Friday 10 November 2017

इंदिरा गाँधी:एक प्रकृतिमय जीवन



1978 या 79 की गर्मियों का वाकया है। इंदिरा गांधी (वे उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं थीं) और पी.वी. नरसिंह राव बंगलौर से मैसूर जा रहे थे। उनके साथ एक पूर्व परिचित अमेरिकी राजनैतिक विश्लेषक भी थे। उनके मन में शायद इंदिरा जी से तत्कालीन राजनीति पर बात करने की इच्छा रही होगी! इंदिरा जी तीन घंटे की यात्रा के दौरान दोनों सहयात्रियों को रास्ते के पेड़-पौधों के बारे में जानकारी देती रहीं। सफर खत्म हुआ तो श्री राव ने अमेरिकी सज्जन से कहा- इन्हें तो राजनीति में जाने के बजाय वनस्पति शास्त्र का प्रोफेसर होना चाहिए था। 

इसके कुछ समय बाद का एक अन्य प्रसंग है। आर. राजामणि प्रधानमंत्री कार्यालय में अधिकारी थे। वे इंदिराजी के साथ एक यात्रा पर गए थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा- हम छोटे से डाक बंगले से बाहर निकले तो क्यारी में लगे एक फूल वाले पौधे के बारे में इंदिरा जी ने मुझसे पूछा- इस पौधे का नाम जानते हो? मैंने उत्तर दिया- हमारे यहां इसे श्मशान फूल कहा जाता है। इस पर इंदिरा जी ने जानकारी दी कि यह औषधीय गुण वाला पैरीविंकल (सदा सुहागन) है जिसके रसायन से कैंसर की दवा भी बनती है। उन्होंने पौधे का वानस्पतिक नाम भी मुझे बतलाया। 

मैंने उपरोक्त दोनों प्रसंग जयराम रमेश की इसी वर्ष प्रकाशित पुस्तक इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर से लिए हैं। श्री रमेश का परिचय देने की यहां कोई आवश्यकता नहीं है। इंदिरा जी के जन्मशती वर्ष में यह पुस्तक प्रकाशित कर उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण काम किया है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही पता चलता है कि यह इंदिरा गांधी के प्रकृति प्रेम पर केन्द्रित है। पुस्तक में इंदिरा गांधी के राजनीतिक व्यक्तित्व की चर्चा लगभग नहीं के बराबर की गई है और जो की गई है वह प्रसंगोचित है। ऊपर जो उद्धरण दिए हैं उनसे इंदिरा गांधी का पेड़-पौधों के प्रति अनुराग प्रकट होता है, लेकिन पुस्तक सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इंदिरा जी का प्रकृति प्रेम उसके पूरे आयामों के साथ प्रकट हुआ है। पर्यावरण के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता और चिंता इसमें दस्तावेजों के साथ उभरकर सामने आई है। उन्हें प्राकृतिक विरासत के अलावा मानव निर्मित विरासत के संरक्षण की भी उतनी ही चिंता थी, यह भी हम जान पाते हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता के कारण भारत ही नहीं, सारी दुनिया के पर्यावरणविदों से उन्हें जो सम्मान मिला और वे कैसे एक पर्यावरण प्रेमी विश्वनेता मानी गईं, पुस्तक यह सब भी हमें बताती है। जयराम रमेश ने लेखकीय तटस्थता का भरपूर परिचय दिया है। राजनैतिक कारणों से इंदिरा जी को जब अपनी ही नीतियों के विपरीत जाकर झुकना पड़ा तो उसका वर्णन भी वे करते हैं। 

इंदिरा गांधी का प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम बचपन में ही प्रारंभ हो गया था। पंडित नेहरू ने पिता के पत्र पुत्री के नाम से उन्हें जो तेरह पत्र लिखे उनमें से पहले पांच धरती माता और प्रकृति को लेकर ही हैं। वे खुद लिखती हैं- इन पत्रों से मुझे मनुष्य जाति और विश्व के बारे में सोचने की प्रेरणा मिली। इन पत्रों ने मुझे सिखाया कि प्रकृति को भी पुस्तक की तरह ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। मैंने पेड़, पौधे, पत्थरों, कीड़े-मकोड़ों और तारों को देखने-समझने में अनगिन घंटे लगाए होंगे। 

मॉरीस मैटरलिंक बेल्जियन लेखक थे जिन्हें 1911 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उनकी किताब है- द लाइफ ऑफ द बी  याने मधुमक्खी का जीवन। यह पुस्तक नेहरूजी ने नैनी जेल के कारावास के दिन बिताते हुए दिसंबर 1930 में इंदिरा जी को भेजी थी जब वे मात्र तेरह वर्ष की थीं। इस पुस्तक का उनके ऊपर गहरा असर पड़ा। उन्होंने मैटरलिंक की अन्य किताबें भी पढ़ीं; फिर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के बारे में उन्होंने अपने पिता की सलाह पर एक के बाद एक किताबें पढऩा शुरू किया। 1932 में एक साल के दौरान मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने प्रकृति से संबंधित कोई साठ किताबें पढ़ डाली थीं। याने हर हफ्ते एक किताब से भी अधिक। जयराम रमेश इंदिरा जी के इस प्रकृति प्रेम का अध्ययन करते हुए कुछ उल्लेखनीय तथ्य सामने रखते हैं। 

मसलन 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का पहला अधिवेशन आयोजित हुआ। इसमें मेजबान देश के अलावा सिर्फ इंदिरा गांधी को ही मंच से बोलने का अवसर दिया गया। उनके व्याख्यान की दूर-दूर तक बहुत चर्चा हुई उनके व्याख्यान का एक महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार है- सबसे जरूरी और बुनियादी सवाल विश्व शांति का है। आधुनिक युद्ध कौशल से अधिक गैरजरूरी और कुछ नहीं है। जो हथियार बन रहे हैं वे न सिर्फ मारते हैं बल्कि जिंदगियों को अपाहिज कर देते हैं, उनको भी जो गर्भस्थ हैं, इनसे बढ़कर विनाशकारी और कुछ नहीं है। ये धरती में जहर घोलते हैं, चारों तरफ कुरूपता, विध्वंस और हताशा फैलाते हैं। क्या पर्यावरण से संबंधित कोई भी परियोजना युद्ध के माहौल में बच सकती है?

इसी भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि जब तक गरीबी दूर करने और आम जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए जाएंगे तब तक पर्यावरण दूषित होता रहेगा। मैंने यहां शब्दश: अनुवाद न कर इंदिरा जी के मनोभावों को अपने शब्दों में रखने की कोशिश की है। हम देख सकते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के प्रश्न को एक सीमित दायरे में नहीं बल्कि उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रही थीं। कुल जमा छह महीने पहले ही तो एक भारी कीमत चुकाकर बंगलादेश को आज़ादी मिली थी, जबकि अमेरिका और चीन पाकिस्तान की मध्यस्थता में एक-दूसरे से दोस्ताना संबंध कायम कर रहे थे। वियतनाम पर अमेरिकी हमला भी तब जारी था। ऐसे में भारत की प्रधानमंत्री ने सामयिक और सटीक बात करते हुए विश्व का ध्यान आकृष्ट किया कि एक बेहतर पर्यावरण शांति के माहौल में ही संभव है और उसके लिए विश्व के सारे देशों को मिलजुलकर कदम उठाने पड़ेंगे। उनकी यह व्यवहारिक सोच प्रधानमंत्री के रूप में लिए गए अनेक निर्णयों में दिखाई देती है। यद्यपि इससे कभी-कभी उनके पर्यावरणविद मित्रों को निराशा भी हुई, जो एकांगी दृष्टिकोण से पर्यावरण रक्षा की बात सोचते थे। 

जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक पूरी तरह से आधिकारिक दस्तावेजों और पत्राचार पर केन्द्रित की है जिससे पुस्तक की प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध होती है। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक को कालक्रम के अनुसार लिखा है जिससे पाठक इंदिरा जी के बचपन से लेकर अंत तक एक पर्यावरण हितैषी या प्रकृति प्रेमी के रूप में उनकी जीवनयात्रा को देख सकते हैं। जयराम रमेश ने स्टाकहोम सम्मेलन के अलावा पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया है कि भारत में बाघों की संरक्षण की योजना प्रोजेक्ट टाइगर उन्हीं की रुचि से प्रारंभ हो सकी। यही नहीं गिर के सिंह, कश्मीर के हांगुल हिरण, प्रवासी सारस, राजस्थान के ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, और तमिलनाडु के मगरमच्छ जैसे विनाश के कगार पर खड़े प्राणियों के संरक्षण के लिए भी उन्होंने प्रभावकारी कदम उठाए। वन्यजीव संरक्षण और वन संरक्षण के लिए बने दो महत्वपूर्ण कानून भी उनकी ही देन हैं। यह भी संयोग है कि भारतीय वन सेवा को स्थापित करने का निर्णय उनके ही कार्यकाल में लागू हुआ। इन सब तथ्यों को देखते हुए जयराम रमेश आग्रह करते हैं कि इंदिरा जी के व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं को कुछ देर के लिए बाजू में रखकर उनके व्यक्तित्व को एक 'हरे चश्मे’ से भी देखना चाहिए।
 
जिम कॉर्बेट, गिर, सरिस्का जैसे नेशनल पार्क, भरतपुर का केवलादेव घना पक्षी अभयारण इत्यादि पर्यावरण हितैषी उपक्रम इंदिरा जी के कार्यकाल में ही मूर्तरूप ले सके। उन्हें पूरे देश की खबर रहती थी कि पर्यावरण का विकास या विनाश कहां किस तरह से हो रहा है। सलीम अली, डिलैन रिप्ले, होरेस अलेक्जेंडर, धर्मकुमार सिंहजी, जफर फतेहअली, बिली अर्जुनसिंह, एम. कृष्णन जैसे उत्कृष्ट पर्यावरणविद उनके निजी मित्र थे। इनकी राय और सलाह वे ध्यानपूर्वक सुनती थीं। उनके कहने पर आवश्यक कदम उठाती थीं। दूसरी तरफ मौनी मल्होत्रा, एम.के. रणजीतसिंह, समर सिंह, आर. राजामणि, सलमान हैदर और माधव गाडगिल जैसे पर्यावरण से गहरा लगाव रखने वाले अधिकारी समय-समय पर उनके पास रहे जिन पर वे भरोसा कर काम सौंप सकती थीं। इंदिरा जी ने ही पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की और उसके पहले तीन सचिव क्रमश: एम.जी.के. मेनन, एस.जेड कासिम तथा टी.एन. खुशू अपने-अपने क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक थे। इन सबके यथासमय आवश्यक सहयोग से वे पर्यावरण सुधार व पर्यावरण संरक्षण के अनेक कार्यक्रमों को प्रारंभ व संचालित कर सकीं। उल्लेखनीय है कि इन योजनाओं में उन्हें कई बार भारी विरोध भी झेलना पड़ा। इसमें कभी न्यस्त स्वार्थों से प्रेरित विरोध था, तो कभी केन्द्र और राज्य के नेताओं की अपनी सीमित समझ और कभी स्थानीय राजनीति के दबाव। इनसे संबंधित कुछ ऐसे प्रसंगों का जिक्र जयराम रमेश ने किया है जो पाठकों को रुचिकर लग सकते हैं।
 
भारत में एक समय वन्यप्राणियों का शिकार वर्जित नहीं था। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ साल बाद तक भी यह कारोबार चल रहा था। कुछ लाइसेंसशुदा शिकार कंपनियां थीं जो विदेशी शिकारियों की सेवा करती थीं। इंदिरा गांधी ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को लिखा कि आपके यहां बाघों का शिकार हो रहा है, इसे बंद कर देना चाहिए। उल्लेखनीय है कि उस समय तक वन और वन्यप्राणी पूरी तरह से राज्य सरकार के विषय थे। श्री शुक्ल ने इस सलाह पर कोई कार्रवाई नहीं की तब इंदिरा जी ने नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें दूसरा पत्र लिखा। श्री शुक्ल को इसके बाद प्रधानमंत्री की बात अनिच्छा से माननी पड़ी। कुछ साल बाद इंदिरा गांधी को बाघ, तेंदुआ आदि की खालें निर्यात किए जाने की खबर मिली। ये खालें मध्यप्रदेश के सतना से दिल्ली लाई गई थीं। इंदिरा गांधी ने तब के मुख्यमंत्री प्रकाशचंद सेठी से दरयाफ्त किया कि आपके राज्य में अवैध शिकार कैसे हो रहा है। इस पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि श्यामाचरण शुक्ल के भाई विद्याचरण तो शिकार कंपनी चलाते थे, इसलिए उनकी रुचि शिकार रोकने में नहीं थी, लेकिन अब भी वैसा क्यों हो रहा है। 

मध्यप्रदेश का एक और प्रसंग है। बस्तर में सालवन काटकर चीड़ याने पाइन के वृक्षारोपण की एक महती परियोजना हाथ में ली गई। यह योजना वल्र्ड बैंक के सहयोग से लागू की जानी थी। इसका मुख्य उद्देश्य पेपर मिलों को लुगदी उपलब्ध कराना था। इस योजना का बस्तर में भी विरोध हुआ और राष्ट्रीय स्तर तक इसकी चर्चा हुई। (प्रसंगवश लिख दूं कि देशबन्धु ने इस प्रकरण को उजागर करने में अहम् भूमिका निभाई थी।) इंदिरा जी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को लिखा कि योजना रद्द की जाए। मुख्यमंत्री ने इस पर अपनी कोई सफाई भेजी वह इंदिरा जी ने स्वीकार नहीं की। अंतत: यह योजना रद्द कर दी गई। 

केरल की साइलेंट वैली, उड़ीसा की चिल्का झील पर नौसैनिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, आगरा-मथुरा के बीच मथुरा रिफाइनरी का निर्माण, बंबई का बेकबेरिक्लेमेशन इत्यादि अनेक योजनाएं थीं जिनमें इंदिरा जी कभी पूरी तरह अपनी बात नहीं मनवा सकीं। अक्सर कोई न कोई राजनीतिक या प्रशासनिक विवशता आड़े आ जाती थी। फिर भी उन्होंने जितना सोचा और किया वह आज एक दुर्लभ बात मानी जाएगी। इंदिरा गांधी निर्मित विरासत के संरक्षण के लिए भी बराबर प्रयत्नशील थीं। बंबई के निकट एलीफेंटा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर को बचाने के लिए उनके प्रयत्नों से ही एलीफेंटा द्वीप संरक्षित इलाका घोषित किया गया। जैसलमेर के किले में हो रहे क्षरण के प्रति भी वे चिंतित थीं। भारतीय पुरातत्व संरक्षण के गैरजिम्मेदाराना रवैये पर उन्होंने कई बार खुलकर आलोचना की। 

भारत के पर्वतीय स्थानों में अपने पुरखों का प्रदेश कश्मीर उन्हें अतिप्रिय था। इसके बाद मनाली से उन्हें बेहद लगाव था। वे चाहती थीं कि शिमला, नैनीताल, दार्जिलिंग जैसे नगर जिस तरह से व्यावसायिकता की भेंट चढ़ चुके हैं वैसा मनाली के साथ न हो और उसकी प्राकृतिक सुषमा बरकरार रही आए। दुर्भाग्य से उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। व्यावसायिक हितों ने मनाली की भी बलि ले ली। दरअसल वे हिमालय से अभिभूत थीं। भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के दशाब्दी समारोह में उन्होंने कहा- हिमालय ने हमारे इतिहास का निर्माण किया है, उसने हमारे दर्शन को रूपाकार प्रदान किया है, हमारे संतों और कवियों को प्रेरणा दी है, हमारा मौसम उससे प्रभावित होता है। एक समय हिमालय हमारा रक्षक था, आज आवश्यकता है कि हम हिमालय की रक्षा करें। 
पंडित नेहरू को सितंबर 1958 में तिब्बत यात्रा करना थी। किसी कारणवश यह यात्रा स्थगित हो गई। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन उपसचिव जगत मेहता के सुझाव पर भूटान यात्रा का कार्यक्रम बना। नेहरू जी ने तय किया कि वे भूटान यात्रा बर्फीले, पथरीले पहाड़ी रास्तों पर ट्रेकिंग करते हुए पूरी करेंगे। उनकी आयु तब उनसठ वर्ष थी। इंदिरा जी साथ में थीं। वे भी इकतालीस वर्ष की हो चली थीं। पिता-पुत्री दोनों को पहाड़ों से प्रेम था और बर्फ का उन्हें कोई खौफ नहीं था। प्रधानमंत्री का काफिला बागडोगरा तक हवाई जहाज से गया। वहां से गंगटोक मोटर कार से। फिर अगले दस दिन में एक सौ पांच किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर की जिसमें बारह हजार फीट, चौदह हजार फीट और पन्द्रह हजार फीट तक की चढ़ाई उन्हें तय करना पड़ी। यह एक अविस्मरणीय यात्रा थी। भूटान के साथ हमारे विश्वास और सहयोग के संबंध इस यात्रा से सुदृढ़ हुए। 
जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक में इस प्रसंग का भी विस्तार से उल्लेख किया है। कुल मिलाकर यह बेहद रोचक, पठनीय, ज्ञानवद्र्धक और प्रेरक पुस्तक है। इंदिरा गांधी की जन्मशती पर इससे बढ़कर श्रद्धांजलि और कुछ नहीं हो सकती थी। हमें संतोष है कि इस पुस्तक की चर्चा के बहाने हम भी इंदिरा गांधी के अप्रतिम योगदान का स्मरण कर सके।

अक्षर पर्व 2017 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक का नाम- इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर
लेखक- जयराम रमेश
प्रकाशक- साइमन एंड शूस्टर इंडिया, नई दिल्ली
मूल्य- 799 रुपए
प्रकाशन वर्ष- 2017 
 

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