Wednesday 27 September 2017

हिमाचल प्रदेश- अंतिम: स्वर्ग से वापस धरती पर


भारत पर हुकूमत करने आए अंग्रेजों ने वैसे अपनी पहली राजधानी कलकत्ता में बसाई थी, लेकिन इंग्लैंड, स्काटलैण्ड के ठंडे इलाकों से आए हुक्मरानों को यहां का मौसम रास नहीं आता था, खासकर गर्मियां बिताना दूभर हो जाता था। इसलिए 1880 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन की इच्छानुसार हिमालय की पहाड़ियों में स्थित शिमला में भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई गई और बड़े लाट साहब के लिए वायसरीगल लॉज का निर्माण किया गया। आजादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास का नाम मिल गया, लेकिन 1962 में जब डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस विशाल भवन का बेहतर उपयोग करने की बात सोची। राष्ट्रपति निवास इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज याने भारतीय उच्चतर अध्ययन संस्थान नामक नवस्थापित संस्था को सौंप दिया गया। शिमला में वायसरीगल लॉज, राष्ट्रपति निवास अथवा आईआईएएस इस नगर की सबसे उत्तम पहचान है और मुझ जैसों के लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र भी है।

यूरोप के जैकोबियन शिल्प में निर्मित तिमंजिला भवन का एक हिस्सा ही आम जनता के लिए खुला है। बाकी में संस्थान की नियमित गतिविधियां संचालित होती हैं। यहां देश से विभिन्न अनुशासनों के ख्यातिप्राप्त विद्वान फैलोशिप पर आते हैं और शांत सुरम्य वातावरण में बैठकर चिंतन, मनन, लेखन करते हैं। ग्राउंड फ्लोर पर तीन भव्य कक्ष जनता के लिए खुले हैं और उनसे भारत के दो सौ साल के इतिहास की एक मुकम्मल तस्वीर देखने मिल जाती है। पहले कक्ष में लाट साहब की ऊंची कुर्सी है जहां उनके सामने हाजिरी बजाने गुलाम देश के बड़े-बड़े लोग आते थे। अंग्रेजी राज में क्या-क्या हुआ, इसका एक परिचय यहां चित्रों और अन्य सामग्रियों से मिलता है। दूसरे कक्ष में स्वाधीनता संग्राम की झलक मिलती है। इस कक्ष में आकर पता चलता है कि हमारे महान स्वाधीनता सेनानियों ने आज़ादी के लिए कितने कष्ट उठाए और कितनी कुर्बानियां दीं। तीसरे कक्ष में स्वतंत्र भारत ने विगत सत्तर वर्षों में जो कुछ हासिल किया है उसके साक्ष्य प्रदर्शित हैं। हमें देखकर अच्छा लगा कि हबीब तनवीर का चित्र भी इस कक्ष में प्रदर्शित था। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले तक गोपालकृष्ण गांधी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष थे।
राष्ट्रपति निवास में एक प्रशस्त उद्यान है। इसके भीतर एक गुलाब वाटिका भी है, जिसमें कोई सौ किस्म के गुलाब थे। इसके बीचोंबीच मोइनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य करती युवती की प्रतिमा की लोहे से निर्मित एक कलात्मक अनुकृति है। यह अनुकृति रेल की पांत के दो टुकड़ों के सहारे खड़ी की गई है। वह इस बात का प्रतीक है कि मोइनजोदड़ो की खोज एक रेलवे इंजीनियर ने की थी। कलाकार सुबोध केरकर ने यह कृति बनाई है। उनका कहना है कि मोइनजोदड़ो एक ओर हमें भारत उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास से जोड़ता है; दूसरी ओर वह स्थान चूंकि अब सिंध और पाकिस्तान में चला गया है इसलिए बंटवारे की भी याद दिलाता है। इस बगीचे में एक वृक्ष है जिसे बाकायदा विरासत वृक्ष के रूप में नामांकित किया गया है। यह डेढ़ सौ वर्ष पुराना वृक्ष पीपल की प्रजाति का दुर्लभ यलो पॉप्लर है।
हमारे पास दिनभर का समय था। और कहां जाएं? पुराने मंदिर बहुत देख लिए थे। नए मंदिरों में कोई रुचि नहीं थी। चैल और कुफरी के नाम सुन रखे थे। चैल दूर था, सोचा कुफरी तक हो आते हैं। आना-जाना व्यर्थ हुआ, लेकिन कुछ नई बातें समझ आईं। कुफरी में एक जगह रुकने के बाद ऊपर डेढ़ किलोमीटर घोड़े से जाना होता है। ऊपर कोई मंदिर है और कुछ एडवेंचर स्पोर्ट वगैरह भी होते हैं। सैकड़ों घोड़े और साइस पर्यटकों को ऊपर ले जाने के लिए तैयार खड़े थे। बातचीत में मालूम हुआ कि घोड़े और उनके मालिक तो शिमला के नीचे के गांवों के हैं, लेकिन साइसों में बड़ी संख्या नेपालियों की है और हाल के बरसों में कश्मीरी साइस भी यहां रोजी-रोटी के लिए आने लगे हैं। शिमला और कुफरी के बीच कहीं-कहीं तंबू लगाकर बैठे हिमाचल के पहाड़ी आदिवासी भी मिले। हर तंबू में एक याक तो था ही जिसकी सवारी का आनंद लिया जा सकता था। वे अपने हाथों बुने ऊनी वस्त्र भी बेच रहे थे।
तीन दिन पहले मनाली के हिडिंबा मंदिर में जैसलमेर के जिन युवा भाई-बहनों की टोली हमें मिली थी वह कुफरी में भी मिल गई। उन्होंने ही हमें देखा। नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ। हम गाड़ी में बैठकर चलने ही वाले थे कि उनमें से एक युवक ने आग्रह किया कि उनके साथ एक कप चाय पीकर जाएं। इस प्यार भरे आग्रह को कैसे टालते! पास की एक दूकान में चाय पीने बैठे, कुछ देर उन लोगों के साथ गपशप हुई, वे पढ़ाई पूरी कर राज्य सेवा में नौकरी पा चुके हैं,लेकिन यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं। थोड़ी देर के बाद हम शिमला की ओर लौट पड़े। अब हमें सिर्फ एक स्थान देखना बाकी था और वह था शिमला का माल रोड। अंग्रेजों के समय में विकसित हर हिल स्टेशन पर एक माल रोड होता था जहां सिर्फ पैदल चलने की ही अनुमति होती है। नगर की व्यवसायिक गतिविधियों का यह प्रमुख केन्द्र भी होता है। आजकल शहरों में जो माल बन रहे हैं संभव है कि उसकी व्युत्पत्ति माल रोड से ही हुई हो।
शिमला का माल रोड काफी ऊंचाई पर है और इसकी एक विशेषता यह है कि यहां पहुंचने के लिए लिफ्ट उपलब्ध है। बीस-पच्चीस बरस पहले जब शायद वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री थे तब लिफ्ट लगाई गई थी। नीचे एक स्थान पर सेंट्रल पार्किंग की व्यवस्था है। इसमें चार-पांच सौ कारें खड़ी हो सकती हैं। आधा फर्लांग चलकर लिफ्ट तक आइए। दो लिफ्टें हैं जो ऊपर एक स्तर तक जाती हैं वहां फिर सौ कदम चलकर दूसरी लिफ्ट से और ऊपर जाना होता है जो माल रोड पर खुलती है। एक बार का भाड़ा दस रुपया, लेकिन बुजुर्गों को तीस प्रतिशत की छूट है। मुझे यह देखकर कौतूहल हुआ कि स्थानीय निवासी घर से चक्के वाले सूटकेस याने स्ट्राली लेकर आते हैं। बाजार में सौदा सुलुफ कर सूटकेस में भर लेते हैं। इससे सामान का बोझ ढोने की मेहनत काफी बच जाती होगी।
माल रोड पर दूकानें ही दूकानें हैं और भीड़-भाड़ का कहना ही क्या। बारिश होने लगे तो भीड़ में थोड़ी कमी होने लगती है। इस सड़क पर अंग्रेजों के समय का गेटी थिएटर है जिसमें अब एक संग्रहालय है। जहां बाजार खत्म होता है वहां रिज रोड है, जो और ऊंचाई पर है और जहां से शिमला का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। कुल मिलाकर चलहकदमी करने के लिए अच्छी जगह है। बशर्तें आप भीड़ से परेशान न हों। हम यहां एक ठीक-ठाक दिखने वाले रेस्तरां में खाना खाने गए तो यह जानना दिलचस्प लगा कि इस होटल में भी नीचे की सड़क तक आठ मंजिल की एक लिफ्ट लगी हुई है। मॉल रोड पर घूमते हुए ही जैसलमेर की युवा टोली हमें एक बार फिर मिली। हम चाय तो साथ-साथ पी ही चुके थे। उन्होंने हमें फास्ट फूड के लिए आमंत्रित किया जिसमें हमारी रुचि नहीं थी, लेकिन इनसे तीन-तीन बार मिलना वाकई एक दिलचस्प संयोग था। 
अगली सुबह हम दिल्ली के लिए निकल पड़े। फिर सेव और आलूबुखारे के बगीचे देखे। सड़क किनारे सजी फलों की दूकानें देखीं। पहाड़ी सड़कों के मोड़ धीरे-धीरे कम होते गए। ऊंचे-ऊंचे वृक्ष पीछे छूटते चले गए। हम जैसे पिछले दस दिन से किसी सम्मोहन में बंधे हुए थे। पिंजौर (चंडीगढ़) के कुछ पहले सीधी-सपाट सड़क मिलना शुरू हुई, चारों तरफ फैला मैदान सा दृश्य देखा और सम्मोहन एकबारगी टूटा। हम स्वर्ग से वापस धरती पर आ गए। पिंजौर के बाद पंचकुला बायपास से होते हुए दिल्ली की तरफ बढ़े। रास्ते में पानीपत मिला। याद आया कि यह ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्मस्थान है। उनकी स्मृति को नमन किया। शाम बीतते न बीतते दिल्ली पहुंच गए। मानसपटल पर इस बीच सहस्त्रों छबियां अंकित हुईं जिनमें से कुछ आपके साथ साझा कर लीं। (समाप्त)
देशबंधु में 28 सितम्बर 2017 को प्रकाशित 

Thursday 21 September 2017

हिमाचल प्रदेश- 6 : नग्गर में रोरिक एस्टेट


 हिमालय की गहन कंदराओं में एक से एक पहुंचे हुए, कई सौ वर्ष आयु वाले ऋषि मुनि तपस्या में लीन रहते हैं, ऐसा लोक विश्वास फीका भले पड़ गया हो, समाप्त नहीं हुआ है। अनेक विद्वानों व लेखकों ने ऐसे तपस्वियों से प्रत्यक्ष भेंट होने के संस्मरण भी लिखे हैं। इस विश्वास में जो अतिरंजना है उसे हटा दें तब भी इतना तो सत्य है कि सांसारिक मोह-माया त्याग कर जीवन संध्या बिताने के लिए हिमालय की शरण लेने की लंबी परंपरा अपने यहां विद्यमान रही है। बांग्ला के लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार प्रबोध कुमार सान्याल ने 'महाप्रस्थान के पथ पर' तथा 'देवतात्मा हिमालय', अपनी इन दो पुस्तकों में ऐसे सन्यासियों से भेंट-वार्तालाप के उल्लेख किए हैं। मुझे स्मरण नहीं कि 1936-37 में प्रकाशित महाप्रस्थान के पथ पर में लेखक ने निकोलाई रोरिक का किया है या नहीं, लेकिन जब वे हिमालय में परिभ्रमण कर रहे थे, तब यह ऋषितुल्य रूसी नागरिक मनाली के पास एक बहुत छोटे गांव में रहते हुए एकांतिक साधना में लीन था।
अपने होटल में आसपास के रमणीक स्थलों की पूछताछ करते हुए नग्गर नामक स्थान का नाम सुना तो लगा कि यह नाम तो पहले सुना हुआ है। क्यों, किस कारण से, दिमागी घोड़े दौड़ाए तो याद आया कि इसी नग्गर में तो सुप्रसिद्ध चित्रकार निकोलस रोरिक रहते थे, जो अपना देश रूस छोड़कर भारत में ही बस गए थे और जिन्होंने हिमालय पर सैकड़ों चित्र बनाए थे। मैं उन्हें ऋषितुल्य कह रहा हूं तो महज इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत को अपना घर बना लिया था, कि उनके बेटे स्वेतोस्लाव रोरिक भी अभिनेत्री देविका रानी से विवाह कर यहीं बस गए थे, कि उन्होंने हिमालय पर चित्रों की अनुपम श्रंृखला रची थी, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विश्व के देशों के बीच कला व संस्कृति के आदान-प्रदान व संरक्षण के द्वारा विश्वशांति स्थापित करने का संदेश दिया था। उनके प्रयत्नों से सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हेतु एक अंतरराष्ट्रीय संधि भी हुई, जिसे रोरिक पैक्ट के नाम से जाना गया। उल्लेखनीय है कि निकोलोई रोरिक की पत्नी इलीना या हैलेन की गहरी रुचि भारत अथवा एशिया की आध्यात्मिक परंपरा में थी। वे रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानंद से प्रेरित थे तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर व जवाहरलाल नेहरू उनके मित्र थे।
नग्गर में रोरिक एस्टेट को देखना एक दुर्लभ, प्रीतिकर व शिक्षाप्रद अनुभव था। वे सौ साल पूर्व जब यहां आकर बसे, मनाली और नग्गर छोटे गांव रहे होंगे। एस्टेट का क्षेत्रफल काफी बड़ा है, लेकिन उसमें अब अनेक तरह की गतिविधियां संचालित हो रही हैं। लोककलाओं का एक संग्रहालय है,  एक शिल्प प्रशिक्षण केंद्र भी शायद है, लेकिन सबसे बढ़कर आकर्षण का केंद्र है रोरिक निवास। यह काष्ठ निर्मित दुमंजिला भवन है। नीचे तीन कमरों में रोरिक द्वारा अंकित हिमालय की अनेक तस्वीरें प्रदर्शित हैं, ऊपर उनके शयन कक्ष आदि हैं। निवास स्थान से कुछ सीढ़ियां नीचे उतरकर नीले रंग के फूलों वाली क्यारियों के बीच स्वेतोस्लाव व देविका रानी का स्मृति कक्ष है, जिसमें उनके व परिवार के अनेक फोटोग्राफ हैं, देविका रानी के फिल्मी कैरियर को दर्शाते चित्र, पेस्टर आदि भी संजोए गए हैं। इस कक्ष के बाद कुछ और सीढ़ियां उतरकर निकोलाई रोरिक की समाधि है। इस पूरी संपदा का प्रबंध एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। रोरिक एस्टेट में ही हमें भुज से आए पर्यटकों का एक दल मिल गया। वे सब कच्छ के समुद्रतट से हिमाचल में ट्रैकिंग करने आए थे। दल के सभी सदस्य वकील थे, अधिकांश महिलाएं थीं और इनमें सबसे ज्येष्ठ ट्रैकर महोदय की आयु मात्र साठ वर्ष थी।
यहां नग्गर के बारे में जानकारी देना उचित होगा कि यह कुल्लू रियासत की पुरानी राजधानी है। नग्गर में इसलिए एक किला भी है। कोई भारी-भरकम संरचना नहीं, बस एक गढ़ी समझ लीजिए। यह एक संरक्षित स्मारक है और फिलहाल यहां हिमाचल पर्यटन द्वारा होटल व रेस्तोरां का संचालन किया जाता है। पत्थर से बनी इस गढ़ी की सबसे बड़ी खासियत दो ऊंचे-पूरे दरवाजे हैं। ये विशाल  द्वार देवदार के समूचे वृक्ष को काटकर बनाए गए हैं याने इनमें कही भी जोड़ नहीं हैं। इन्हें काटा-तराशा भी गया है सिर्फ कुल्हाड़ी से, अन्य किसी उपकरण का प्रयोग नहीं किया गया है। दोनों दरवाजे अनगढ़ स्वरूप में हैं, उन पर कोई नक्काशी आदि नहीं है। हां, भीतर जो झरोखे, खिड़कियां आदि हैं, उनमें कलाकारों को अपना हुनर दिखाने का मौका अवश्य मिला है। नग्गर में रोरिक एस्टेट व कैसल यही दो मुख्य दर्शनीय स्थल हैं, किंतु यहीं से एक रास्ता एक और लुभावनी जगह तक ले जाता है, जिसके बिना यह वर्णन अधूरा रहेगा।
नग्गर से लगभग ग्यारह किमी की दूरी पर एक जलप्रपात है जो नजदीकी गांव जाणा के नाम से ही प्रसिद्ध प्राप्त है। इस रास्ते पर सेव के बागीचे तो थे, गोभी के खेत भी देखने मिले। पहाड़ों में जहां कहीं भी समतल जगह मिली, वहां गोभी की खेती हो रही थी और शहर के बाजार तक ले जाने के लिए मिनी वाहन तैयार थे। अनुमान न था कि पहाड़ों पर गोभी की खेती देखने मिलेगी। मजे की बात थी कि खड्ड के पार भी खेत थे और रज्जु मार्ग याने रोपवे से ट्रॉली में भरकर गोभी व सेव इस तरफ लाए जा रहे थे। इस सड़क पर मिनी वैन ही चल सकती थीं। मार्ग की चौड़ाई इससे अधिक नहीं थी। बहरहाल, जाणा गांव से कोई डेढ़-दो किमी आगे बढ़कर हम जलप्रपात तक पहुंचे। गाड़ी रुकी नहीं कि एक अल्हड़ युवती पास आकर ड्राइवर को समझाने लगी- गाड़ी यहां मोड़कर ऐसे पार्किंग करो। फिर हमसे मुखातिब हुई- आप ऊपर जाकर वाटरफॉल देखिए। वहां से बहुत सुंदर दिखता है। मैं लड़का साथ कर देती हूं। आपको सब बता देगा। लौटकर यहीं खाना खाईए। चावल, राजमा, रोटी सब्जी सब बन जाएगा। एक सांस में वह इतना सब बोल गई। हम उसकी वाकपटुता पर विस्मित थे। उसे समझाया कि ऊपर नहीं जाएंगे, खाना भी नहीं खाएंगे, घूमकर आते हैं, चाय तुम्हारी दूकान पर ही पिएंगे।
जाणा में एक नहीं, दो जलप्रपात हैं। दोनों के बीच लगभग दो सौ मीटर का फासला होगा। यह स्थान लगभग सुनसान था। टूरिस्ट सीजन में यात्री आते होंगे। हम पगडंडी पर यूं ही घूमने निकल पड़े। पहले प्रपात पर उस अल्हड़ युवती का होटल था तो दूसरे के निकट भी एक होटल खुला हुआ था। जलप्रपात चित्ताकर्षक थे। ऊपर कोई सौ फीट से पानी गिर रहा था। संकरे चौरस भूभाग से रास्ता बनाते हुए नीचे फिर और छोटे जलप्रपात बन रहे थे। हमने थोड़ी देर प्रकृति की शोभा का आनंद लिया, चाय पी और वापिस नग्गर होते हुए मनाली की ओर चल पड़े।
हिमाचल यात्रा में मनाली के बाद हमारा आखिरी पड़ाव शिमला था। इस बार मनाली से कुल्लू तक का सफर राजमार्ग पर नहीं, बल्कि प्रीणी से नग्गर होकर चलने वाले मार्ग पर तय किया। यद्यपि सड़क प्रशस्त नहीं थी, लेकिन यातायात भी उतना सघन नहीं था। ट्रक तो नहीं के बराबर थे। करीब डेढ़ घंटे में कुल्लू पहुंच गए। उसके आगे मंडी। मंडी में व्यास नदी को अलविदा कहकर सुंदरनगर होते हुए शिमला की ओर बढ़े। जैसे-जैसे शिमला पास आते गया, ट्रैफिक का दबाव भी बढ़ते गया। शिमला पहुंचने के बाद हमें अपने होटल तक पहुंचने में एक घंटे से अधिक समय लग गया। गूगल मैप सड़कें तो ठीक दिखा रहा था, लेकिन दो-तीन बार वन वे ट्रैफिक के चलते रास्ता बदलना पड़ा। हिमाचल पर्यटन के होटल पीटरहाफ में ठहरना था, वहां तक गाड़ी ले जाना दुश्वार हो गया, क्योंकि उसी दिन उसी जगह प्रदेश भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक वहां प्रारंभ हुई थी। नेताओं और उनके पिछलग्गुओं की गाड़ियों के कारण कदम-कदम पर रुकना पड़ रहा था। होटल के भीतर भी इतनी भीड़ कि चैक-इन कर अपने कमरे तक पहुंचना मुश्किल।
होटल पीटरहाफ इसलिए कि कभी यहां इसी नाम के ब्रिटिश गवर्नर का निवास था। पुराना भवन आग में स्वाहा हो गया था। उसकी जगह उसी आकृति में नई इमारत तामीर की गई। डबल बैडरूम के बराबर का बाथरूम और बैडरूम ऐसा जिसमें चार पलंग लग जाएं। सभा-सम्मेलन के लिए बड़े-बड़े हॉल तो समझ आते हैं, लेकिन जो राजसी भवन जलकर खाक हो चुका था, उसे नए सिरे से, यथावत बनाने में मुझे कोई बुद्धिमानी प्रतीत नहीं हुई। खैर, हमें एक दिन और दो रातें काटना थीं, इस पर ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। हमें अच्छा यह लगा कि शिमला का सबसे प्रसिद्ध स्थान वायसरीगल लॉज, जिसमें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज स्थापित है, होटल के बिलकुल सामने थे। बारिश न हो तो टहलते हुए चले जाओ। मेरी राय में शिमला में अगर कोई जगह देखने योग्य है तो वह यही है।
 देशबंधु में 21 सितम्बर 2017 को प्रकाशित 

Wednesday 13 September 2017

हिमाचल प्रदेश-5 : होटलों का शहर : हिडिंबा का मंदिर

           
 कुल्लू से मनाली की चालीस किमी की दूरी सामान्यत: डेढ़ घंटे में तय होना चाहिए थी, लेकिन सामरिक महत्व के भी इस राजमार्ग को फोरलेन करने का काम जारी था, जिसके चलते दो घंटे से भी अधिक समय लग गया। इस दरम्यान सड़क और नदी किनारे के कुछ गांवों की थोक फल मंडियां देखने का मौका अनायास ही मिल गया। फल, विशेषकर सेब की, सैकड़ों दूकानें सजी हुई थीं। मनाली व आसपास के इलाकों से फल उत्पादक किसान छोटे मालवाहकों से अपनी फसल लेकर आ रहे थे, मंडियों  में नीलामी लग रही थी, और देश के दूरदराज क्षेत्रों से आए ट्रक चालक माल भरकर वापिस जाने की प्रतीक्षा में रुके हुए थे। इन बाज़ारों की सारी दूकानें अस्थायी थीं, बांस-बल्ली और तिरपाल के सहारे खड़ी की हुई। अभी मौसम है तो बाज़ार है, चहल-पहल है, दो माह बाद बर्फ गिरना शुरू होगी तो अगले कुछ माह तक की छुट्टी। कहना न होगा कि फल मंडियों की गहमागहमी के कारण भी यातायात में अपेक्षा से अधिक समय लग रहा था। रह-रहकर बारिश हो रही थी तो उसका भी असर पड़ना ही था।
मनाली की दूरी जब कोई दस-बारह किमी रह गई होगी, वहीं से होटलों व रिसोर्टों का लगभग अटूट सिलसिला प्रारंभ हो गया। एक से एक सुंदर नाम और हर तरह की सुविधा का वायदा करते उनके साइन बोर्ड। नगर की सीमा में प्रवेश किया तो चैन की सांस ली कि प्रतीक्षा समाप्त हुई, लेकिन कहां? हमारा होटल व्यास नदी के दूसरे किनारे पर प्रीणी गांव में था, जिसके लिए नगर के भीतर होटलों की कोई पांच किमी लंबी श्रृंखला पार करने के बाद पुल से दूसरी तरफ उतरे और यू-टर्न लेकर फिर होटलों के बोर्ड पढ़ते-पढ़ते अपने ठिकाने पर पहुंचे। सुबह से निकले हुए थे, खूब थक चुके थे, किंतु अपना होटल देखकर तबियत खुश हो गई। पहाड़ी के ऊपर सेव के बगीचे के बीच बसा छोटा सा होटल, जहां बालकनी से हिमालय की हिमटा पर्वत श्रृंखला के सुंदर दर्शन हो रहे थे। आसपास सेव के और बगीचे भी थे तथा निकट ही एक पहाड़ी झरना कलकल प्रवाहित हो रहा था। नदी भी सामने ही थी, लेकिन मकानों के पीछे दब जाने से दिखाई नहीं दे रही थी।
कुल्लू-मनाली की वैसे तो बहुत ख्याति है और कुल्लू का दशहरा तो विश्वप्रसिद्ध हो चुका है, किंतु यह स्थान उनके लिए मनमाफिक है जो शांतिपूर्वक अवकाश के पल बिताना चाहते हैं। मनाली ही क्यों, हिमालय से लेकर सतपुड़ा, और नीचे मलयगिरि तक के सारे हिल स्टेशन निसर्ग की ममत्व भरी गोद में विश्राम करने के लिए निमंत्रित करते हैं, लेकिन आज जो यहां आते हैं, उनके पास शायद इतना समय नहीं होता कि प्रकृति की पुकार सुन सकें। वे उपभोक्ता बनकर आते हैं और पैसा वसूल की संतुष्टि लेकर लौट जाते हैं।  शहर में बीचोंबीच क्लब हाउस नामक स्थान है। यहां एक तरह का स्थायी कार्निवाल या मेला लगा हुआ है। नहर में बोटिंग, भवन के भीतर अनेक तरह के खेल-तमाशों का इंतजाम जो सामान्यत: किसी भी फन पार्क में पाए जाते हैं। यह क्लब हाउस सैलानियों के बीच खासा लोकप्रिय है। अगर मौसम उपयुक्त हो तो पर्यटक रोहतांग दर्रे या उसके पहले सोलांग की वादी तक जाते हैं। इनको छोड़ दें तो नगर की परिधि में दो-तीन स्थल ही दर्शनीय हैं।
वशिष्ट मंदिर समुच्चय एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है। जैसा कि नाम से पता चलता है यहां वशिष्ठ ऋषि का मंदिर है, जिसके गर्भगृह में उनकी प्रतिमा स्थापित है। इसका एकमंजिला मुख्य भवन काष्ठ निर्मित है और उस पर सुंदर नक्काशी की गई है। बाजू में ही गरम पानी का सोता है, जिसे दीवारें खड़ी कर दो भागों में बांट दिया गया है। एक खंड पुरुषों और दूसरा महिलाओं के स्नान हेतु। मैं कल्पना कर रहा था कि बिना इस निर्माण के यह प्राकृतिक झरना मंदिर प्रांगण की शोभा कितनी बढ़ाता होगा, लेकिन यहां तो रेलमपेल मची थी। तेल-साबुन लेकर पर्यटक कुंड के भीतर एक छोटी दीवाल खड़ी कर बना दिए गए छोटे हिस्से में स्नान कर रहे थे और बाकी बड़े हिस्से में देह से देह टकराते स्नान करते हुए अपना जीवन सार्थक करने में लगे थे। खैर, वशिष्ठ मंदिर के बाहर कुछ सीढ़ियां चढ़कर एक राममंदिर है। यहां सामने एक नया मंदिर बन गया है जिसमें पूजा-पाठ होता है; प्राचीन पाषाण मंदिर पीछे दब गया है, जिसकी कोई देखभाल नहीं है। उसके दो तरफ मटमैला पानी भरा था, याने आप मंदिर को चारों तरफ से देख भी नहीं सकते। इस प्राचीन भवन की नक्काशी भी दर्शनीय है। तीसरा इसके ठीक नीचे एक शिवमंदिर है, जो किसी मढ़िया जैसे आकार का है। इस मंदिर समुच्चय तक आने के लिए एक संकरी सड़़क है, जिस पर एक साथ दो वाहन नहीं गुजर पाते।
मनाली में सबसे सुंदर, सबसे आकर्षक, सबसे रमणीय स्थान है- वन विहार नेशनल पार्क और उसकी परिधि पर स्थित हिडिंबा देवी मंदिर। चारों तरफ देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से घिरा काष्ठ निर्मित भवन। हिडिंबा कुल्लू रियासत की अधिष्ठात्री देवी हैं और दशहरे के समय मनाली के मंदिर से बाहर निकल उनकी यात्रा कुल्लू तक जाती है। सबसे पहले उनकी पूजा, बाद में अन्य अनुष्ठान। भीम और हिंडिबा के बेटे प्रतापी घटोत्कच का मंदिर भी कुछ सौ मीटर की दूरी पर है। इस स्थान पर प्रकृति के सान्निध्य में आप घंटों बिता सकते हैं। उस दोपहर मंदिर में दर्शनार्थियों या पर्यटकों की संख्या काफी थी, लेकिन कहीं कोई हल्ला-गुल्ला नहीं, सब नैसर्गिक सुषमा का आनंद लेने में मगन थे। दर्शन के लिए पच्चीस-पचास जनों की कतार लगी थी, हम बाहर बैंच पर इत्मीनान से बैठे थे कि भीड़ कम होगी, तब भीतर जाएंगे। इतने में फुग्गे लेकर एक छोटा बालक आया, हमारे बाजू में एक परिवार बैठा था, उनका शिशु फुग्गे के लिए ललक रहा था। बेचने वाला बालक बार-बार उसके हाथ में गुब्बारा थमाता और शिशु की मां हर बार उसे लौटा देती। 
मुझे कौतूहल हुआ। बालक से बातचीत करने लगा। पंजाब के किसी गांव से वह अपने माता-पिता के साथ आया है। पिता बढ़ई हैं, माँ मजदूरी करती है। इसकी उम्र छह-सात साल है। मनाली बाजार में कोई दूकानदार पांच सौ रुपए में पचास फुग्गे उधार दे देता है। दस रुपए नग का एक फुग्गा बीस में बेचकर यह बालक कुछ कमाई कर लेता है। उसके साथ थोड़ा बड़ा एक और बालक था। वह भी गुब्बारे लिए था। हमने एक फुग्गा खरीद लिया। बालक खुश। बोला- अपने स्मार्टफोन से हमारा फोटो खींचो। हमारे बाजू में दो युवक और बैठे थे। बंगलुरु से आए थे। उनके साथ बालक की दोस्ती पहले हो चुकी थी। वे एक बढ़िया कैमरे से तस्वीरें ले रहे थे और हमारे नन्हें मित्र को अपना वह कैमरा खुशी से इस्तेमाल करने दे रहे थे। बालक ने उनसे कहा- आपके कैमरे से मैं इनकी फोटो खींचूंगा और खटाखट हमारी दो-तीन तस्वीरें ले डालीं। इतनी छोटी उमर, इतनी समझदारी, इतना जिम्मेदारी का एहसास और इतनी ही वयसुलभ चंचलता। उस बच्चे की क्रीड़ाएं देखकर मन भर आया।
मैं बंगलुरु से आए युवकों से बातचीत करने लगा तो अपना परिचय देते हुए स्वाभाविक ही रायपुर का नाम आया। नजदीक खड़े एक अन्य युवक ने सुन लिया तो मेरे पास आया- आप रायपुर से हैं। हाँ। मैं भी बस्तर का हूं। अरे वाह, खुशी की बात है। क्या करते हो, अभी कहां रहते हो। उसने जानकारी दी कि माता-पिता जगदलपुर में हैं, वह पटियाला रहकर कोई काम करता है। इसके कुछ घंटे पहले वशिष्ठ मंदिर में महाराष्ट्र से आए एक दल के कुछ लोग मिले। वे यवतमाल, विदर्भ से थे। अच्छा, आप रायपुर से हैं। हम वहां से अपने काम के लिए मजदूर लेकर आते हैं। अभी भी पच्चीस-तीस मजदूर हैं। सड़क का काम बहुत अच्छा करते हैं। वे लोग हमारे पास खुश हैं। कई साल से आते हैं। धर्मशाला के बाद मनाली में भी रायपुर या छत्तीसगढ़ से जुड़े लोगों का मिलना एक ऐसा संयोग था, जिससे हमारे प्रदेश की आर्थिक-सामाजिक स्थिति का भी संक्षिप्त परिचय मिलता है।
हिडिंबा मंदिर एक संरक्षित विरासत स्थल है। गनीमत है कि इसके मूलस्वरूप के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं की गई है। इसके प्रवेश द्वार पर उत्कृष्ट काष्ठकला का परिचय मिलता है। गर्भगृह की छत नीची है और भीतर देवी प्रतिमा के सिवाय कोई अलंकरण या सजावट नहीं है। प्रवेशद्वार पर ही हमारी भेंट जैसलमेर से आए भाई-बहनों के एक ग्रुप से हो गई। उनके साथ भी फोटो खींचे गए। मनाली की संयोगवश हुई भेंट क्यों रोचक सिद्ध हुई, इसे आखिरी किश्त में जानेंगे।
देशबंधु में 14 सितम्बर 2017  

Thursday 7 September 2017

हिमाचल प्रदेश- 4: कुंती झील से व्यास नदी तक


 इक्कीस साल पहले गुजरात में पोरबंदर से सोमनाथ की ओर जाते हुए बीच में माधवपुर का समुद्रतट देखा था। सड़क के साथ-साथ कई मील तक चलता हुए चांदी जैसी रेत का विस्तार। चेन्नई का प्रसिद्ध मरीना बीच भी उसकी तुलना में फीका था। उस दृश्य को देखकर मन में भाव आ रहा था कि शांति के साथ अवकाश के कुछ दिन बिताने के लिए इससे बेहतर स्थान और क्या होगा। ऐसी ही कुछ भाव रिवालसर से नैनादेवी के मंदिर जाते समय मन में आया। नौ किलोमीटर की चढ़ाई का रास्ता था, धीमी गति से एक के बाद एक मोड़ पार करते हुए गाड़ी आगे बढ़ रही थी। एक तरफ पहाड़ियां, दूसरी ओर वादियां। रास्ते में छोटे-छोटे गांव थे, घर के बगीचों में मुख्यत: नाशपाती के फल लगे हुए थे। किसी-किसी जगह से रिवालसर और नीचे बसे अन्य गांवों का मनमोहक नज़ारा दिख रहा था। जानकारी मिली थी कि इस रास्ते पर सात झीलें हैं, लेकिन तीन झीलें ही दिखाई दीं। 
यहां पर्यटक अधिक नहीं आते, फिर भी गांवों में कई जगह स्थानीय निवासियों ने अपने घर के साथ होम स्टे का सरंजाम कर रखा है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर होम स्टे के साईन बोर्ड देखने में आ रहे थे। अगर कभी अवसर मिला तो कुछ दिन के लिए यहां आकर रहूं और कुछ लिखना-पढ़ना करूं, यह विचार बार-बार मन में उठता रहा। इसी बीच कुंत भोज्य झील दिखाई दी। अनियमित आकार की काफी लंबी और बड़ी झील। इसके साथ किंवदंती जुड़ी है कि माता कुंती की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन ने तीर मारा था जिससे यह झील निर्मित हुई। हिमाचल के पहाड़ों में ऐसी दंतकथाएं हर जगह सुनने मिलती हैं। बहरहाल इस झील को देखकर मुझे बरबस बस्तर में नारायणपुर के पास स्थित छोटे डोंगर की झील का स्मरण हो आया। वही अनियमित आकार, उसी तरह पहाड़ की गोद में लेटी, हरियाली का आवरण ओढ़े हुए। 
उल्लेखनीय है कि अधिकतर पर्यटक रिवालसर की उस झील की सुंदरता का वर्णन जानकर आते हैं जो नीचे गांव में स्थित है जिसका वर्णन हम पिछली किश्त में कर आए थे। आश्चर्य हुआ कि नैनादेवी मंदिर के रास्ते में पड़ने वाली बाकी झीलों का उल्लेख क्यों नहीं होता? यदि बीती रात रिवालसर के बाजर में मिले पंडित जी ने सलाह न दी होती तो हम इस मनोरम दृश्य को देखने से वंचित हो जाते। हम सुबह तैयार होकर मनाली के लिए निकल ही रहे थे, लेकिन तभी सोचा कि इतनी दूर आए हैं, एक नया स्थान देख लेने में क्या हर्ज है। सो हमने गाड़ी का रुख विपरीत दिशा में मंदिर की ओर कर दिया। उत्तर भारत में नैनादेवी के  कई मंदिर हैं। हिमाचल में ही इसी नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर और भी हैं, किन्तु रिवालसर का यह मंदिर अल्पज्ञात है। 
ऊंची पहाड़ी पर एक समतल मैदान पर मंदिर है। यहां भी बदस्तूर बाज़ार है। कोई तीस-चालीस दुकानें होंगी। अधिकतर दुकानदार रिवालसर से यहां आते हैं। उनके लिए शायद यह आमदनी का पूरक स्रोत है। नवरात्रि जैसे अवसरों पर संभव है कि भीड़ होती हो, लेकिन सामान्य दिनों में श्रद्धालुओं की संख्या भी नगण्य होती है। हम जब पहुंचे तो कोई खास हलचल नहीं थी। मंदिर का स्वरूप आधुनिक है, बल्कि कहना होगा कि इसे आधुनिक स्वरूप दे दिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल अधिकांश उपासना स्थलों में हो रहा है। यदि प्राचीनता के कोई चिन्ह हैं तो उनका न तो सम्मान होता, न उन्हें संभाल कर रखा जाता। इस दृष्टि से नैनादेवी मंदिर में संतोष की बात थी कि प्राचीन मंदिर के कुछ भग्नावशेष गर्भगृह के बाहर हॉल में तरतीब से रखे हुए थे। यह दिलचस्प था कि श्रद्धालु इन क्षत-विक्षत पाषाण खंडों पर भी रोली-अक्षत चढ़ाकर श्रद्धा निवेदित कर रहे थे।
ज्वालामुखी की तरह नैनादेवी में भी मंदिर के प्रांगण में एक बकरा बंधे देखा। भक्तगण उस पर पानी चढ़ा रहे थे। यह व्यापार मेरी समझ में नहीं आया। मंदिर के बाहर एक दुकानदार ने बताया कि देवी के मंदिरों में विभिन्न पशुओं की बलि आज भी चढ़ाई जाती है और यह बकरा किसी शगुन संकेत के लिए बांधा हुआ है। हमारी रुचि इस विषय के विस्तार में जाने की नहीं थी। दो-तीन घंटे का समय बीत चुका था, अभी मनाली का सफर तय करना था। हम वापिस लौटे, रास्ते में दो-तीन अन्य दर्शनीय स्थल भी थे, उन्हें भी छोड़ दिया। रिवालसर लौटकर मंडी होते हुए मनाली के पथ पर वाहन चल पड़ा। मंडी हिमाचल का एक प्रमुख नगर है। हमने बायपास पकड़ा और शहर बाजू में छूट गया। अभी तक पहाड़ी झरने याने खड्ड और झीलें देखते आए थे, अब अवसर था नदी से मिलने का। 
हिमसुता व्यास नदी मंडी शहर के बीच से गुजरती है। मंडी से कुल्लू और कुल्लू से मनाली तक हमने व्यास के किनारे-किनारे सफर तय किया और उसे विभिन्न मुद्राओं और भावों में देखा। व्यास नदी भाखड़ा परियोजना का अंग है। उस पर मंडी से मनाली मार्ग पर कुछ ही आगे बैराज निर्मित है। यहां मानो नदी अनमने भाव से अनुशासन में बंधी हुई है। बैराज होने के कारण नदी में जल तो था लेकिन प्रवाह नहीं। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़े, व्यास की छटाएं देखकर लगातार मुग्ध होते रहे। कहीं पहाड़ों से झरने आकर उसमें विलीन हो रहे हैं, कहीं नदी में लहरें उठ रहीं हैं, कहीं वह चट्टानों से टकराकर आगे बढ़ रही है, कहीं उसका उद्दाम वेग देखकर भय लगता है। व्यास नदी की जो चंचलता है वह उसे न जानने वालों के लिए सांघातिक हो सकती है, इसीलिए पूरे रास्ते भर जगह-जगह चेतावनी देते हुए बोर्ड लगे हैं-नदी के पास न जाएं, जल स्तर कभी भी बढ़ सकता है।
मंडी से मनाली का रास्ता यूं भी निरापद नहीं है। एक तरफ नदी है, तो दूसरी तरफ पहाड़। जिनसे भूस्खलन की आशंका हमेशा बनी रहती है। भूगर्भ शास्त्री बताते हैं कि हिमालय अपेक्षाकृत एक युवा पर्वतमाला है और उसकी संरचना काफी नाजुक है। बरसात जैसे कारणों से कभी भी पहाड़ियां टूटने लगती हैं। कुल मिलाकर प्राकृतिक सुषमा से भरपूर इस रास्ते पर संभलकर चलने में ही भलाई है। इसीलिए मुझे तेज रफ्तार से निकलते हुए बाइकर्स के झुंड के झुंड देखकर बहुत हैरानी हुई। ये युवाहृदय बाइकर्स रोमांच के लिए मनाली के आगे रोहतांग दर्रा पार कर लद्दाख तक जाते हैं। तेज रफ्तार का रोमांच अवश्य होता होगा, लेकिन क्या उसके लिए हिमालय का यह पथ उपयुक्त है? यह सवाल मन में उठता है। उन्हें देखकर यह विचार भी उठा कि इनका सारा ध्यान तो अपनी गाड़ी की रफ्तार और ट्रैफिक पर है, इस मार्ग पर जो नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा है उसे तो ये देख ही नहीं पाते, फिर इतनी दूर आकर पैसा और पेट्रोल खर्च करने का क्या लाभ है?
मानता हूं कि मनुष्य में खतरों से खेलने की सहजात प्रवृत्ति होती है। उत्साह और उमंग से भरे ये बाइक सवार भी शायद उसी के वशीभूत हो इस तरह देशाटन पर निकलते हैं, लेकिन क्या उनकी बाइक की गति और शोर से हिमालय की सेहत को आघात नहीं पहुंचता होगा! खैर! हम अपनी रफ्तार से मनाली की ओर बढ़ रहे थे, नए-नए दृश्यों को आंखों से पी रहे थे। एक जगह तीन किलोमीटर लंबी एक सुरंग हमने पार की। जल्दी ही कुल्लू आ गया। यहां भी हमने शहर से गुजरने के बदले बाइपास से जाना बेहतर समझा। बाइपास पर सड़क के दोनों तरफ कालीनों और दुशालों का बाजर सजा हुआ था। हिमाचल में ऊन की शॉल कई जगहों पर बनती है पर सबकी अपनी-अपनी खासियत होती है। हमारी शापिंग करने में कोई रुचि नहीं थी सो बिना रुके आगे बढ़ गए। इस बीच सेब के बगीचे नजर आने लगे थे। एक तरफ व्यास नदी और दूसरी तरफ सेबों से लदे वृक्ष। अब हम कुछ ही समय में मनाली पहुंचने वाले थे। 
देशबंधु में 07 सितम्बर 2017 को प्रकाशित