Wednesday 12 July 2017

जीएसटी : परेशानियों का अंबार




1 जुलाई 2017 से हर कीमत पर जीएसटी लागू करने के फैसले ने सरकार के सामने परेशानियों का अंबार लगा दिया है। अरुण जेटली और उनके अधिकारी अपने फैसले पर खुद की पीठ लाख थपथपा लें, अंतत: इन परेशानियों को दूर करने की जिम्मेदारी उनकी ही है। सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि नई कर व्यवस्था से व्यापारियों और ग्राहकों को क्या नफा-नुकसान हो रहा है। प्रश्न यह भी है कि इस व्यवस्था से जो लाभ सरकार उठाना चाहती है, वह उसे एक निश्चित समयावधि में मिल पाएगा या नहीं और यदि व्यवस्था ठीक करने में अपेक्षा से अधिक विलंब हुआ तो उसके प्रतिकूल प्रभाव क्या होंगे? अभी जो खबरें आ रही हैं वे सबको भ्रम में डाल रही है.  आम जनता तो यह समझने में बिल्कुल असमर्थ है कि जीएसटी को लागू ही क्यों किया हैजिस व्यापारी वर्ग ने नरेन्द्र मोदी पर विश्वास करते हुए भाजपा को प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने का मौका दिया थावह अपने को छला गया महसूस कर रहा है। उसे लगने लगा है कि नरेन्द्र मोदी वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं और इस फेर में उन्होंने भाजपा के परंपरागत समर्थकों, सहयोगियों और संरक्षकों के हितों की अनदेखी कर दी है।
लंदन से प्रकाशित  इकानॉमिस्ट विश्व की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाती है। यह पत्रिका पूंजीवादी आर्थिक नीति और राजनीति का समर्थन करती है। इसे नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से बहुत उम्मीदें थीं कि भारत की अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। नरसिंह राव-मनमोहन सिंह के कार्यकाल में तथाकथित आर्थिक सुधारों का पहला चरण पूरा हुआ था। द इकानॉमिस्ट जिस विचार समूह से ताल्लुक रखती है उसे मोदी जी के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण लागू होने की पूरी-पूरी उम्मीद थी।इसमें शक नहीं कि रेलवे सेवाओं का निजीकरण, रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रवेश, एयर इंडिया को कंगाल बनाकर बेचने की तैयारी कुछ ऐसे ही कदम रहे हैं। लेकिन यही पत्रिका 24 जून के अपने अंक में मुख पृष्ठ पर नरेन्द्र मोदी का कार्टून छापते हुए शीर्षक देती है- मोदीज़ इंडिया :  इल्यूज़न ऑफ रिफॉर्म अर्थात मोदी का भारतसुधारों की मृगमरीचिका । पत्रिका के अग्रलेख का भी शीर्षक है कि मोदी वैसे सुधारवादी नहीं हैं जैसे दिखाई देते हैं।
मैं इस पत्रिका को इसलिए उद्धृत कर रहा हूं कि कारपोरेट विश्व में इसकी टिप्पणियों को गंभीरता के साथ लिया जाता है। द इकॉनामिस्ट के इस अंक में भारत के वर्तमान परिदृश्य पर तीन लेख हैं। एक लेख में कहा गया है कि जीएसटी का स्वागत है, किन्तु यह अनावश्यक रूप से जटिल और लालफीताशाही से ग्रस्त है जिसके कारण इसकी उपादेयता बहुत घट गई है। पत्रिका यह भी कहती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भले ही जोरदार प्रचार के साथ बहुत सी योजनाएं प्रारंभ कर दी हों, लेकिन इनमें से अनेक तो पहले से चली आ रही थीं। जीएसटी का प्रस्ताव भी पुराना था। पत्रिका नोट करती है कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जिस व्यवस्थित रूप में कार्य होना चाहिए उसे नरेन्द्र मोदी करने में समर्थ प्रतीत नहीं होते। जीएसटी की चर्चा करते हुए द इकानॉमिस्ट का कहना है कि अब पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा फार्म भरना पड़ेंगे। इसके अलावा जीएसटी वाले अन्य देशों में जहां टैक्स की सिर्फ एक दर है वहां भारत में शून्य से लेकर अठ्ठाइस तक दरें तय की गई हैं। इसके चलते सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जो दो प्रतिशत की वृद्धि अनुमानित की गई थी वह अब शायद एक प्रतिशत भी न बढ़ पाए।
भारत के पूर्व वित्तमंत्री, भाजपा के वरिष्ठ नेता व मार्गदर्शक मंडल के सदस्य यशवंत सिन्हा ने पिछले दिनों जीएसटी पर दिए एक साक्षात्कार में जो कहा है वह भी सरकार की आशा-अपेक्षा के विपरीत है। यशवंत सिन्हा कहते हैं कि जीएसटी की अवधारणा तो उनके समय की है, लेकिन इसे जिस रूप में लागू किया गया है वह अपने मूलरूप से एकदम भिन्न है और इसमें बहुत खामियां हैं।श्री सिन्हा बतलाते हैं कि एक नीतिगत निर्णय के तहत उन्होंने सेंट्रल एक्साइज की ढेर सारी दरों को घटाकर मात्र तीन दरों पर ला दिया था। उद्देश्य यह था कि जीएसटी लागू होने के साथ तीन दरें भी समाप्त होकर मात्र एक दर रह जाएगी, लेकिन हुआ इसके उल्टा है। तीन की बजाय अब छह दरें हो गई हैं तथा सर्विस टैक्स जिसकी सिर्फ एक दर थी, वह अनेक दरों में बिखर गया है। सिन्हा तो यहां तक कहते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह का वित्त मंत्री के रूप में 1991 का बजट देश का सबसे बड़ा आर्थिक सुधार था, जबकि जीएसटी एक अप्रत्यक्ष कर सुधार से अधिक कुछ नहीं है।
प्रतीत होता है कि मोदी सरकार पर इन आलोचनाओं का कोई असर नहीं है। वित्तमंत्री ने इस बीच दो विचित्र वक्तव्य दिए हैं। एक में उन्होंने कहा कि जीएसटी बहुत आसानी से लागू हो गया, कि उसमें कोई कठिनाई देश में नहीं आई। शब्द अलग हो सकते हैं, भाव यही था। दूसरे में उन्होंने कहा कि टैक्स तो ग्राहक चुकाता है व्यापारी इसका विरोध क्यों कर रहे हैंजेटली साहब बहुत बड़े वकील हैं। उनके तर्कों का जवाब देना सामान्यत: मुश्किल होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि दो बड़े विभागों की जिम्मेदारी संभालते हुए, साथ-साथ प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में सरकार का दायित्व संभालने के कारण वे शायद थक जाते हैं और अपने तर्क तैयार करने के लिए उन्हें मानसिक अवकाश नहीं मिल पा रहा है। अन्यथा कौन नहीं जानता कि सरकार को जीएसटी लागू करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। उन्होंने व्यापारी वर्ग की आलोचना तो कर दी किन्तु इस हकीकत पर ध्यान नहीं दिया कि जटिल कर प्रणाली में व्यापारी को ग्राहक से टैक्स की राशि लेने, जमा करने और उसके रिटर्न आदि भरने में कितनी मुश्किलें पेश आ सकती हैं।
जो कारपोरेट व्यवसायी हैं उन्हें संभवत: जीएसटी से कोई परेशानी नहीं है। उनके पास साधन-सुविधाएं हैं कि टैक्स के मामले संभालने के लिए जितनी आवश्यकता हो उतने कर्मचारी नियुक्त कर लें, चार्टर्ड एकाउंटेंट और कंपनी सेक्रेटरियों की सेवाएं ले लें; कहीं कुछ कोर-कसर रह जाए और कानूनी कार्रवाई की नौबत आए तो उससे निपटने के लिए भी श्री जेटली जैसे बड़े वकीलों की सेवाएं उन्हें उपलब्ध हो सकती हैं। हमने देखा है कि आयकर विभाग के बड़े-बड़े छापे पड़ते हैं और बाद में सब बच जाते हैं। छोटे और मझोले व्यापारियों को ये सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। अभी इतना जरूर हुआ है कि अंतरराज्यीय नाके खत्म हो गए हैं, लेकिन फ्लांइग स्क्वॉड का भय तो पहले से अधिक बढ़ गया है। व्यापारी वर्ग गुहार लगा रहा है कि इंस्पेक्टर राज वापिस आ गया है। उन्हें डर लग रहा है कि छोटी सी गलती हो जाने पर भी गिरफ्तारी हो सकती है। उनका यह भय निराधार नहीं है। व्यवस्था पहले उसी पर प्रहार करती है जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है।
यह आम जनता की सिफत है कि तकलीफों के बीच भी वह मुस्कुराने के लिए अवसर ढूंढ लेती है। अभी एक चुटकुला चल रहा है कि बेटी को सुखी रख सके ऐसा दामाद चाहिए तो चार्टर्ड एकाउंटेंट ढूंढ लो, क्योंकि आने वाले दिनों में उसी का धंधा जोरों से चलने वाला है। इस चुटकुले में सच्चाई निहित है। अभी देश भर के जितने सीए हैं किसी को सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है। जीएसटी के प्रावधानों में ऐसे-ऐसे पेंच हैं कि सीए उनको समझने में परेशान हो रहे हैं। एक दूसरा चुटकुला भी आजकल में देखा। एक पत्रकार ने टिप्पणी की- काजू पर पांच प्रतिशत जीएसटी लेकिन बादाम पर बारह प्रतिशत। दोनों सूखे मेवे हैं फिर ऐसी विसंगति क्यों? दूसरे पत्रकार ने जवाब दिया- बादाम खाने से दिमाग तेज होता है यह हम बचपन से सुनते आए हैं। सरकार चाहती है कि हमारे लोगों का दिमाग तेज न हो, वे बुद्धू बने रहें इसलिए बादाम पर ज्यादा कर लगाया है।यह तो चुटकुलों की बात हुई, लेकिन ये चुटकुले हकीकत बयान करते हैं। 
30 जून और 1 जुलाई की मध्यरात्रि से जीएसटी लागू हुआलेकिन सरकार ने इस बीच क्या किया? 30 जून की शाम रासायनिक खाद पर जीएसटी की दर बारह प्रतिशत से घटाकर पांच प्रतिशत कर दी। उसे यह ख्याल नहीं आया कि कीटनाशक पर टैक्स की दर भी उसी तरह कम कर देते जबकि दोनों का अंतिम उपयोग एक ही है। दूसरा प्रकरण है मध्यरात्रि के बाद का। जीएसटी लागू होने के एक घंटे बाद मोबाइल फोन पर दस प्रतिशत अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी लगा दी गई। इसका कारण मुझे समझ नहीं आया। यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि टीवी, फ्रिज जैसी सामग्री पर टैक्स की दर बढ़ा दी गई, जबकि कार की कीमतें कम हो गईं। जिस देश में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने की आवश्यकता है, वहां निजी वाहन को प्रोत्साहन देना समझ नहीं आता। तब तो और भी नहीं जब कृषि उपयोगी ट्रैक्टर पर कार के मुकाबले ज्यादा कर लगे। इन सबसे जो मुश्किलें सरकार के सामने पेश आएंगी, देखना होगा कि सरकार उनसे कैसे निपटती है।
देशबंधु में 13 जुलाई 2017 को प्रकाशित 

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