूट रहे हैं, उनकी जगह बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं। मंगलोरी कवेलू की ढलवॉं छत बरसाती पानी को रुकने नहीं देती थी, घर के भीतर का तापमान भी उससे नियंत्रित रहता था, अब एसी के बिना काम नहीं चलता। हरे वृक्ष के स्थान पर कांक्रीट के वृक्ष खड़े हो रहे हैं। कुछेक इलाकों में तो अब हरियाली बिल्कुल भी नहीं है। स्वाभाविक है कि तापमान अब झुलसाने वाला हो गया है। फिर वाहनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है, उस पर किसी का वश नहीं है और न आज के सभ्य समाज में उसे रोकने की कोई इच्छा दिखाई देती है। इससे वायु प्रदूषण होना ही था और वह हो रहा है। यातायात को सुचारु बनाने के लिए कुछ फ्लाईओवर बन चुके हैं और कुछ नए बनाने की तैयारी चल रही है। शहर के भीतरी हिस्सों में तो सडक़ों के विस्तार की बहुत गुंजाइश नहीं है, लेकिन बाहरी हिस्से में कुछ सडक़ें फोरलेन की जा चुकी हैं।

तिरुवनंतपुरम इस तरह से भले ही देश के अन्य प्रमुख नगरों से होड़ ले रहा है, वह अभी भी कई  मायनों में एक प्रादेशिक नगर है तथा केरल की जो समतावादी सामाजिक चेतना है वह आज भी बरकरार है। कुछ सप्ताह पहले एक राष्ट्रीय कार्यशाला में भाग लेने के लिए मैं वहां गया था। विधानसभा अध्यक्ष को उसका उद्घाटन करना था। वे अकेले अपने सरकारी वाहन में आए, उनके साथ कोई तामझाम नहीं था, न पायलट कार, न फॉलो गार्ड और न सायरन। वे इतने चुपचाप आए कि पता ही नहीं चला कि कोई वीआईपी आया है। पिछले सप्ताह हम कुछ साथी अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए गए। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन मुख्य अतिथि थे। वे नियत समय पर आए, उनके साथ सिर्फ एक गाड़ी थी और कोई लाव-लश्कर नहीं। इस सादगी की तुलना केरल के अलावा  अन्य किस राज्य से की जा सकती है?

तिरुवनंतपुरम  में पर्यटकों के लिए दो मुख्य आकर्षक हैं- पद्मनाभस्वामी मंदिर और कोवालम बीच। मैं दोनों जगह नहीं गया। कई वर्ष पूर्व जब मंदिर देखने गया तब वहां प्रवेश के लिए वेशभूषा का जो प्रतिबंध है उस कारण मैं बाहर ही रुक गया था।  फिर दुबारा जाने का मन ही नहीं हुआ। व्यवसायीकरण के चलते कोवालम बीच की जो दुर्गति हुई है मैं पहले देख चुका था, उसके चलते वहां दुबारा जाने का कोई आकर्षण नहीं था। जो साथी गए उन्हें भी कोई आनंद नहीं आया। समुद्रतट की एक लंबी पट्टी बड़े होटलों को दे दी गई है, जनसामान्य के लिए जो थोड़ी जगह बची है वह पथरीली है, रेत वहां लगभग नहीं है और चारों तरफ बाजार की चिल्ल-पों है। इसके बजाय विमानतल के निकट षण्मुगम बीच की तरफ लोगों का आकर्षण बढ़ा है। यहां अभी भी मछुआरों की बस्ती है। रेत में और किनारे पर सैकड़ों नावें बंधी दिखाई देती हैं। चूंकि विमानतल और रक्षा-प्रतिष्ठान निकट हैं इसलिए यह समुद्र तट बचा रहेगा, ऐसी उम्मीद बनती है।

केरल की राजधानी में कुछ अन्य आकर्षण भी हैं- जैसे कुछ पुराने महल और कुछ अन्य मंदिर इत्यादि। यदि समय हो तो इन्हें देखना चाहिए। एक प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत को जानने का मौका मिलता है। शहर में मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों की संख्या लगभग बराबर होगी। मंदिर शायद कुछ ज्यादा हों, लेकिन मंदिर के बाजू में मस्जिद अथवा गिरजाघर एक साथ दिख जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। केरल में व्यंजनों की जो विविधता है उससे हम सामान्य तौर पर परिचित नहीं हैं। दोसा, इडली, उत्थपम पर आकर हमारी लिस्ट समाप्त हो जाती है, लेकिन केरल में अवियल, अप्पम, इडिअप्पम आदि व्यंजन भी प्रचलित हैं। इडिअप्पम एक तरह की सेवई है। अप्पम दोसे से कुछ मिलता-जुलता है। इन्हें सामान्यत: अवियल के साथ खाते हैं, जो नारियल के दूध में पकाई गई सब्जी होती है। जिन्हें सामिष व्यंजनों में रुचि है उनके लिए भी कोई कमी नहीं है, लेकिन करी मीन केरल का विशिष्ट लोकप्रिय व्यंजन है। कुछ समय पूर्व प्रदेश में मद्यनिषेध हो गया था लेकिन पूरी तरह नहीं। अब रेस्त्रां या हर किसी होटल में बैठकर सुरापान की सुविधा नहीं है, परन्तु दुकानें खुली हुई हैं। आप बोतल खरीदकर ले आइए और अपने घर या कमरे में बैठकर पी लीजिए। पांच सितारा होटलों को बार के लाइसेंस मिले हुए हैं।

मैं दो व्यक्तिगत संस्मरणों के साथ इस वृत्तांत को समाप्त करना चाहूंगा। एक दिन मैं सभास्थल से ऑटो लेकर मसालों की दुकान की तलाश में निकल गया। लौटते समय होटल कहां, किस दिशा में, कितनी दूर है यह किसी से पूछा तो मालूम पड़ा पास है, पैदल जा सकते हैं। एक जगह फिर रुककर पूछने की आवश्यकता पड़ी तो एक सज्जन ने रास्ता बता दिया। मैं आगे चल पड़ा, दो मिनट बाद वे पीछे से अपनी बाइक लेकर आए, साथ बैठने का इशारा किया और अपनी बाइक पर मुझे होटल के दरवाजे तक छोड़ गए। ऐसा दुर्लभ सौजन्य।

दूसरा प्रसंग इसके विपरीत। विमान तल आने के लिए टैक्सी बुक की। टैक्सी आई। बढिय़ा चमचमाती गाड़ी। ड्राइवर ने अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही डिक्की खोल दी। मैंने सूटकेस रखा और डिक्की बंद की। एयरपोर्ट पर उतरा, उसने फिर अपनी सीट से हिले बिना डिक्की को खोला। मैंने पूछा कि आप सवारी की मदद नहीं करते सामान रखने उतारने में। उसका उत्तर बढिय़ा था- इसका एक्सट्रा पैसा दोगे क्या? मैंने सूटकेस उतारा और सोचा कि इस बंदे की ट्रेनिंग केरल में नहीं, कहीं और हुई होगी।

देशबंधु में 26 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

No comments:

Post a Comment