Wednesday 22 November 2017

इंदिरा गांधी की जन्मशती

                                           

 श्रीमती इंदिरा गांधी की जन्मशती आई और चली गई। आधुनिक भारत के इतिहास की एक महान नायिका की सौंवी जयंती पर उन्हें स्मरण करने के लिए कोई खास यत्न दिखाई नहीं दिए। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इंदिरा गांधी की उपेक्षा करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन कांग्रेस को क्या हो गया है?  जवाहर लाल नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती पड़ी तब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने औपचारिकता निभाने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम आयोजित किया था, किन्तु उसमें भी उत्साह का अभाव साफ-साफ परिलक्षित हो रहा था (देखिए देशबन्धु में मेरा कॉलम 27 नवंबर 2014- 'कांग्रेस का नेहरू को याद करना')। मैंने तब अपने आपको यह सोचकर दिलासा दी थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की राजनीतिक समझ शायद इंदिराजी के पहले नहीं जाती, लेकिन आज यदि इंदिरा शताब्दी का स्वरूप भी फीका हो तो किसे क्या कहा जाए!
मुझे आश्चर्य है कि तथाकथित राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों में भी इस अवसर पर कोई विशेष सामग्री नहीं आई। इंदिरा गांधी की राजनीति से सहमति रखना या न रखना अलग मुद्दा है, लेकिन उनके पन्द्रह वर्ष के सुदीर्घ कार्यकाल में देश ने क्या पाया या खोया इस पर सुचिंतित बहस होने की अपेक्षा स्वाभाविक थी। टी.वी. चैनल तो पूरी तरह से सस्ते फूहड़ मनोरंजन और फर्जी बहसों में लगे हैं इसलिए उनसे तो कोई उम्मीद थी नहीं। मैं जहां रहता हूं उस रायपुर के अखबारों ने भी इंदिरा गांधी को किसी भी रूप में स्मरण करना मुनासिब नहीं समझा। यह जानना दिलचस्प है कि एक तरफ उसी दिन संघ परिवार ने रानी लक्ष्मी बाई की जयंती जोर-शोर से मनाई और दूसरी ओर अखबारों के पहले पन्ने पर मिस वर्ल्ड-2017 मानुषी छिल्लर छाई रहीं। मुझ जैसे कुछ सिरफिरों ने ही सोशल मीडिया पर 19 नवंबर को इंदिरा गांधी को याद किया, कुछ ने पोस्ट देखकर नमन कर छुट्टी पा ली, कुछ ने पोस्ट शेयर भी की। 
मेरी चिंता इसलिए नहीं है कि इंदिरा गांधी की जन्म शताब्दी अपेक्षा के अनुरूप नहीं मनाई गई, चिंता इस बात को लेकर है कि एक तरफ पुरोगामी शक्तियां इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए उसका पुनर्लेखन कर रही हैं, एक पूरी तरह से गढ़े गए इतिहास को जबरन जनता के गले उतारा जा रहा है; दूसरी तरफ देश के स्वाधीनता संग्राम और देश के नवनिर्माण में जिनकी असंदिग्ध प्रभावशाली और निर्णयकारी भूमिका रही उसे किसी न किसी उपाय से भुलाने की कोशिश होती रही है। इसका यह अर्थ होता है कि अपने इतिहास से सबक लेने के अवसर जानबूझ कर मिटाए जा रहे हैं। ऐसे में ये खतरा विद्यमान है कि भारत नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम फिर से न बन जाए। विगत सौ वर्षों में तेल समृद्ध पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका के देशों में इतिहास की विस्मृति के चलते जो दुर्दशा हुई है उसे हमने देखा है। इन षड़यंत्रकारियों से लड़ने के लिए जिनसे प्रेरणा मिल सकती है, वे नायक ही लुप्त हो जाएंगे तो प्रेरणा के नए स्रोत कहां से मिलेंगे?
मेरी समझ में इंदिरा गांधी की जन्मशती एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर था जब भारत की आंतरिक नीति, विदेश नीति, वैश्विक संबंध, सामरिक नीति, आर्थिक नीति इन सबका वस्तुपरक विश्लेषण किया जा सकता था। इंदिरा गांधी की आलोचना करने के लिए अनेक बिन्दु हैं जैसे 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी, 1967 में रुपए का अवमूल्यन, आपातकाल, ऑपरेशन ब्लू स्टार इत्यादि। दूसरी तरफ उनकी सराहना करने के लिए भी बहुत कुछ है- हरित क्रांति, प्रिवीपर्स का खात्मा, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बंगलादेश का उदय, 1974 का आणविक परीक्षण, गुटनिरपेक्ष आंदोलन, प्रोजेक्ट टाइगर, वन संरक्षण इत्यादि। इनमें से लगभग हर विषय पर बहुत लोगों ने अपने विचार प्रकट किए हैं, पुस्तकें भी आई हैं, लेकिन आज यह मौका है कि जब इंदिराजी को हमारे बीच से गए तैंतीस वर्ष हो चुके हैं तब समय के इस लंबे अंतराल का लाभ लेकर इन सभी मुद्दों पर तटस्थ भाव से चर्चा की जा सके। इस मौके को गंवा कर हम अपना नुकसान कर रहे हैं। 
मेरा अनुमान है कि गांधी, नेहरू और राष्ट्रपति केनेडी को छोड़कर विश्व के किसी भी राजनेता पर उतनी किताबें नहीं लिखी गईं जितनी इंदिरा गांधी पर। बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर दर्जनों किताबें हैं और उनमें इंदिरा गांधी का रोल स्वाभाविक रूप से चित्रित हुआ है। इसी तरह आपातकाल को लेकर भी शताधिक पुस्तकें  प्रकाशित हुईं हैं। इंदिराजी पर लिखी गई पुस्तकों की लंबी सूची इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने विश्व रंगमंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यहां मैं उन कुछ पुस्तकों का उल्लेख करना चाहूंगा जो इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के निर्माण और विकास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने में हमारी मदद कर सकती थीं। सबसे पहले तो पिता-पुत्री के बीच जो पत्राचार हुआ है वह अत्यन्त रोचक और पठनीय है। सोनिया गांधी ने 'टू अलोन, टू  टूगेदर' अर्थात 'दो अकेले, दो साथ-साथ' शीर्षक से दो खंडों में इसका संपादन किया है।
यह पुस्तक काफी बाद में आई, किन्तु इंदिराजी पर लिखी पहली पुस्तक जो ध्यान में आती है वह उनकी छोटी बुआ कृष्णा हथीसिंह द्वारा लिखित संस्मरणात्मक पुस्तक है- 'डियर टू बिहोल्ड'।  इसका हिन्दी अनुवाद कई बरस पूर्व हो चुका है। इलाहाबाद के पत्रकार पी.डी. टंडन की पुस्तक में भी रोचक संस्मरण हैं। इनके अलावा इंदिराजी की सामाजिक संबंध सचिव उषा भगत द्वारा लिखित 'इंदिरा : थ्रू माइ आइज' से भी उनके जीवन की अंतरंग झलकियां मिलती हैं।  इंदिरा गांधी के राजनैतिक व्यक्तित्व का काफी तटस्थ भाव से चित्रण वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने 'इंदिरा[ शीर्षक से लिखी वृहदाकार जीवनी में किया है। मेरी राय में इंदिराजी के राजनैतिक निर्णयों को समझने में यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। एक अन्य किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वह है जयराम रमेश की 'इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर[। यह पुस्तक इंदिराजी की जन्म शताब्दी पर ही छपी है।
इंदिरा गांधी के कुछ निर्णयों की चर्चा मैंने संक्षेप में ऊपर की है। माना जाता है कि इंदिराजी के कहने पर ही केरल की नम्बूदरीपाद सरकार को अपदस्थ किया था। इसे गैरजनतांत्रिक कदम माना गया था। उस समय के दस्तावेज बताते हैं कि भारत-चीन संबंधों में जो खटास 1949-1950 में ही आना शुरू हो गई थी, उसे देखते हुए स्वयं पंडित नेहरू भारतीय कम्युनिस्टों के इरादों से सशंकित थे; खासकर तब जबकि पी.सी. जोशी जैसे उदारवादी को हटाकर बी.टी. रणदेवे और ई.एम.एस. जैसे रूढ़िवादी पार्टी पर काबिज हो गए थे इसलिए यह गैरलोकतांत्रिक, लेकिन कठोर निर्णय लेना पड़ा।  बहरहाल इंदिरा तब प्रधानमंत्री नहीं थीं। उन्होंने 1967 में रुपए का अवमूल्यन किया वह भी अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते जिसमें कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्वों का भी साथ था। इंदिरा जी ने इसके बाद कभी अमेरिका पर विश्वास नहीं किया। 
मेरी दृष्टि में इंदिरा गांधी के जीवन में परीक्षा का सबसे बड़ा क्षण इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के समय आया था। इंदिरा के खिलाफ यह फैसला एक बहुत छोटे तकनीकी आधार पर दिया गया था। निर्णय सही था या गलत यह अलग बात थी, लेकिन मुझे लगता है कि 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने अपनी सहजात बुद्धि को छोड़कर शायद सलाहकारों पर भरोसा कर प्रधानमंत्री बने रहने का गलत निर्णय ले लिया। वे यदि उस दिन त्यागपत्र दे देतीं और अपने काबिल सहयोगी जगजीवन राम को उत्तराधिकारी घोषित कर देतीं तो देश का इतिहास कुछ और ही होता। बंगलादेश मुक्ति संग्राम की एक बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी थी। युद्ध के भार से देश की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई थी इसका लाभ घोर दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतों ने उठाया। जयप्रकाश नारायण इंदिरा-विरोधी आंदोलन में भावुकतावश शामिल हो गए और फिर उसकी परिणति आपातकाल लगने में हुई जिसका इतिहास हमारे सामने है।
इस कॉलम का सीमित स्थान मुझे यहीं रुकने का संकेत दे रहा है, लेकिन इस सब पर आगे बात होना चाहिए।
देशबंधु में 23 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

Friday 17 November 2017

मुक्तिबोध का अखबारी लेखन


 गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम लेते साथ अनायास ही चाँद का मुंह टेढ़ा है और अंधेरे में  जैसे उनकी कविताओं के शीर्षक आंखों के सामने आ जाते हैं। हम उन्हें प्रथमत: कवि के रूप में ही स्मरण करते हैं। फिर कामायनी: एक पुनर्विचारएक साहित्यिक की डायरी आदि के माध्यम से साहित्यिक आलोचना में उनके अप्रतिम योगदान का ध्यान आता है। वे अपने ढंग के एक अनूठे कथाशिल्पी थे, यह परिचय विपात्रब्रह्मराक्षस का शिष्यक्लाड ईथरली आदि रचनाओं से प्राप्त होता है। बीसवीं सदी का यह बहुविधा निष्णात लेखक एक सजग, सतर्क, विचारसम्पन्न पत्रकार भी था, इस तथ्य को अक्सर बिसरा दिया जाता है। वे नागपुर में नया खून नामक साप्ताहिक अखबार से जुड़े थे, इतना तो हमें शायद पता होता है, किंतु उनका अखबारी लेखन कैसा था, एक पत्रकार के रूप में उनका क्या अवदान था, इस पर जितनी चर्चा होना चाहिए थी, संयोगवश नहीं हो सकी है। यह सन्तोष का विषय है कि आज जब मुक्तिबोध जन्मशती मनाई जा रही है, तब कतिपय गंभीर अध्येताओं का ध्यान उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के इस पक्ष की ओर भी गया है।
मुक्तिबोध रचनावली के छठवें व अंतिम खंड में राजनैतिक व अन्य लेखन इस मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत मुक्तिबोधजी के जो लेख संकलित हैं, मुख्यत: वही उनका अखबारी लेखन है। इस संकलन पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं। एक तो यह पता चलता है कि मुक्तिबोध जी की आयु जब पूरे बीस साल भी नहीं थी, तब से उनके लेखों का प्रकाशन हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में होने लगा था। खंडवा से प्रकाशित कर्मवीर के 9 से 16 जनवरी 1937 के अंकों में अतीत  शीर्षक से दो किश्तों में लेख छपा। उन्हें तब उन्नीस साल पूरे किए तीन माह भी नहीं बीते थे। उल्लेखनीय है कि मूर्धन्य कवि माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर के संपादक थे। इस पहले लेख के अध्ययन से ही भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ व उनकी अद्भुत अध्ययनशीलता का परिचय तो मिलता ही है, यह भी हम देख पाते हैं कि देश, समाज, राजनीति को लेकर उनके विचारों में इस तरुणाई में ही वह प्रगल्भता व दिशाबोध आ गए थे, जो जीवन भर उनके साथ  रहे। 
दूसरा रोचक तथ्य यह प्रकट होता है कि मुक्तिबोधजी  के अनेक लेख या तो उनके नामोल्लेख बिना छपे या उन्होंने छद्मनामों का प्रयोग किया। इसकी आवश्यकता शायद इसलिए पड़ी कि वे आकाशवाणी में सेवारत थे और असली नाम से लिखने पर शासन के कोपभाजन बन सकते थे। उन्होंने यौगन्धरायण व अवंतीलाल गुप्त इन दो छद्मनामों को अपनाया था। अवंतीलाल गुप्त संभवत् इसलिए कि अवंती या कि उज्जैन से उनका गहरा नाता था और गुप्त का आशय तो स्पष्ट ही है। यौगन्धरायण नाम भी उन्होंने शायद इसीलिए लिया कि भास रचित संस्कृत महाकाव्यों प्रतिज्ञा यौगन्धरायण तथा स्वप्नवासवदत्ता में वह उज्जयिनी के राजा उदयन का महामंत्री है जिसमें विद्वता, विवेकशीलता, साहस व स्वामीभक्ति जैसे गुण कूट-कूटकर भरे हैं। मुक्तिबोध अपने मात्र सैंतालीस वर्ष के जीवन में अनेक स्थानों पर रहे, लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि उज्जैन को वे सदा साथ लेकर चलते रहे। नागपुर में रहकर उज्जैन का परिचय देने वाले छद्मनामों से लिखने का विचार उनके मन में अन्यथा क्यों आया होगा!
मुक्तिबोध के अखबारी लेखन की बात उठने पर सबसे पहले नया खून की ही याद आती है, लेकिन पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र द्वारा स्थापित सारथी के लिए भी उन्होंने कई बरसों तक लिखा। दरअसल, नया खून और उसके संस्थापक-संपादक स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के साथ उनके प्रगाढ़ संबंध थे। नया खून में काम करते हुए ही उन्होंने अनेक युवा लेखक-पत्रकारों का मार्गदर्शन किया। मुझे इनमें से तीन नाम विशेषकर ख्याल आते हैं- लज्जाशंकर हरदेनिया, जो भोपाल में रहते हुए आज 85 वर्ष की आयु में भी निरंतर सजग भाव से पत्रकारिता कर रहे हैं; दूसरे शरद कोठारी जिन्होंने नागपुर से अपने गृहनगर राजनांदगांव लौटने के बाद सबेरा (बाद में सबेरा संकेत दैनिक) नामक साप्ताहिक पत्र स्थापित किया और दो व्यंग्य उपन्यासिकाओं की रचना की; तीसरे रमेश याज्ञिक जिन्होंने समर्थ कथाकार, यात्रा वृत्तांत व संस्मरण लेखक तथा अनुवादक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की। 
यहां स्वामी कृष्णानंद सोख्ता का उल्लेख करना भी आवश्यक होगा। स्वामीजी अपनी पदवी के अनुरूप एक धर्मगुरु ही थे, लेकिन इस बाने को उन्होंने जल्दी ही उतार फेंका होगा। स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सत्यभक्त की परंपरा में उनकी गणना करना शायद गलत नहीं होगा। विराट व्यक्तित्व व ओजस्वी वाणी के धनी सोख्ताजी पुराने मध्यप्रदेश की एक जानी-मानी हस्ती थे। वे कांग्रेस के नेता थे और नागपुर में तो खैर उनका दबदबा ही था। उन्होंने नया खून प्रारंभ कर उसे एक निर्भीक साप्ताहिक पत्र के रूप में स्थापित किया। वे स्वयं एक अच्छे कवि थे तथा कलामे सोख्ता के नाम से उनके मुक्तकों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ था, जिसका व्यंग्य चुटीला एवं मारक था। उनका निधन हुआ तब तक मुक्तिबोध राजनांदगांव आ चुके थे। 1960 में प्रकाशित नया खून के श्रृद्धांजलि अंक में आत्मीयता के अखंड स्रोत : स्वामीजी शीर्षक से मुक्तिबोधजी ने उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित की जिसमें उन्होंने स्वामीजी को बंधनहीन मानवतावादी निरूपित किया।  उन्होंने लिखा- स्वामीजी एक अजीब आदमी थे- एकदम फक्कड़, बहुत दिलदार, पूरे इंसान और ताकतवर।
रचनावली में संकलित पहले लेख अतीत (1937) से लेकर इस अंतिम लेख (1960) तक का अनुशीलन करने से स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध के अखबारी लेखन का फलक अत्यन्त व्यापक था। इसमें यदि वसुधा, कल्पना इत्यादि में प्रकाशित स्तंभ व लेखों को भी शामिल कर लें तो व्यापकता और बढ़ जाती है। यही नहीं, वे जिस विषय पर लिखते हैं, उसका निर्वाह अधिकारपूर्वक और प्रामाणिकता के साथ करते हैं। सोख्ताजी को दी गई श्रृद्धाजंलि एक अनुपम व्यक्ति-चित्र है। इसमें स्वामीजी की चारित्रिक विशेषताओं का बेहद बारीकी और सूझबूझ के साथ अंकन हुआ है। उन्होंने स्वामीजी और अपने पारस्परिक संबंधों को भी अकुंठ सादगी के साथ उकेरा है। दूसरी ओर 1958-59 सत्र में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित लेख है। कॉलेज की पत्रिका में छपे लेख को अखबारी लेखन तो नहीं माना जाएगा, लेकिन अचरज की बात है कि विद्यार्थियों के हित में उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा पर एक विस्तृत लेख लिखा, जबकि वे हिंदी के अध्यापक थे। जिस रॉकेट साइंस की जटिलता आज एक अंग्रेजी मुहावरा बन गई है, उसी विषय पर उन्होंने सरल और बोधगम्य भाषा में एक लंबा लेख लिख दिया। यह काम वही व्यक्ति कर सकता था जो खुद अपार अध्ययनशील हो और जिसने पढ़े हुए को गुना भी हो।
अपने पहले लेख याने अतीत में मुक्तिबोध एक दार्शनिक जिज्ञासा में तैरते दिखाई देते हैं। 19 वर्षीय  लेखक का आत्मविश्वास यहां स्पष्ट झलकता है मानों उसके पास सब प्रश्नों के उत्तर हैं। वह लिखता है- अतीत हमारी समालोचना है, वर्तमान हमारा गतिमान काव्य है; और भविष्य हमारी आशा है । इस लेख में लोकप्रिय मराठी मासिक किर्लोस्कर में प्रकाशित एक लेख का संदर्भ है, जो मुक्तिबोधजी की किशोरवय में ही विकसित अध्ययन वृत्ति को सूचित करती है। वे आगे वर्ड्सवर्थ  की कविता ओड ऑन इम्मॉर्टेलिटी  का भी उल्लेख करते हैं। मैं अनुमान लगाता हूं कि कॉलेज के शिक्षक रमाशंकर शुक्ल इत्यादि उनकी इस रुचि को बढ़ाने में प्रेरक हुए होंगे। 1938-39 में ही तो मुक्तिबोधजी ने शुक्लजी के निधन पर भावभीनी श्रृद्धांजलि दी थी (देखें अक्षर पर्व मुक्तिबोध विशेषांक जून 2017)। इसकी अंतिम पंक्ति में इलैक्ट्रॉन, प्रोटॉन  के आसपास विद्युत बरसने का जिक्र है। गोया 1938-39 से लेकर जीवन के अंतिम समय तक मुक्तिबोध विज्ञान के सूक्ष्म रहस्यों व मानव चेतना पर उनके प्रभावों का अध्ययन करने में जिज्ञासु भाव से जुटे हुए थे। कहना न होगा कि वे वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए सदैव चिंतित और व्याकुल रहे, जैसा कि ये लेख दर्शाते हैं।
मुक्तिबोध की कविताओं में एक तरफ साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, युद्ध का विरोध एवं दूसरी ओर विश्व शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, नवस्वतंत्र देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों के बीच मैत्री, अन्याय, अत्याचार, शोषण का खात्मा होने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त होती है। इसके विस्तार में जाना यहां आवश्यक नहीं है। जैसा कि स्वाभाविक है कविता में उनका जीवन दर्शन बिंबों और प्रतीकों के सहारे प्रकट हुआ है। इसके बरक्स वे अपने राजनैतिक लेखों में सुदृढ़ तर्कों और पूरी स्पष्टता के साथ सीधी सपाट भाषा में अपने विचार सामने रखते हैं। वे देश-विदेश के घटनाचक्र पर सामयिक हस्तक्षेप करने को एक लेखक का नागरिक दायित्व मानते हैं। कर्मवीर में अप्रैल 39 में प्रकाशित एक अन्य लेख में वे कहते हैं-
मैं सच कहता हूं कि दिन-दिन मैं अपने व्यक्तित्व में विस्तार लाना चाहता हूं। हम एक व्यक्ति को प्यार कर संसार से अलग क्यों हटें, हमें अपना अनुराग दुखी संसार पर बिखेर देना चाहिए। इसी लेख की अंतिम पंक्ति विशेषकर ध्यान देने योग्य है इसलिए कि मात्र इक्कीस साल के तरुण से सामान्यत: ऐसी  सोच की अपेक्षा नहीं की जाती और न इसे वयसुलभ रूमान कहकर खारिज किया जा सकता, क्योंकि मुक्तिबोध का भावी जीवन (थोड़ा ही सही) कार्य (बहुत) करने में बीता- जीवन थोड़ा है, कार्य बहुत है और शक्ति अत्यन्त कम है, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार है
नौजवान का रास्ता  व  जिंदगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार  जैसे लेखों में दुखी संसार पर अनुराग बिखेरने की भावना के सूत्र खुलते हैं। उन्हें यह देखकर पीड़ा होती है कि नौजवानों के सामने विकास के लक्ष्य गुम हैं, इसलिए वह अपनी खाली जेब, भूख की यंत्रणा, दुर्भाग्य को चवन्नी-छाप एक्ट्रेसों की सूरत देखकर दो मिनिट के लिए भुलाना चाहता है। लेकिन वे इसके आगे चेतावनी देते हैं कि उसे गलत न समझा जाए। हमारा नौजवान बेहद सच्चा है। और बेहद अच्छा है।  उसमें बड़ी आग है और बहुत मिठास है। (नौजवान का रास्ता)। नागपुर में उत्सवों का भौंडापन देखकर भी उन्हें क्लेश होता है, लेकिन फिर वे उसका विश्लेषण करते हैं कि यह गरीबों की संस्कृति है। ये उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं। उनकी अंधेरी के ये सर्वोच्च क्षण हैं। आगे वे कहते हैं कि उनके सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुधार होना चाहिए। उनके पास उत्तम मानसिक खाद्य पहुंचाने की जरूरत है।  परंतु केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों से वह बात नहीं बनती जो जिंदगी की परिस्थितियां बदल देने से होती है। यह क्या होगा, इसके लिए वे मध्यवर्ग का आह्वान करते हैं कि वह नवीन सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाए। ( ज़िन्दगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार)
स्पष्टत: मुक्तिबोधजी लोकशिक्षण को एक अनिवार्य कर्म मानते हैं। वे वैश्विक घटनाचक्र पर लिखने के लिए कलम उठाते हैं तब भी उनके मन में यही भावना होती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का लंबा दौर प्रारंभ हुआ, इसके आर्थिक, सामरिक, कारकों को वे बखूबी पहचानते हैं। हिंदचीन  (वियतनाम, लाओस, कंबोडिया) में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतें कैसे षड़यंत्र रच रही थीं,  इनका खुलासा करने के लिए वे अनेक लेख लिखते हैं। भारत में विदेशी पूंजी निवेश पर चिंता करते हुए भी उन्होंने कई लेख लिखे। इजाप्त में स्वेज नहर पर आधिपत्य व मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) के तेल भंडारों पर कब्जा बनाए रखने के लिए अमेरिका-यूरोप ही नवसाम्राज्यवादी देशों ने कैसे-कैसे खेल रचे, मुक्तिबोध सजग दृष्टि से उसका भी अवलोकन कर रहे थे। वे नेहरू-नासिर-टीटो की त्रिमूर्ति के नेतृत्व में उभरे गुटनिरपेक्ष आंदोलन को प्रशंसा भाव से देखते और उसे अपना समर्थन देते हैं। दूसरी ओर वे स्टालिन के दौर में विश्व साम्यवाद की जो हानि हुई, उसका भी संज्ञान लेते हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि 1956 में ही उन्होंने सोवियत संघ को चेतावनी दी थी कि अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर दृढ़ हो जाने के बाद उसे अपने और अन्य साम्यवादी देशों में जनतंत्र मजबूत करने के लिए वैचारिक युद्ध में कूदना पड़ेगा। 
इन राजनैतिक लेखों के अध्ययन से यह भी समझ आता है कि मुक्तिबोध यद्यपि देश में कांग्रेस सरकार की आर्थिक-सामाजिक नीतियों से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन पंडित नेहरू के प्रति उनके मन में अगाध विश्वास था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की भूमिका को वे विश्व इतिहास की नई रेखा निरूपित करते हैं। स्वेज नहर के मसले पर उनका मानना था कि केवल तटस्थ राष्ट्र याने गुटनिरपेक्ष आंदोलन ही इजाप्त को आसन्न संकट से उबार सकता है। इसे वे आंदोलन को अपना पैर जमाने, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक जबर्दस्त नया मौका भी मानते हैं। पंडित नेहरू 1956 में पश्चिम जर्मनी की यात्रा पर जाते हैं। वहां उनका भव्य स्वागत होता है। तत्कालीन राजधानी बॉन में एक प्रमुख सड़क का नाम महात्मा गांधी पर रखा जाता है, इसे वे भारत का सम्मान बढ़ना कहते हैं। इस सबको मुक्तिबोध प्रशंसा भाव से देखते हैं। दून घाटी में नेहरू  यह लेख विशेष रूप से पठनीय है। अप्रैल 1957 में नेहरूजी एक सप्ताह की छुट्टियां बिताने देहरादून जा रहे थे। मुक्तिबोध लेख में नेहरूजी की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वे जिस जिम्मेदारी के काम पर हैं, उसमें आराम करना भी एक कर्तव्य है, ताकि वे लंबे समय तक हमारे बीच रह सकें। 
मुक्तिबोधजी ने दीपमालिका शीर्षक से संपादकीय लिखते हुए कामना की कि भारत को स्वर्गलोक बनाने के लिए शोषण और अत्याचार के पहाड़ों को चीरकर अपार श्रम से नई प्राणधारा बहाना होगी। वे हुएन-सांग की डायरी शीर्षक से एक रूपक रचते हैं जो काव्यमय भाषा में है। हुएन-सांग मुग्ध मन से चर्चा करता है कि नालंदा के वातावरण में कला, साहित्य, दर्शन और तर्कशास्त्र की चर्चाओं से दिन-रात गूंजता है। उसे छोड़कर जाने का मन नहीं है, लेकिन अंत में वह कहता है- पर मुझे चीन तो लौटना ही है।  यह लेख 1958 में छपा था। रायपुर के पास सिरपुर का उत्खनन तब तक प्रारंभ हो चुका था, लेकिन वहां के बौद्ध विहार तब तक प्रकाश में नहीं आए थे। अन्यथा कौन जाने कि मुक्तिबोध हुएन-सांग की सिरपुर यात्रा पर भी लिखते!
मुक्तिबोधजी ने भाषा नीति पर भी कुछ लेख लिखे हैं। वे हिंदी के महत्व को रेखांकित करते हैं किंतु वे कदम-ब-कदम और मंज़िल-दर-मंज़िल आगे बढ़ने पर जोर देते हैं। वे इस पदावली को दोहराते भी हैं। उनके बेहद रोचक लेख साहित्य के काठमांडू का नया राजा  का उल्लेख किए बिना मेरा लेख अधूरा रहेगा।
अविभाजित मध्यप्रदेश (मध्यप्रांत और बरार) के गोंदिया नगर में 1955 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। इसमें पं. रविशंकर शुक्ल की सरकार में वित्तमंत्री विदर्भ केसरी बृजलाल बियाणी सम्मेलन के नए अध्यक्ष चुने गए थे। उन्होंने गीतांजली के अनुगायक, सुप्रसिद्ध गीतकार एवं लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार, जबलपुर के महापौर पं. भवानीप्रसाद तिवारी को पराजित किया था। मुक्तिबोध बियाणीजी की खुलकर आलोचना करते हुए तल्खी से पूछते हैं कि लेखक के रूप में आपने क्या साहित्य सेवा की है। इस लेख के अंतिम पैराग्राफ को पूरा का पूरा उद्धृत करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। 
कहने दीजिए कि हि.सा.स. का जनता से कोई ताल्लुक नहीं। भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्य के नाम पर चलनेवाली वह एक नकली साहित्य संस्था है। हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनांदगांव, रायपुर, नरसिंहपुर, छिन्दवाड़ा, खण्डवा, बुरहानपुर, आदि-आदि छोटी-छोटी जगहों के अन्याय-पीड़ित जीवन बितानेवाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आह्वान करते हैं कि वे 'जनता के लिए साहित्य' का आंदोलन उठाएं और म्युनिसिपल कन्दील के नीचे, बरगद के तले, और जहां-जहां उन्हें जगह मिल सके, वे आपस में मिलें और यह तय करें कि उन्हें जनता का जीवन चित्रण करना है। कहानी, नाटक, उपन्यास, लोक-गीत, मुक्तक-गीत, खण्डकाव्य, लेख, निबन्ध, रिपोर्ताज, स्केच, आदि लिखें और सुनायें और इस प्रक्रिया के दौरान में जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें, संवारें और निखारें, तथा नेमाड़ी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी आदि मध्यप्रदेशीय लोक भाषाओं के पुनरुत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहे। कवि-सम्मलेनों में जनता की वाणी में जनता की चीखें गूंज उठें। साथ ही, शीघ्र ही किसी प्रकार सारे प्रान्त के जन-सेवी जन-द्रष्टा लेखकों की एक छोटी-सी परिषद बुलाई जाय, जिसमें निर्णयात्मक रूप से मध्यप्रदेश साहित्यिक आन्दोलन की दिशा को मोड़ दी जा सके।
कुल मिलाकर हम देखते हैं कि मुक्तिबोध के समूचे साहित्य में लोक शिक्षण और लोकहित ही सर्वोपरि है और उनका यह लोक भारत में नहीं बल्कि जापान से अमेरिका तक फैला हुआ है।             
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जनसंस्कृति मंच द्वारा भिलाई में 3-4 नवंबर को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत व  देशबंधु अवकाश अंक 12 नवंबर में प्रकाशित 

Wednesday 15 November 2017

नेहरू बनाम पटेल

जैसा कि हमने पिछले तीन वर्षों में देखा है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चौबीस घंटे सातों दिन चुनाव की मुद्रा में रहते हैं। उनका हर बयान, हर भाषण, देश में हो या विदेश में, मतदाताओं को ध्यान में रखकर ही दिया जाता है। उनके भाषणों में संचारी भाव तो अनेक हैं, लेकिन स्थायी भाव एक ही है और वह है नेहरू विरोध। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके वंशजों को दिन में कम से कम एक बार कोसे बिना उन्हें चैन नहीं मिलती। वे नेहरू पर वार करने के लिए नए-नए मुद्दों की तलाश में रहते हैं, फिर बात चाहे सच हो या झूठ, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। वे बार-बार सरदार पटेल का कद पंडित नेहरू से ऊंचा करने की कोशिश करते हैं। इस काम को पिछले तीन साल से वे बिना थके करते आ रहे हैं। चाहे वह सरदार सरोवर में सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा लगाने की बात हो या फिर आसन्न चुनाव। उनकी यह टेर बनी रहती है। 
हम इस विषय का वस्तुगत विश्लेषण करने का प्रयत्न करेंगे, लेकिन उससे पहले मोदीजी और उनकी पूरी फौज से दो-तीन प्रश्नों के जवाब मांगना चाहेंगे। हमारा पहला प्रश्न है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में गृहमंत्री रहे लालकृष्ण अडवानी को उनके दौर में दूसरे लौहपुरुष की संज्ञा दी गई थी। दूसरे शब्दों में उन्हें सरदार पटेल के समकक्ष खड़ा किया गया था। श्री मोदी के राज में अडवानी जी कहां हैं? यह प्रश्न इसलिए भी उठता है कि गुजरात नरसंहार के बाद जब वाजपेयीजी ने मोदीजी को राजधर्म का पालन करने का निर्देश दिया था तब श्री अडवानी ही थे जिन्होंने मोदी जी की वकालत की थी और उनका मुख्यमंत्री पद बचाने में मदद की थी। हम यह भी देख रहे हैं कि देश में वाजपेयी जी के नाम पर अनेक राष्ट्रीय संस्थान स्थापित हो गए हैं। उनके नाम पर योजनाएं भी चल रही हैं, लेकिन अडवानी जी के नाम को चिरस्थायी बनाने के लिए कहीं कोई प्रयत्न नहीं दिखाई दिए।
यह स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी की जो राजनैतिक महत्वाकांक्षा है उसमें लालकृष्ण अडवानी के लिए कोई जगह नहीं है। वे कभी वाजपेयी जी के अनन्य सहयोगी रहे होंगे, आज उनकी उपयोगिता शून्य है। मुरली मनोहर जोशी और शांताकुमार जैसे वरिष्ठ नेता भी हाशिए पर हैं। इसी तरह एक ओर दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर तमाम योजनाएं चल रही हैं, लेकिन नानाजी देशमुख को शायद ही याद किया जाता हो, जबकि जनसंघ और भाजपा को खड़ा करने में उनका सैद्धांतिक, राजनैतिक और रचनात्मक योगदान महत्वपूर्ण रहा है। हम समझते हैं कि पंडित नेहरू और सरदार पटेल के संबंधों की बात करने से पहले भारतीय जनता पार्टी के लोगों को कुछ आत्मावलोकन भी कर लेना चाहिए। वे जो बार-बार सरदार पटेल की दुहाई देकर पंडित नेहरू को कोसते हैं बहुत से तथ्यों की जानबूझ कर अनदेखी कर देते हैं। नहीं करेंगे तो उनका केस खारिज हो जाएगा।
सबसे पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि सरदार पटेल महात्मा गांधी से मात्र छह वर्ष छोटे थे और पंडित नेहरू से चौदह वर्ष बड़े थे। देश को आजादी मिलने के समय उनकी आयु बहत्तर वर्ष हो चुकी थी, जो कि उस वक्त के पैमानों पर परिपक्व आयु थी। याद रखें कि 1947 में भारत में व्यक्ति की औसत आयु मात्र सत्ताइस वर्ष थी और पचास वर्ष का व्यक्ति वृद्ध कहलाने लगता था। यही नहीं, सरदार पटेल का स्वास्थ्य भी उम्र के चलते उनका साथ नहीं दे रहा था। आज जिस पार्टी में पचहत्तर वर्ष की आयु के स्वस्थ व्यक्ति को पद न देने का सिद्धांत लागू कर दिया हो, वह पार्टी 1947 में एक विरोधी पार्टी के बहत्तर वर्षीय वृद्ध को प्रधानमंत्री न बनाने पर आपत्तियां करें तो यह तर्क विचित्र लगता है और स्वीकार नहीं किया जा सकता। भाजपा के लोग ही बताएं कि उन्होंने अडवानी जी के बदले मोदीजी को प्रधानमंत्री पद के लिए 2013 में उम्मीदवार क्यों घोषित किया था।
यह स्मरणीय है कि पंडित नेहरू महात्मा गांधी के संपर्क में सन् 1915 में ही आकर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ गए थे। जब 1917 में गांधीजी चंपारण गए तब नेहरू जी ने बिहार के अपने मित्रों को गांधी जी की मदद के लिए प्रेरित किया था, जबकि सरदार पटेल दो वर्ष बाद 1917-18 में ही गांधीजी के संपर्क में आए थे। खैर! यह कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था, लेकिन हम पाते हैं कि बाद के वर्षों में नेहरू और पटेल दोनों गांधीजी के प्रिय शिष्य बनकर किसानों और आम जनता के बीच में लगातार काम करते रहे। पंडित नेहरू 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो अगले वर्ष सरदार पटेल को इस पद से देशसेवा का अवसर मिला। किन्तु यह तथ्य गौरतलब है कि नेहरू 1929 तक देश में युवा हृदय सम्राट के रूप में स्थापित हो चुके थे और उनकी अपील देशव्यापी थी।
हम यह भी देखते हैं कि नेहरू जहां आम जनता के बीच में लोकप्रिय थे वहीं पटेल की छवि संगठनकर्ता के रूप में बनी थी। नेहरू में एक तरह का उतावलापन था और वे कई बार बारीकियों में नहीं जाते थे, खासकर संगठन के स्तर पर होने वाली उठापटक में उनकी दिलचस्पी बिल्कुल भी नहीं थी। दूसरी ओर पटेल संगठन के कामों में गहरी दिलचस्पी लेते थे। कांग्रेस पार्टी के भीतर उनकी गहरी पकड़ थी। यह एक बिन्दु था जिसको लेकर नेहरू और पटेल के बीच टकराव होने का अंदेशा उन्हें जानने वालों के मन में बना रहता था। लेकिन कहना होगा कि सरदार पटेल अपने स्वभाव की गंभीरता के अनुरूप टकराव को टालने का रास्ता निकाल लेते थे और विघ्न संतोषियों के मंसूबे पूरे नहीं होने देते थे। यह ध्यान रखना भी उचित होगा कि नेहरू एक विराट वैश्विक दृष्टि के धनी थे, जबकि सरदार इस दिशा में बहुत रुचि नहीं लेते थे।
यह श्रेय सरदार पटेल को उचित ही दिया जाता है कि देशी राज्यों के निजीकरण और भारत के संघीय ढांचे को पुष्ट करने में उन्होंने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। यह उनकी दृढ़ता थी कि बड़े-बड़े राजे-महाराजे उनके सामने नतमस्तक हो गए। यहां फिर हमें पंडित नेहरू की भूमिका को भी साथ-साथ देखने की आवश्यकता है। ध्यातव्य है कि देशी रियासतों में राजाओं के खिलाफ वातावरण बन रहा था। जैसे ब्रिटिश इंडिया में जनता स्वतंत्रता की आकांक्षी थी, वैसे ही इन रियासतों के प्रजाजन भी राजशाही से मुक्ति चाहते थे। इस उद्देश्य से कांग्रेस के ही मार्गदर्शन में अखिल भारतीय प्रजामंडल या कि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेस का गठन हुआ। पंडित नेहरू 1939 में इसके अध्यक्ष बने और देशी रियासतों में जनता को प्रेरित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तरह से पंडित नेहरू और सरदार पटेल इस कार्य में एक-दूसरे के पूरक बने।
यह आरोप द्वेषवश लगाया जाता है कि पंडित नेहरू अथवा उनके वंशजों ने सरदार पटेल की उपेक्षा की। सबसे पहले तो यह समझ लें कि नेहरू प्रधानमंत्री थे और सत्रह साल इस पद पर रहे, जबकि सरदार उपप्रधानमंत्री थे और उन्हें मात्र तीन वर्ष का समय मिला इसलिए दोनों के बीच कोई भी तुलना करना असंगत है। यह कहना भी गलत है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल का नाम भुला दिया। पूरे देश में कांग्रेस द्वारा सरदार के नाम पर स्थापित संस्थान एवं भवन इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। सच्चाई यह है कि दक्षिणपंथी ताकतें 1945-46 से पंडित नेहरू के विरुद्ध वातावरण बनाते आ रही है। जो लोग भारत को एकचालकानुवर्ती हिन्दू राष्ट्र और पेशवाई शासन में देखना चाहते हैं वे भला कैसे नेहरू को स्वीकार करें। इसीलिए कभी नेताजी, कभी सरदार, कभी लोहिया को पंडित नेहरू के बरक्स खड़ा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा करके वे स्वयं को छल रहे हैं।
देशबंधु में 16 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

 

Friday 10 November 2017

इंदिरा गाँधी:एक प्रकृतिमय जीवन



1978 या 79 की गर्मियों का वाकया है। इंदिरा गांधी (वे उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं थीं) और पी.वी. नरसिंह राव बंगलौर से मैसूर जा रहे थे। उनके साथ एक पूर्व परिचित अमेरिकी राजनैतिक विश्लेषक भी थे। उनके मन में शायद इंदिरा जी से तत्कालीन राजनीति पर बात करने की इच्छा रही होगी! इंदिरा जी तीन घंटे की यात्रा के दौरान दोनों सहयात्रियों को रास्ते के पेड़-पौधों के बारे में जानकारी देती रहीं। सफर खत्म हुआ तो श्री राव ने अमेरिकी सज्जन से कहा- इन्हें तो राजनीति में जाने के बजाय वनस्पति शास्त्र का प्रोफेसर होना चाहिए था। 

इसके कुछ समय बाद का एक अन्य प्रसंग है। आर. राजामणि प्रधानमंत्री कार्यालय में अधिकारी थे। वे इंदिराजी के साथ एक यात्रा पर गए थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा- हम छोटे से डाक बंगले से बाहर निकले तो क्यारी में लगे एक फूल वाले पौधे के बारे में इंदिरा जी ने मुझसे पूछा- इस पौधे का नाम जानते हो? मैंने उत्तर दिया- हमारे यहां इसे श्मशान फूल कहा जाता है। इस पर इंदिरा जी ने जानकारी दी कि यह औषधीय गुण वाला पैरीविंकल (सदा सुहागन) है जिसके रसायन से कैंसर की दवा भी बनती है। उन्होंने पौधे का वानस्पतिक नाम भी मुझे बतलाया। 

मैंने उपरोक्त दोनों प्रसंग जयराम रमेश की इसी वर्ष प्रकाशित पुस्तक इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर से लिए हैं। श्री रमेश का परिचय देने की यहां कोई आवश्यकता नहीं है। इंदिरा जी के जन्मशती वर्ष में यह पुस्तक प्रकाशित कर उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण काम किया है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही पता चलता है कि यह इंदिरा गांधी के प्रकृति प्रेम पर केन्द्रित है। पुस्तक में इंदिरा गांधी के राजनीतिक व्यक्तित्व की चर्चा लगभग नहीं के बराबर की गई है और जो की गई है वह प्रसंगोचित है। ऊपर जो उद्धरण दिए हैं उनसे इंदिरा गांधी का पेड़-पौधों के प्रति अनुराग प्रकट होता है, लेकिन पुस्तक सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इंदिरा जी का प्रकृति प्रेम उसके पूरे आयामों के साथ प्रकट हुआ है। पर्यावरण के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता और चिंता इसमें दस्तावेजों के साथ उभरकर सामने आई है। उन्हें प्राकृतिक विरासत के अलावा मानव निर्मित विरासत के संरक्षण की भी उतनी ही चिंता थी, यह भी हम जान पाते हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता के कारण भारत ही नहीं, सारी दुनिया के पर्यावरणविदों से उन्हें जो सम्मान मिला और वे कैसे एक पर्यावरण प्रेमी विश्वनेता मानी गईं, पुस्तक यह सब भी हमें बताती है। जयराम रमेश ने लेखकीय तटस्थता का भरपूर परिचय दिया है। राजनैतिक कारणों से इंदिरा जी को जब अपनी ही नीतियों के विपरीत जाकर झुकना पड़ा तो उसका वर्णन भी वे करते हैं। 

इंदिरा गांधी का प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम बचपन में ही प्रारंभ हो गया था। पंडित नेहरू ने पिता के पत्र पुत्री के नाम से उन्हें जो तेरह पत्र लिखे उनमें से पहले पांच धरती माता और प्रकृति को लेकर ही हैं। वे खुद लिखती हैं- इन पत्रों से मुझे मनुष्य जाति और विश्व के बारे में सोचने की प्रेरणा मिली। इन पत्रों ने मुझे सिखाया कि प्रकृति को भी पुस्तक की तरह ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। मैंने पेड़, पौधे, पत्थरों, कीड़े-मकोड़ों और तारों को देखने-समझने में अनगिन घंटे लगाए होंगे। 

मॉरीस मैटरलिंक बेल्जियन लेखक थे जिन्हें 1911 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उनकी किताब है- द लाइफ ऑफ द बी  याने मधुमक्खी का जीवन। यह पुस्तक नेहरूजी ने नैनी जेल के कारावास के दिन बिताते हुए दिसंबर 1930 में इंदिरा जी को भेजी थी जब वे मात्र तेरह वर्ष की थीं। इस पुस्तक का उनके ऊपर गहरा असर पड़ा। उन्होंने मैटरलिंक की अन्य किताबें भी पढ़ीं; फिर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के बारे में उन्होंने अपने पिता की सलाह पर एक के बाद एक किताबें पढऩा शुरू किया। 1932 में एक साल के दौरान मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने प्रकृति से संबंधित कोई साठ किताबें पढ़ डाली थीं। याने हर हफ्ते एक किताब से भी अधिक। जयराम रमेश इंदिरा जी के इस प्रकृति प्रेम का अध्ययन करते हुए कुछ उल्लेखनीय तथ्य सामने रखते हैं। 

मसलन 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का पहला अधिवेशन आयोजित हुआ। इसमें मेजबान देश के अलावा सिर्फ इंदिरा गांधी को ही मंच से बोलने का अवसर दिया गया। उनके व्याख्यान की दूर-दूर तक बहुत चर्चा हुई उनके व्याख्यान का एक महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार है- सबसे जरूरी और बुनियादी सवाल विश्व शांति का है। आधुनिक युद्ध कौशल से अधिक गैरजरूरी और कुछ नहीं है। जो हथियार बन रहे हैं वे न सिर्फ मारते हैं बल्कि जिंदगियों को अपाहिज कर देते हैं, उनको भी जो गर्भस्थ हैं, इनसे बढ़कर विनाशकारी और कुछ नहीं है। ये धरती में जहर घोलते हैं, चारों तरफ कुरूपता, विध्वंस और हताशा फैलाते हैं। क्या पर्यावरण से संबंधित कोई भी परियोजना युद्ध के माहौल में बच सकती है?

इसी भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि जब तक गरीबी दूर करने और आम जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए जाएंगे तब तक पर्यावरण दूषित होता रहेगा। मैंने यहां शब्दश: अनुवाद न कर इंदिरा जी के मनोभावों को अपने शब्दों में रखने की कोशिश की है। हम देख सकते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के प्रश्न को एक सीमित दायरे में नहीं बल्कि उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रही थीं। कुल जमा छह महीने पहले ही तो एक भारी कीमत चुकाकर बंगलादेश को आज़ादी मिली थी, जबकि अमेरिका और चीन पाकिस्तान की मध्यस्थता में एक-दूसरे से दोस्ताना संबंध कायम कर रहे थे। वियतनाम पर अमेरिकी हमला भी तब जारी था। ऐसे में भारत की प्रधानमंत्री ने सामयिक और सटीक बात करते हुए विश्व का ध्यान आकृष्ट किया कि एक बेहतर पर्यावरण शांति के माहौल में ही संभव है और उसके लिए विश्व के सारे देशों को मिलजुलकर कदम उठाने पड़ेंगे। उनकी यह व्यवहारिक सोच प्रधानमंत्री के रूप में लिए गए अनेक निर्णयों में दिखाई देती है। यद्यपि इससे कभी-कभी उनके पर्यावरणविद मित्रों को निराशा भी हुई, जो एकांगी दृष्टिकोण से पर्यावरण रक्षा की बात सोचते थे। 

जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक पूरी तरह से आधिकारिक दस्तावेजों और पत्राचार पर केन्द्रित की है जिससे पुस्तक की प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध होती है। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक को कालक्रम के अनुसार लिखा है जिससे पाठक इंदिरा जी के बचपन से लेकर अंत तक एक पर्यावरण हितैषी या प्रकृति प्रेमी के रूप में उनकी जीवनयात्रा को देख सकते हैं। जयराम रमेश ने स्टाकहोम सम्मेलन के अलावा पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया है कि भारत में बाघों की संरक्षण की योजना प्रोजेक्ट टाइगर उन्हीं की रुचि से प्रारंभ हो सकी। यही नहीं गिर के सिंह, कश्मीर के हांगुल हिरण, प्रवासी सारस, राजस्थान के ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, और तमिलनाडु के मगरमच्छ जैसे विनाश के कगार पर खड़े प्राणियों के संरक्षण के लिए भी उन्होंने प्रभावकारी कदम उठाए। वन्यजीव संरक्षण और वन संरक्षण के लिए बने दो महत्वपूर्ण कानून भी उनकी ही देन हैं। यह भी संयोग है कि भारतीय वन सेवा को स्थापित करने का निर्णय उनके ही कार्यकाल में लागू हुआ। इन सब तथ्यों को देखते हुए जयराम रमेश आग्रह करते हैं कि इंदिरा जी के व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं को कुछ देर के लिए बाजू में रखकर उनके व्यक्तित्व को एक 'हरे चश्मे’ से भी देखना चाहिए।
 
जिम कॉर्बेट, गिर, सरिस्का जैसे नेशनल पार्क, भरतपुर का केवलादेव घना पक्षी अभयारण इत्यादि पर्यावरण हितैषी उपक्रम इंदिरा जी के कार्यकाल में ही मूर्तरूप ले सके। उन्हें पूरे देश की खबर रहती थी कि पर्यावरण का विकास या विनाश कहां किस तरह से हो रहा है। सलीम अली, डिलैन रिप्ले, होरेस अलेक्जेंडर, धर्मकुमार सिंहजी, जफर फतेहअली, बिली अर्जुनसिंह, एम. कृष्णन जैसे उत्कृष्ट पर्यावरणविद उनके निजी मित्र थे। इनकी राय और सलाह वे ध्यानपूर्वक सुनती थीं। उनके कहने पर आवश्यक कदम उठाती थीं। दूसरी तरफ मौनी मल्होत्रा, एम.के. रणजीतसिंह, समर सिंह, आर. राजामणि, सलमान हैदर और माधव गाडगिल जैसे पर्यावरण से गहरा लगाव रखने वाले अधिकारी समय-समय पर उनके पास रहे जिन पर वे भरोसा कर काम सौंप सकती थीं। इंदिरा जी ने ही पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की और उसके पहले तीन सचिव क्रमश: एम.जी.के. मेनन, एस.जेड कासिम तथा टी.एन. खुशू अपने-अपने क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक थे। इन सबके यथासमय आवश्यक सहयोग से वे पर्यावरण सुधार व पर्यावरण संरक्षण के अनेक कार्यक्रमों को प्रारंभ व संचालित कर सकीं। उल्लेखनीय है कि इन योजनाओं में उन्हें कई बार भारी विरोध भी झेलना पड़ा। इसमें कभी न्यस्त स्वार्थों से प्रेरित विरोध था, तो कभी केन्द्र और राज्य के नेताओं की अपनी सीमित समझ और कभी स्थानीय राजनीति के दबाव। इनसे संबंधित कुछ ऐसे प्रसंगों का जिक्र जयराम रमेश ने किया है जो पाठकों को रुचिकर लग सकते हैं।
 
भारत में एक समय वन्यप्राणियों का शिकार वर्जित नहीं था। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ साल बाद तक भी यह कारोबार चल रहा था। कुछ लाइसेंसशुदा शिकार कंपनियां थीं जो विदेशी शिकारियों की सेवा करती थीं। इंदिरा गांधी ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को लिखा कि आपके यहां बाघों का शिकार हो रहा है, इसे बंद कर देना चाहिए। उल्लेखनीय है कि उस समय तक वन और वन्यप्राणी पूरी तरह से राज्य सरकार के विषय थे। श्री शुक्ल ने इस सलाह पर कोई कार्रवाई नहीं की तब इंदिरा जी ने नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें दूसरा पत्र लिखा। श्री शुक्ल को इसके बाद प्रधानमंत्री की बात अनिच्छा से माननी पड़ी। कुछ साल बाद इंदिरा गांधी को बाघ, तेंदुआ आदि की खालें निर्यात किए जाने की खबर मिली। ये खालें मध्यप्रदेश के सतना से दिल्ली लाई गई थीं। इंदिरा गांधी ने तब के मुख्यमंत्री प्रकाशचंद सेठी से दरयाफ्त किया कि आपके राज्य में अवैध शिकार कैसे हो रहा है। इस पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि श्यामाचरण शुक्ल के भाई विद्याचरण तो शिकार कंपनी चलाते थे, इसलिए उनकी रुचि शिकार रोकने में नहीं थी, लेकिन अब भी वैसा क्यों हो रहा है। 

मध्यप्रदेश का एक और प्रसंग है। बस्तर में सालवन काटकर चीड़ याने पाइन के वृक्षारोपण की एक महती परियोजना हाथ में ली गई। यह योजना वल्र्ड बैंक के सहयोग से लागू की जानी थी। इसका मुख्य उद्देश्य पेपर मिलों को लुगदी उपलब्ध कराना था। इस योजना का बस्तर में भी विरोध हुआ और राष्ट्रीय स्तर तक इसकी चर्चा हुई। (प्रसंगवश लिख दूं कि देशबन्धु ने इस प्रकरण को उजागर करने में अहम् भूमिका निभाई थी।) इंदिरा जी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को लिखा कि योजना रद्द की जाए। मुख्यमंत्री ने इस पर अपनी कोई सफाई भेजी वह इंदिरा जी ने स्वीकार नहीं की। अंतत: यह योजना रद्द कर दी गई। 

केरल की साइलेंट वैली, उड़ीसा की चिल्का झील पर नौसैनिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, आगरा-मथुरा के बीच मथुरा रिफाइनरी का निर्माण, बंबई का बेकबेरिक्लेमेशन इत्यादि अनेक योजनाएं थीं जिनमें इंदिरा जी कभी पूरी तरह अपनी बात नहीं मनवा सकीं। अक्सर कोई न कोई राजनीतिक या प्रशासनिक विवशता आड़े आ जाती थी। फिर भी उन्होंने जितना सोचा और किया वह आज एक दुर्लभ बात मानी जाएगी। इंदिरा गांधी निर्मित विरासत के संरक्षण के लिए भी बराबर प्रयत्नशील थीं। बंबई के निकट एलीफेंटा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर को बचाने के लिए उनके प्रयत्नों से ही एलीफेंटा द्वीप संरक्षित इलाका घोषित किया गया। जैसलमेर के किले में हो रहे क्षरण के प्रति भी वे चिंतित थीं। भारतीय पुरातत्व संरक्षण के गैरजिम्मेदाराना रवैये पर उन्होंने कई बार खुलकर आलोचना की। 

भारत के पर्वतीय स्थानों में अपने पुरखों का प्रदेश कश्मीर उन्हें अतिप्रिय था। इसके बाद मनाली से उन्हें बेहद लगाव था। वे चाहती थीं कि शिमला, नैनीताल, दार्जिलिंग जैसे नगर जिस तरह से व्यावसायिकता की भेंट चढ़ चुके हैं वैसा मनाली के साथ न हो और उसकी प्राकृतिक सुषमा बरकरार रही आए। दुर्भाग्य से उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। व्यावसायिक हितों ने मनाली की भी बलि ले ली। दरअसल वे हिमालय से अभिभूत थीं। भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के दशाब्दी समारोह में उन्होंने कहा- हिमालय ने हमारे इतिहास का निर्माण किया है, उसने हमारे दर्शन को रूपाकार प्रदान किया है, हमारे संतों और कवियों को प्रेरणा दी है, हमारा मौसम उससे प्रभावित होता है। एक समय हिमालय हमारा रक्षक था, आज आवश्यकता है कि हम हिमालय की रक्षा करें। 
पंडित नेहरू को सितंबर 1958 में तिब्बत यात्रा करना थी। किसी कारणवश यह यात्रा स्थगित हो गई। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन उपसचिव जगत मेहता के सुझाव पर भूटान यात्रा का कार्यक्रम बना। नेहरू जी ने तय किया कि वे भूटान यात्रा बर्फीले, पथरीले पहाड़ी रास्तों पर ट्रेकिंग करते हुए पूरी करेंगे। उनकी आयु तब उनसठ वर्ष थी। इंदिरा जी साथ में थीं। वे भी इकतालीस वर्ष की हो चली थीं। पिता-पुत्री दोनों को पहाड़ों से प्रेम था और बर्फ का उन्हें कोई खौफ नहीं था। प्रधानमंत्री का काफिला बागडोगरा तक हवाई जहाज से गया। वहां से गंगटोक मोटर कार से। फिर अगले दस दिन में एक सौ पांच किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर की जिसमें बारह हजार फीट, चौदह हजार फीट और पन्द्रह हजार फीट तक की चढ़ाई उन्हें तय करना पड़ी। यह एक अविस्मरणीय यात्रा थी। भूटान के साथ हमारे विश्वास और सहयोग के संबंध इस यात्रा से सुदृढ़ हुए। 
जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक में इस प्रसंग का भी विस्तार से उल्लेख किया है। कुल मिलाकर यह बेहद रोचक, पठनीय, ज्ञानवद्र्धक और प्रेरक पुस्तक है। इंदिरा गांधी की जन्मशती पर इससे बढ़कर श्रद्धांजलि और कुछ नहीं हो सकती थी। हमें संतोष है कि इस पुस्तक की चर्चा के बहाने हम भी इंदिरा गांधी के अप्रतिम योगदान का स्मरण कर सके।

अक्षर पर्व 2017 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक का नाम- इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर
लेखक- जयराम रमेश
प्रकाशक- साइमन एंड शूस्टर इंडिया, नई दिल्ली
मूल्य- 799 रुपए
प्रकाशन वर्ष- 2017 
 

Wednesday 8 November 2017

छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर एक अधूरी किताब

 मेरे सामने सौ से कुछ अधिक पृष्ठों की एक पुस्तक है जिसका शीर्षक है- छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता: हमारे पुरोधा । पुस्तक के लेखक व संपादक परितोष चक्रवर्ती हैं। परितोष ने 1968  के आसपास देशबन्धु से अपने पत्रकार जीवन की शुरूआत की थी। वे उस समय हिंदी जगत में एकमात्र पर्यटक संवाददाता थे। गांव-गांव घूमना और वहां की तस्वीर पाठकों के सामने रखना उनका काम था जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। देशबन्धु के बाद उन्होंने कहीं और भी काम किया, फिर पत्रकारिता छोड़ जनसंपर्क के क्षेत्र में चले गए। इस बीच उनकी साहित्य यात्रा भी जारी रही। वे एक कथाकार, उपन्यासकार व अनुवादक के रूप में जाने गए। ज्ञानरंजन द्वारा संपादित वामपंथी पत्रिका पहल  में एक समय वे मानद सहयोगी संपादक रहे। देशबन्धु के लिए उन्होंने जनरल शंकर रायचौधुरी द्वारा कारगिल युद्ध पर लिखी रिपोर्टों का अनुवाद भी किया। बाद में वे रायपुर के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में स्थापित माधवराव सप्रे पीठ के पहले अध्यक्ष नियुक्त हुए। आशय यह कि छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर एक संदर्भ पुस्तक लिखने के वे अधिकारी पात्र थे।

मैंने बहुत उम्मीद से इस पुस्तक को पढ़ने उठाया। मेरे लिए यह खुशी की बात थी कि जिन छत्तीस जनों पर उन्होंने लिखा, उनमें से ग्यारह जन तो कम या अधिक अवधि के लिए देशबन्धु से सम्बद्ध रहे थे। परितोष ने मेरा नाम भी इस सूची में शामिल करना आवश्यक समझा, इससे भी प्रसन्नता होना ही थी। यह बताना भी उचित होगा कि इस पुस्तक की रूपरेखा जब बन रही थी, तब परितोष चक्रवर्ती ने एकाधिक बार मुझसे नामों के बारे में सलाह-मशविरा किया था। स्पष्ट कर दूं कि मैंने अपना नाम उन्हें नहीं सुझाया था। लेकिन जिस रूप में पुस्तक प्रकाशित हुई है, उसने मुझे निराश किया है। परितोष ने छत्तीसगढ़ के वृहत्तर अध्ययन की दृष्टि  से एक आवश्यक दायित्व अपने कंधों पर लिया था, लेकिन लगता है कि साधनों के अभाव, स्वास्थ संबंधी परेशानियों, जल्दबाजी या इन सबके मिले-जुले प्रभाववश वे पुस्तक का सुचारु संपादन नहीं कर पाए।
सबसे पहले पुस्तक में शामिल छत्तीस नामों को ही ले लें। यह कतई आवश्यक नहीं था कि प्रदेश का नाम छत्तीसगढ़ है, इसलिए सिर्फ छत्तीस नाम ही लिए जाएं, बत्तीस या चालीस नहीं। प्रदेश की पत्रकारिता के इतिहास से जो लोग परिचित हैं उन्हें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि नामावली में ऐसे अनेक जनों को छोड़ दिया गया है, जिन्होंने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण योगदान किया है। यदि प्रारंभ से ही बात करें तो माधवराव सप्रे व रविशंकर शुक्ल के बाद ठाकुर प्यारेलाल सिंह का नाम आना चाहिए था। ठाकुर साहब ने साप्ताहिक राष्ट्रबन्धु की स्थापना की थी व उसमें वे नियमित लिखा करते थे। इसी तरह सुंदरलाल त्रिपाठी का नाम भी छोड़ दिया गया है, जो पं. रविशंकर शुक्ल द्वारा रायपुर डिस्ट्रिक्ट कौंसिल से प्रारंभ उत्थान पत्रिका के संपादक थे। त्रिपाठीजी की संस्कृत बोझिल भाषा को पढ़कर इसी रायपुर में तब पंडित नेहरू ने टिप्पणी की थी कि डिस्ट्रिक्ट कौंसिल ने पत्रिका निकालकर अच्छा काम किया है, लेकिन इसकी भाषा सरल होना चाहिए थी ताकि आम जनता को समझ में आ जाए।
मेरे विचार में इस सूची में द्वारिका प्रसाद मिश्र का समावेश भी होना चाहिए था। उनका बचपन व स्कूली जीवन छत्तीसगढ़ में ही बीता था। आगे चलकर उन्होंने लोकमतश्री शारदा और सारथी जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया था। अगर उन्हें एक पल के लिए छोड़ भी दें तो उनके सहपाठी रायपुर के नयापारा मुहल्ला निवासी कन्हैया लाल वर्मा का नाम तो होना ही चाहिए था क्योंकि वे बरसों तक रायपुर में हितवाद के संवाददाता रहे। इसी तरह पी.आर. दासगुप्ता का नाम भी संपादक को ध्यान नहीं आया। पी.आर. दासगुप्ता रायपुर प्रेस क्लब के पहले अध्यक्ष थे। युगधर्म रायपुर के पहले संपादक पद्माकर भाटे भी सूची से बाहर हैं और विष्णुदत्त मिश्र तरंगी जो महाकौशल के संपादक होने के अलावा एक जाने-माने लेखक थे। क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशंपायन उनके बाद महाकौशल के संपादक हुए। उन्हीं दिनों एम.वाई. बोधनकर हितवाद व स्टेट्समैन के संवाददाता थे। इन सबका प्रदेश की पत्रकारिता के विकास में महती योग रहा है।    
राजेन्द्रलाल गुप्ता ने कोरबा से वक्ता  टाइटल से उद्योगनगरी का पहला पत्र प्रारंभ किया था। वे भी इस पुस्तक में स्थान नहीं पा सके, न रामचन्द्र गुप्ता जिन्हें दुर्ग के पहले दैनिक चिंतक  प्रारंभ करने का श्रेय जाता है और न श्रीकिशन असावा जिन्होंने सरगुजा संभाग का पहला दैनिक अंबिकावाणी  स्थापित किया। ओम प्रकाश मिश्रा ने नवभारत से कॅरियर प्रारंभ किया था, वे आगे चलकर यूएनआई के वरिष्ठ पत्रकार रहे; के.आई. अहमद अब्बन जगदलपुर के थे, उन्होंने देशबन्धु में बरसों काम किया; फिर वे केन्द्रीय शिल्प बोर्ड में चले गए; इनके साथ देशबन्धु से ही शुरूआत करने वाले पंकज शर्मा थे, जिनकी भूटान में उपराष्ट्रपति के साथ दौरे से लौटते समय भूस्खलन में असमय मृत्यु हुई थी। उनके नाम रायपुर की पुरानी बस्ती में पंकज शर्मा उद्यान भी है। यह आश्चर्य की बात है कि परितोष इन सबको कैसे भूल गए। धीरज लाल जैन प्रदेश के ब्यूरो प्रमुखों में अग्रणी पत्रकार थे। उन्होंने लगभग साठ साल पत्रकारिता की पर उनका नाम भी नदारद है।
जैसा कि पाठक जानते हैं हाईवे चैनल प्रदेश का पहला संपूर्ण सांध्य दैनिक है। उसके प्रथम संपादक प्रभाकर चौबे भी सूची से बाहर हैं और विनोदशंकर शुक्ल भी जिन्होंने नवभारत से पत्रकारिता शुरू की और वर्षों तक छत्तीसगढ़ कॉलेज में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष रहे। दूसरी ओर कुछ नामों का समावेश क्यों हुआ है यह समझ में नहीं आता। बैरिस्टर छेदीलाल अप्रतिम स्वाधीनता सेनानी थे, लेकिन वे पत्रकार भी थे इसका कोई परिचय पुस्तक में शामिल उनके जीवनवृत्त से नहीं मिलता। पंडित रविशंकर शुक्ल ने उत्थान  और महाकौशल आरंभ किए थे, इस नाते उन्हें शामिल किया गया है, लेकिन यह महत्वपूर्ण तथ्य अंकित नहीं हुआ कि शुक्ल जी ने ही नागपुर टाइम्स  की स्थापना की थी। भवानी सेनगुप्ता इस अंग्रेजी अखबार के संपादक थे, उन्होंने बाद में चाणक्य सेन छद्मनाम से मुख्यमंत्री  शीर्षक उपन्यास लिखा था जो बहुचर्चित हुआ।
लेखक ने गजानन माधव मुक्तिबोध को छत्तीस पत्रकारों में शामिल किया है। वे निश्चित रूप से एक सजग पत्रकार थे, लेकिन वे अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अध्यापक के रूप में राजनांदगांव आए थे, अर्थात छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में उनका कोई योगदान नहीं था। उधर बिलासपुर के लोकप्रिय नेता बी.आर. यादव को भी स्थान मिला है, अपने कैरियर के प्रारंभिक वर्षों में उन्होंने पत्रकारिता की थी, लेकिन हमारे सामने उनकी छवि राजपुरुष की है, पत्रकार की नहीं। यदि उन्हें शामिल करना था तो मोतीलाल वोरा को क्यों छोड़ दिया गया, इस प्रदेश की पत्रकारिता में थोड़ा-बहुत योगदान तो उनका भी है।
पुस्तक का संयोजन भी किसी हद तक बेतरतीब है। ऐसी व्यक्तिचित्र वाली पुस्तकों में सामान्यत: दो तरह से सूचीकरण किया जाता है। या तो अकारादि क्रम से या फिर आयु की वरिष्ठता से। परितोष ने आयु की वरिष्ठता के अनुसार सूचीकरण किया है। ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से यह किसी हद तक ठीक था, लेकिन वे इसका पूरी तरह निर्वाह नहीं कर पाए। जैसे जून 1930 में जन्मे बी.आर. यादव का परिचय, दिसंबर 1931 में जन्मे श्रीकांत वर्मा से पहले आना चाहिए था। इसी तरह शरद कोठारी का नाम गुरुदेव काश्यप के पहले होना उचित था। श्यामलाल चतुर्वेदी, गोविंदलाल वोरा, बसंत अवस्थी, सत्येन्द्र गुमाश्ता, किरीट दोषी इनके परिचय भी सही क्रम में नहीं हैं। पत्रकारों के जीवनवृत्त भी आधे-अधूरे प्रतीत होते हैं। एक शोधपूर्ण कार्य में इस तरह की लापरवाही मैं क्षम्य नहीं मानता। 
बारह-बारह पत्रकारों के परिचय की दो संक्षिप्त पुस्तिकाएं भी विश्वविद्यालय ने प्रकाशित की थी। यह पुस्तक उस परियोजना की एक तरह से पूर्णाहुति है, लेकिन इसमें कहीं भी विश्वविद्यालय का नाम नहीं है। ऐसा क्यों कर हुआ इसका स्पष्टीकरण परितोष चक्रवर्ती ही दे सकते हैं। फिलहाल मुझे लग रहा है कि इस विषय पर पूरी तरह शोध करके नए सिरे से प्रकाशन होना चाहिए अन्यथा इस पुस्तक की उपयोगिता संदिग्ध बनी रहेगी।
देशबंधु में 09 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

Friday 3 November 2017

चम्पारण सत्याग्रह पर तीन किताबें

                                          

 ऐसा कहें कि महात्मा गांधी आज पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक प्रासंगिक हो गए हैं, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इस वर्ष चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी अवसर पर दूर-दूरांतर में जो आयोजन हुए, वे इस कथन की पुष्टि में सामने रखे जा सकते हैं। गांधीजी की यह प्रासंगिकता उनके जीवन दर्शन, राजनैतिक विचारों, अप्रतिम त्याग, तपस्या, और निर्भयता के संदर्भों में देखना आवश्यक है। वरना ऐसी शक्तियां भी हैं जो गांधीजी को इन सबसे हटकर साधु स्वभाव के ऐसे व्यक्ति के रूप में स्थापित करना चाहती हैं, जिसके जीवन का चरम लक्ष्य स्वच्छता था। ये ही शक्तियां गोपालकृष्ण गोखले के बजाय श्रावक रायचंद भाई अथवा श्रीमद् राजचंद्र को उनके गुरु के रूप में पदासीन करने के प्रयत्नों में लगी हैं। 'महात्मा के महात्मा’ शीर्षक से एक नाटक भारत के अनेक नगरों में खेला जा चुका है जिसका कथासार यही है। कहना न होगा कि गांधी की राजनीतिक विरासत को इस ओट में धूमिल अथवा नष्ट करने का विचार ही यहां बलवती है। बहरहाल, चंपारण सत्याग्रह शताब्दी को आधार बनाकर जो विचार मंथन हुआ है, वह हमें आश्वस्त करता है कि गांधी जीवन व दर्शन हमारे लिए सतत प्रेरणा स्रोत का काम करता रहेगा।

मेरी जानकारी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने चंपारण सत्याग्रह पर विशेष परिशिष्ट आदि प्रकाशित किए हैं, रायपुर सहित अनेक नगरों में परिसंवाद आयोजित हुए हैं; और यहां मैं विशेष उल्लेख करना चाहूंगा पत्रकार अरविंद मोहन द्वारा इसी विषय पर लिखी तीन पुस्तकों का, जो इसी साल प्रकाशित हुई हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली में युवा समाजकर्मी संजय कुमार ने ये पुस्तकें भेंट कीं तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी। चंपारण सत्याग्रह पर बीते समय में कभी डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पुस्तक लिखी थी, इस पर अंग्रेजी में भी किताबें लिखी गईं हैं, गांधी पर केंद्रित विपुल साहित्य में भी इसका उल्लेख होना ही था, गांधी समग्र अथवा कलेक्टेड वक्र्स ऑफ गांधी में भी चंपारण का विस्तृत विवरण मिलता है। इन सबके बावजूद शताब्दी अवसर पर एक नहीं बल्कि तीन-तीन किताबें प्रकाशित हों तो आनंद का कारण बनता है। इसलिए भी कि लेखक एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं और पुस्तकें हिंदी में हैं। इससे मेरी यह शिकायत भी आंशिक तौर पर कम होती है कि विद्वतजन हिंदी में इतिहास आदि साहित्येतर विषयों पर नहीं लिखते।
अरविंद मोहन की दो पुस्तकें- चम्पारण: सत्याग्रह की कहानी तथा चम्पारण: सत्याग्रह के सहयोगी  का प्रकाशन सस्ता साहित्य मंडल ने किया है, जबकि प्रयोग चम्पारण भारतीय ज्ञानपीठ से आई है। हम जानते हैं कि महात्मा गांधी द्वारा और उन पर लिखी गई पुस्तकों की संख्या सैकड़ों में नहीं, बल्कि हजारों में है। अरविंद मोहन की पुस्तकें पढऩे के बाद मैं कह सकता हूं कि उन्होंने इस खजाने को बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान किया है। दूसरी ओर हिंदी भाषा की भी सेवा उन्होंने सुंदर रूप में की है, जिसके लिए वे हमारी बधाई के हकदार बनते हैं। चंपारण : सत्याग्रह के सहयोगी  की चर्चा मैं पहले करना चाहता हूं। इसलिए कि यह किताब हमें सत्याग्रह के कुछ लगभग अनछुए पहलुओं से अवगत कराती है। जैसा कि शीर्षक से ध्वनित होता है, यह पुस्तक उन व्यक्तियों पर केंद्रित है जो चम्पारण सत्याग्रह में बापू के सहयोगी बने।
राजकुमार शुक्ल का नाम इनमें सबसे पहला है। वे ही तो थे जो 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गांधीजी से मिले थे और उन्हें चम्पारण आने का न्यौता दे आए थे। घर लौटने के बाद भी वे गांधीजी से निरंतर पत्राचार करते रहे और उन्हें बुलाकर ही माने। जब गांधीजी का कार्यक्रम बन गया तो कलकत्ता से लेकर पटना, मुजफ्फरपुर और चम्पारण के गांवों तक उनकी व्यवस्था करने के लिए शुक्लजी उठापटक करते रहे। अरविंद मोहन का मानना है कि गांधीजी को महात्मा का विरुद भले ही कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने दिया है, उन्हें महात्मा कहकर संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति राजकुमार शुक्ल थे। लेखक इसे स्पष्ट भी करते हैं कि बिहार में किसी श्रद्धास्पद व्यक्ति को महात्मा कहकर पुकारने का चलन रहा है। पुस्तक में पहला लेख उचित ही राजकुमार शुक्ल पर है। वे नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज साहबों से कैसे त्रस्त थे, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी, आदि विवरण इस लेख से मिलते हैं। गिरते स्वास्थ्य के कारण काफी जल्दी 1929 में उनका निधन हो गया। उन्हें मुखाग्नि छोटी बेटी देवपति ने दी, जो उस दौर में एक असामान्य घटना थी। जिस साहब से शुक्लजी का झगड़ा था, उसी ने उनकी मृत्यु के बाद बड़े दामाद की नौकरी लगवाई, यह प्रसंग भी लेख में है।
सत्याग्रह के सहयोगियों में विभिन्न पृष्ठभूमियों के लोग थे। मौलाना मजहरुल हक इंग्लैंड के दिनों से गांधीजी के मित्र थे, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, बृजकिशोर प्रसाद, आचार्य कृपलानी, अनुग्रह नारायण सिंह इत्यादि, जिन्होंने आगे चलकर प्रसिद्धि पाई, से उनका ठीक-ठीक परिचय चम्पारण प्रवास के समय ही हुआ। कस्तूरबा, देवदास भाई, दीनबंधु एंड्रूज, हेनरी पोलक, महादेव भाई भी उनके साथ रहे। इन सबका परिचय देना यहां आवश्यक नहीं है। पीर मुहम्मद मूनिस, हरबंश सहाय, प्रजापति मिश्र, शेख गुलाब, शीतल राय, खेन्धर राय जैसे स्थानीय व्यक्तियों से भी लेखक हमें परिचित कराते हैं, जिन्होंने सत्याग्रह को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री मूनिस पत्रकार थे और गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार 'प्रताप’ के लिए लिखते थे। उन्होंने एक दुखी आत्मा   के छद्म नाम से नील विभ्राट शीर्षक से नील की खेती के बारे में लिखा था और इस विषय पर संभवत: यह पहला लेख था। मूनिस बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक सदस्य थे। उन्होंने चम्पारण का इतिहास नामक किताब भी लिखी। शीतल राय और शेख गुलाब दो साहसी व्यक्ति थे, जो 1908-09 से ही निलहा साहबों के अत्याचार व शोषण के विरुद्ध जनजागृति करने में लग गए थे। पुस्तक में तीस सहयोगियों के संक्षिप्त जीवन वृत्त दिए गए हैं, ये मर्मस्पर्शी विवरण आम जनता के लिए सत्याग्रह के इतिहास में रह गई कमी को पूरा करते हैं।
प्रयोग चम्पारण व चम्पारण : सत्याग्रह की कहानी  की विषयवस्तु लगभग समान है। मैंने संयोगवश प्रयोग चम्पारण पहले पढ़ ली, इसलिए दूसरी किताब पढऩे में अधिक रस नहीं मिला। दोनों में यदि फर्क है तो विशेषत: इसलिए कि प्रयोग चम्पारण में कुछेक महत्वपूर्ण दस्तावेज 10-12 पृष्ठों के परिशिष्ट में समेट लिए गए हैं, जबकि चम्पारण: सत्याग्रह की कहानी में लगभग सत्तर पृष्ठ इन ऐतिहासिक दस्तावेजों के लिए दिए गए हैं। प्रयोग चम्पारण में आठ अध्याय हैं। ये पहले के गांधी से शुरू होकर बाकी रहा गांधी का सुगंध तक फैले हैं। लेखक ने पंद्रह-सोलह पृष्ठ की दीर्घ भूमिका भी लिखी है। इसमें हम अरविंद मोहन के पत्रकार रूप को कहीं-कहीं लेखक पर हावी होते देखते हैं। वे संचार माध्यमों की प्रभावशीलता पर कुछ विस्तार से ही बात करते हैं और गांधी को एक श्रेष्ठ कम्युनिकेटर होने का विशेषण देते हैं। वे कहते भी हैं कि इस पुस्तक में गांधी के चम्पारण सत्याग्रह के कम्युनिकेशन वाले इसी पक्ष पर ध्यान देने की कोशिश की गई है।  किंतु मेरा मानना है कि पुस्तक का यह एक छोटा पक्ष है। उन्होंने भूमिका में सबसे पते की जो बात लिखी है वह है- जो संभवत: सबसे बड़ी चीज चम्पारण और मुल्क को मिली वह थी गोरी चमड़ी और शासन से डर की विदाई।
यह सिर्फ संयोग नहीं कि रायपुर में इसी जुलाई में आयोजित एक वृहत कार्यक्रम में सारे वक्ताओं ने भय से मुक्त करवाने को ही गांधी के सत्याग्रह की सबसे प्रमुख देन बताया था। गांधी के संदर्भ में अन्यत्र भी यही विचार सामने आता है। उन्होंने भयमुक्त होने का मंत्र तो नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका में ही सिद्ध कर लिया था, किंतु भारत की जनता को उसका प्रत्यक्ष परिचय पहले-पहल चंपारण में हुआ, ऐसा मानना गलत नहीं होगा। लेखक ने एक अन्य महत्वपूर्ण और सटीक टिप्पणी की है कि गांधी ने अहिंसा को अपनाया और इसे एक राजनैतिक औजार बनाया पर न तो उनकी अहिंसा को अकेले बुद्ध-महावीर से जोड़ा जा सकता है और न पश्चिम के नॉन -वायलेंस से।  मेरा अपना प्रारंभ से मानना रहा है कि गांधी की अहिंसा एक राजनैतिक अस्त्र थी, जिसका कौशलपूर्वक इस्तेमाल उन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध किया। लेकिन पश्चिम के नॉन-वायलेंस से लेखक का क्या आशय है, मैं ठीक से नहीं समझ पाया। मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ज्वलंत उदाहरण सामने है जिनका समूचा आंदोलन गांधी दर्शन से प्रेरित था।
चंपारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि समझने के लिए पुस्तक का दूसरा अध्याय पहले का चम्पारण पढऩा अत्यन्त आवश्यक है। इस अध्याय में चंपारण क्षेत्र के भूगोल, इतिहास व सामाजिक स्थितियों का सम्यक परिचय मिलता है। हम सामान्य तौर पर जानते हैं कि सत्याग्रह नील की खेती करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ था, लेकिन लेखक स्पष्ट करता है कि 1916 आते-आते तक नील की खेती में रुचि घटने लगी थी, क्योंकि जर्मनी में रासायनिक नील का आविष्कार हो गया था। किसानों को पहले ही फसल का उचित दाम नहीं मिलता था, अब जब उन्होंने नील छोड़कर अन्य फसलें उगाने की सोची तो दमनकारी गोरों ने उन पर तरह-तरह की दुश्वार शर्तें लगा दीं, जिससे किसानों का जीवन और दुखदायी हो गया। इसका वर्णन लेखक ने विस्तार से किया है। उसने नील की खेती और नील बनाने के कारखानों का भी चित्रण बहुत बारीकी से किया है। यह बतलाता है कि चंपारण इलाके में तीस-पैंतीस हजार मजदूर उस जमाने में नील उत्पादन में संलग्न थे। उन्हें यदि सही मजदूरी मिलती तो चंपारण स्वर्ग बन गया होता।
दूसरे अध्याय में ही अरविंद मोहन ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। वे बताते हैं कि 1911 की जनगणना के मुताबिक संयुक्त बिहार-उड़ीसा प्रांत में 2700 गोरे थे, जिनमें से मात्र दो सौ चंपारण में थे, लेकिन भय, आतंक व दमन के बल पर इन मुठ्ठी भर लोगों ने जनता का जीना हराम कर रखा था। इस भय से मुक्ति दिलाने का काम ही तो गांधीजी ने किया। लेकिन उन्होंने एक चमत्कार और किया। शेख गुलाब और शीतल राय जैसे लोग उनके आने के पूर्व गोरों का विरोध हिंसक तरीकों से करते थे। वे गांधी के अनुयायी बनकर अहिंसाव्रती हो गए। लेखक ने जॉन बीम्स नामक अंग्रेज अफसर का जिक्र किया है जो 1867 के आसपास नवगठित चंपारण जिले के प्रथम कलेक्टर बनकर आए थे। नील कारोबारी गोरों ने उनकी आवभगत कर उन्हें अपने में शामिल करने की कोशिश की। उसमें सफलता नहीं मिली तो श्री बीम्स का तबादला जल्दी ही उड़ीसा कर दिया गया। भाषाविज्ञान के विद्यार्थी जॉन बीम्स को भारोपीय भाषाओं का व्याकरण लिखने के लिए जानते हैं। लेकिन उड़ीसा में पदस्थ होने के बाद उन्होंने ओडिय़ा भाषा को मान्यता दिलाने के लिए जो सफल प्रयत्न किए, उससे उड़ीसा के सांस्कृतिक परिदृश्य का ही कायाकल्प हो गया।
पुस्तक में लेखक ने दो रोचक प्रसंगों की चर्चा की है, जिन्हें उद्धृत करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। एक तो मुजफ्फरपुर पहुंचने पर गांधीजी प्रो. मलकानी के घर ठहरे। वहां नारियल का एक वृक्ष था। आचार्य कृपलानी ने गांधीजी के लिए नारियल तोडऩे हेतु पेड़ पर चढऩे की कोशिश की तो जांघ छिल गई। फिर वे कुछ दिनों तक लंगड़ाते रहे। दूसरा प्रसंग सीधे गांधीजी से संबंधित है। अंग्रेज सरकार गांधीजी द्वारा की जा रही जांच में सहयोग देने तैयार हो गई। प्रशासन ने पूछा- आपको क्या सहयोग चाहिए। गांधीजी ने कहा- एक मेज और दो कुर्सियां। प्रशासन के प्रतिनिधि ने कहा- हमारा भी एक आदमी आपके साथ रहेगा। गांधीजी का उत्तर था- एक कुर्सी और भेज दीजिए। इसके बाद बैलगाड़ी पर लादकर एक मेज, तीन कुर्सियां गांधीजी के डेरे पर भेज दी गईं। इससे यह भी पता चलता है कि वे कितने धीरज, चातुरी और विनोदवृत्ति से अपना काम साध लेते थे। एकाधिक स्थान पर लेखक ने गोरों द्वारा गांधीजी के भोजन में जहर मिलाकर मारने के षडय़ंत्र का उल्लेख किया है। वह कहता है कि राजेंद्र बाबू ने स्वयं इसे कई लोगों के समक्ष बयान किया था। किंतु इस बारे में इसके पहले हमने कोई चर्चा नहीं सुनी, और न कहीं पढ़ा।
अब तक के विवरण से स्पष्ट है कि अरविंद मोहन की पुस्तकें न सिर्फ राजनैतिक इतिहास के अध्येताओं के लिए, बल्कि जनसामान्य के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। किंतु मेरा मानना है कि पुस्तकों का संपादन भली-भांति नहीं हुआ है। क्या ऐसा पुस्तक शीघ्रता में प्रकाशित करने के कारण हुआ? मैं नहीं जानता। लेखक ने संदर्भ सामग्री के रूप में अनेक पुस्तकों का एकमुश्त उल्लेख तो किया है, लेकिन प्रसंग विशेष में कहां, किस स्रोत से जानकारी उठाई है, यह संकेत नहीं दिया है। एक शोधकार्य होने की दृष्टि से ये विवरण देना उपयुक्त होता। दूसरे, लेखक ने अपने कम्युनिस्ट विरोध का अनावश्यक प्रदर्शन कुछ जगहों पर किया है। जब वे अक्टूबर क्रांति के विफल होने की बात कहते हैं तो फिर यह भी बताना चाहिए था कि चंपारण सत्याग्रह की परिणति भारत में क्यों और कैसी हुई। वे एक जगह पर गांधीवादी धर्मपाल का उल्लेख करते हैं। मैं नहीं जानता कि दादाभाई नौरोजी और आरसी दत्त की पुस्तकों से आंकड़े उठाने वाले धर्मपाल किस तरह के गांधीवादी थे। गांधी के प्रभाव का जिक्र करते हुए उन्हें न मार्टिन लूथर किंग जूनियर याद आते और न नेल्सन मंडेला। दूसरी ओर वे फिलिस्तीनियों के संघर्ष को गांधी से प्रेरित बताते हैं।
भूमिका में वे किसी नामी इतिहासकार का उल्लेख करते हैं जिसने चंपारण सत्याग्रह  को गांधी की नौटंकी करार दिया था। अरविंद मोहन ने शोधपरक काम किया है, इस नाते उन्हें कथित इतिहासकार का नाम उजागर करने में संकोच नहीं होना चाहिए था। एक स्थान पर महर्षि धोंडो केशव कर्वे का नामोल्लेख प्रो. कार्वे  लिखकर किया गया है। बिहारी नामक अखबार के संपादक महेश्वर प्रसाद को पीडि़त किसानों का पक्ष लेने के कारण नौकरी खोना पड़ी, यह एक मार्मिक प्रसंग है। किंतु इसकी कुछ पंक्तियों बाद महान संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी को क्या-क्या भोगना पड़ा, कहते हुए वे चम्पारण सत्याग्रह से उसका क्या संबंध था, यह नहीं बताते।
अरविंद मोहन स्वयं गुणी पत्रकार हैं। अगर वे थोड़ा ध्यान पुस्तकों के संपादन पर दे पाते तो इन त्रुटियों से बचा जा सकता था। बहरहाल, उन्हें व प्रकाशक द्वय को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए हार्दिक बधाई।

अक्षर पर्व अक्टूबर 2017 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday 1 November 2017

ग्लैमर की चाहत : देश की हकीकत


 भारत की रीता फारिया ने 1966 में मिस वर्ल्ड का खिताब जीता था। इस सौन्दर्य प्रतियोगिता में मुकुट पहनने वाली वे पहली भारतीय होने के साथ-साथ पहली एशियन युवती भी थीं, स्वाभाविक है कि उन दिनों रीता फारिया ने अखबारों में खूब सुर्खियां बटोरीं। तेईस वर्षीय रीता मूलत: गोवा की थीं और उनका मध्यवर्गीय परिवार तब की बंबई में रहता था। रीता उस समय एमबीबीएस अंतिम की छात्रा थीं और कुछ माह बाद ही डॉक्टर बन गई थीं। मिस वर्ल्ड स्पर्धा के आयोजकों के साथ प्रतिभागियों को एक अनुबंध करना होता है। रीता फारिया को भी खिताब जीतने के बाद एक साल के लिए इस अनुबंध के तहत काम करना पड़ा जिसमें कुछेक सौंदर्य प्रसाधनों के लिए मॉडलिंग करने के अलावा उन्हें वियतनाम अमेरिकी सेना के मनोरंजन के लिए भी जाना पड़ा। इसे लेकर रीता फारिया की देश के भीतर बहुत आलोचना हुई क्योंकि भारत की जनता का खुला समर्थन अमेरिकी आधिपत्य से आजाद होने से लड़ रही वियतनामी जनता के साथ था। 
भारत की प्रथम विश्व सुंदरी को प्रायोजक कंपनी के साथ हुए करार का पालन तो करना ही था, लेकिन यह अच्छा हुआ कि उन्होंने ग्लैमर की दुनिया से तुरंत बाद विदा ले ली। उन्होंने उसके बाद मॉडलिंग न कर एक डॉक्टर के रूप में काम करना प्रारंभ किया। एक डॉक्टर से ही विवाह किया और चकाचौंध से अपने आपको दूर कर लिया। उन्हें धीरे-धीरे लोग भूल भी गए। लगभग तीन दशक बीत गए। 1994 में उनका नाम पुराने लोगों को एक बार फिर याद आया जब सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या ने क्रमश: मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड के खिताब हासिल किए। फिर तो भारत में जैसे विश्व सुंदरियों की कतार ही लग गई। युक्ता मुखी, प्रियंका चोपड़ा, डायना हेडन, लारा दत्ता आदि ने बाद के वर्षों में इन प्रतियोगिताओं में विजय मुकुट धारण किया। 1966 और 1994 के बीच जो तीन दशक बीते उस दरम्यान भारत में बहुत से परिवर्तन आए।1960 के दशक का भारत आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। तीन-तीन युद्ध, अकाल, संसाधनों का अभाव, इन कमियों के बावजूद जनता कृतसंकल्प थी कि एक नए देश का निर्माण करना है। विश्व रंगमंच पर भारत किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय तीसरी दुनिया के देशों का नेतृत्व कर रहा था। 
1966 में एक भारतीय युवती का विश्व सुंदरी बनना हमारे लिए एक खबर तो थी, लेकिन उसमें कोई बहुत गर्व करने लायक बात हमने नहीं समझी। देश की जनता जानती थी कि ऐसी सौंदर्य प्रतियोगिताओं का असली मकसद सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री बढ़ाना है, लेकिन 1994 आने तक भारत ने अपने आपको नवपूंजीवादी वैश्विकतंत्र से जोड़ लिया था। 1991 में पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था की नींव भारत में डाली गई वह बिना विघ्न-बाधा के चली आ रही है। सच तो यह है कि इसका बीजारोपण 1980 के आसपास हो चुका था। यद्यपि उसे अंकुराने में एक दशक का वक्त लग गया। इसलिए जब 1994 में भारत की दो किशोरियों ने विश्व सुंदरी के खिताब जीते तो देशवासियों को लगा मानो उन्होंने दुनिया को मुट्ठियों में कर लिया हो।
इन प्रतियोगिताओं के असली मकसद पर परदा डालने के लिए बेजोड़ बहाने ढूंढे गए। कहा गया कि मिस वर्ल्ड हो या मिस यूनिवर्स, यह खिताब अंग प्रदर्शन के लिए नहीं बल्कि प्रतिभागी के बौद्धिक स्तर को आंक कर दिया जाता है जबकि इस बौद्धिक स्तर के परीक्षण के लिए मात्र एक सवाल पूछा जाता था। जिस प्रतियोगिता में प्रतिभागी की देहयष्टि का परीक्षण इसलिए होता हो कि वह एक आकर्षक मॉडल बन सकती है या नहीं को किनारे कर सिर्फ एक सवाल में उसकी बुद्धिमत्ता मान ली गई और हम अपने देश की एक किशोरी के पुरस्कार जीतने पर खुशी से झूम उठे। यह इसलिए हो सका क्योंकि हमारी आंखों में एक नया सपना पलने लगा था। मैंने लगभग उन्हीं दिनों लिखा था कि ''इंडिया हैज अराव्इड'' के गुरूर में हम अपने जीवन की वास्तविकता को नजर अंदाज कर रहे हैं। यही समय तो था जब शेयर मार्केट में उछाल आना शुरू हुआ था और हर्षद मेहता को देश के नौजवानों के लिए आदर्श सिद्ध किया जा रहा था। एक तरफ सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय, दूसरी तरफ हर्षद मेहता और केतन पारेख; एक तरफ विश्व सुंदरियां, दूसरी तरफ पूंजी बाजार के सटोरिए।
आप जानना चाहेंगे कि आज मुझे ये सारे प्रसंग क्यों याद आ रहे हैं। हुआ यह कि देश की बहुप्रसारित और प्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे का 30 अक्टूबर 2017 का अंक मेरे सामने आया तो बीते दिनों के ये प्रसंग अनायास ध्यान आ गए। इस अंक की कवर स्टोरी या मुख्य कथा स्वदेशी सुपरमॉडल्स पर है। मुख पृष्ठ पर पुणे की एक मॉडल रसिका नवारे की न्यूयार्क में खींची गई तस्वीर है जिसमें वह गगनचुंबी इमारतों की ऊंचाइयों से होड़ ले रही है, साथ में शीर्षक है कि दुनिया के फैशन जगत में कैसे भारतीय मॉडल उच्च शिखर तक पहुंच रहे हैं। पत्रिका में प्रकाशित यह सचित्र आलेख तथ्यपरक है और सूचित करता है कि भारत की युवतियां मॉडलिंग की दुनिया में अपार सफलताएं प्राप्त कर रही हैं। पुणे, अहमदाबाद, बंगलुरु, मुंबई यहां तक कि ऊंटी, करनाल और रूद्रपुर जैसे छोटे नगरों से निकलकर ये लड़कियां पेरिस, मिलान, न्यूयार्क और लंदन जैसे महानगरों में धाक जमा रही हैं।
कुल मिलाकर रोचक पठनीय सामग्री है, लेकिन इससे आगे बढ़कर यह हमें नए भारत की एक नई सामाजिक सच्चाई से भी परिचित कराती है। भारत की कोई लड़की मिस वर्ल्ड बने या सुपरमॉडल, यह उसकी निजी पसंद, अभिलाषा, परिश्रम का परिणाम है। जैसे बछेंद्री पाल या संतोष यादव की एवरेस्ट विजय पर हमें गर्व होता है, वैसे ही देश की इन लड़कियों की कड़ी स्पर्धा में सफलता पर भी हम प्रसन्नता व्यक्त कर सकते हैं। भारतीय स्त्री पारंपरिक, रूढ़िवादी ढांचे से निकल कर अपनी नई अस्मिता स्थापित कर रही है, अपनी स्वतंत्र पहचान बना रही है, तो यह भी प्रसन्नता का विषय होना चाहिए। लेकिन मेरे मन में एक अलग किस्म का सवाल उभरता है कि भारत की नई पीढ़ी जो स्वप्न देख रही है क्या वह उसका अपना अकेले का स्वप्न है या उसके मनोलोक में कहीं देश की भी कोई तस्वीर है। यदि है तो वह किस तरह की है।
मुझे एक बात रह-रह कर परेशान करती है कि बीते वर्षों में हमने भारत को दो समानांतर सामाजिक इकाइयों में विभक्त कर दिया है। एक तरफ नितांत निजी इच्छाएं हैं जिनको पूरा करने की चाहत में एक वर्ग अपनी सारी शक्ति खर्च कर दे रहा है और इच्छा यदि पूरी हो जाए तो शेष समाज से वह एक अमिट दूरी बना लेता है। दूसरी तरफ लगभग सौ करोड़ की विशाल आबादी है जिसके सामने शायद कोई सपना ही नहीं है। जिसकी इच्छाओं पर पहरा बैठा दिया गया है। देश की प्रभुसत्ता जिनके हाथों में है वे उसे बीच-बीच में थपकियां देकर बहलाते रहते हैं। इसके विस्तार में न जाकर सिर्फ स्त्रियों की ही बात करूं तो इस विशाल वर्ग में वे लड़कियां हैं जिनका विवाह बचपन में कर दिया जाता है, जिनके कन्यादान के लिए सरकार पैसे देती है और आकर्षक नामों की सरकारी योजनाएं चलाई जाती हैं। अनेक प्रकार से मोहताज बेटियां क्या स्वप्न देखें और कैसे देखें?
सचमुच एक नया भारत बन रहा है, जिसमें मुखपृष्ठ पर सुपरमॉडल है और भीतर भगवा वस्त्रधारी योगी युवा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का सात पेज का विज्ञापन! देश को इन दोनों समानांतर धाराओं के बीच अपना रास्ता तय करना है।     
देशबंधु में  02 नवंबर 2017 को प्रकाशित