Wednesday 20 December 2017

यात्रा वृतांत: फ़ाज़िल्का की हवेली

                                             

 यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि 1966 में और फिर 1968 में जब मैं दुबारा वहां गया तब फ़ाज़िल्का एक बड़े कस्बे जैसी जगह रही होगी। विगत पचास वर्षों में देश के हर शहर और हर गांव का नक्शा बदला है, तो पश्चिमी सीमा पर बसा यह नगर भी उस बदलाव से अछूता कैसे रहता! प्रसंगवश मुझे ध्यान आता है कि मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास बनखेड़ी एक साधारण गांव था। दो-तीन साल पहले वहां से गुजरा तो देखा रेल लाइन के पास नई बनखेड़ी के नाम से एक समानांतर बसाहट कायम हो गई है। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व कवर्धा से राजनांदगांव के लिए देर शाम निकला तो रास्ते में सहसपुर लोहारा की जगमगाहट देखकर आश्चर्य में पड़ गया। जो गांव पहले सड़क से काफी भीतर हुआ करते थे अब वे सड़क किनारे आ गए हैं और सड़क किनारे के खेतों की जगह बड़े-छोटे मकान तन गए हैं। यह बदलाव हम रायपुर में भी तो देख रहे हैं जहां क्रमश: रायपुर, पुरानी बस्ती, बूढ़ापारा से शंकरनगर, अनुपम नगर होते हुए अब एक नए शहर के रूप में नया रायपुर विकसित हो रहा है।
फ़ाज़िल्का पिछली दो बार की तरह इस बार भी हम एक वैवाहिक कार्यक्रम में शरीक होने ही गए थे। आत्मीय परिजन रमेश जिनके बेटे का विवाह था, उन्होंने हम कुछ लोगों के ठहरने की व्यवस्था हाल-हाल में खुले एक नए होटल में की थी। यह होटल एक नई सड़क पर था जिसका नाम भी न्यू अबोहर रोड था। उस पर एक फ्लाईओवर भी बन गया था। इस रोड पर हमारे होटल के आगे कोई आधा दर्जन नई शैली के विवाह मंडप बन गए थे। उनकी भव्यता चकित करने वाली थी। इनमें सौ-सौ गाड़ियां खड़ी हो जाएं, इतनी बड़ी पार्किंग व्यवस्था थी। ठंड के दिन हैं तो हाल में भोजन व्यवस्था और वह भी ऐसी कि एक बार में चार-पांच सौ लोग साथ-साथ खड़खाना (बूफे को यह नाम मराठी के प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक गंगाधर गाडगिल का दिया हुआ है) का आनंद ले सकें। रायपुर जैसे बड़े शहर में ऐसी व्यवस्था हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। पंजाब के सीमावर्ती नगर में भी अगर ऐसा ही सरंजाम था तो शायद इसका श्रेय पंजाबी समाज की उत्सवप्रियता को दिया जा सकता है। सामान्यत: विवाह में भोजन शाकाहारी ही होता है, लेकिन यदि विवाह मंडप में मद्यपान की व्यवस्था भी हो तो इसे उनकी उत्सव मनाने की परंपरा का अंग मानना चाहिए।
एक तरफ विकसित होता हुआ नया इलाका और दूसरी ओर नगर की पुरानी बसाहट। फ़ाज़िल्का और आसपास का क्षेत्र कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां के कपास की बिक्री मुख्यत: लगभग पचास किलोमीटर दूर अबोहर में होती थी इसलिए आज भी अबोहर के साथ मंडी प्रत्यय जुड़ा हुआ है। जबकि फ़ाज़िल्का को स्थानीय लोग आपस में नगर कहकर पुकारते हैं। यह पर्यायवाची कैसे प्रचलित हुआ मैं नहीं जान पाया, लेकिन अनुमान लगाता हूं कि कपास नकदी फसल है, यहां के किसान पहले से ही समृद्ध रहे हैं, उसके अनुरूप यहां नागरिक सुविधाएं विकसित हुई होंगी और नगर का विशेषण इसीलिए मिल गया होगा। मेरा यह अनुमान दो-ढाई दिन के प्रवास में पुष्ट हुआ। जब हम पहुंचे तो भाई रमेश ने कुछ अफसोस जताते हुए कहा कि मैं तो आपको हवेली में ठहराना चाहता था, लेकिन आप वहां अकेले न पड़ जाएं इसलिए होटल में आपकी व्यवस्था की है। मैं यह सुनकर ही चौंक गया कि यहां ऐसी कौन सी हवेली है! 
शहर के पुराने हिस्से में बीच बाजार एक संकरी गली में जब हवेली देखी तो आश्चर्य के साथ-साथ प्रसन्नता भी बहुत हुई। मुझे तो जैसे एक नायाब खजाना हाथ लग गया। इतिहास, पुरातत्व, विरासत स्थल इन सब में मुझे गहरी रुचि है इसलिए यह प्रसन्नता हुई। यह हवेली सन् 1845 में बनी थी याने आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले। राजस्थान में बीकानेर के पास किसी छोटे गांव से निकलकर सूरतगढ़, श्रीगंगानगर होते हुए माहेश्वरी समाज से संबंधित एक पेड़ीवाल परिवार सन् 1841 में यहां व्यापार के सिलसिले में आकर बसा था। चार साल के भीतर उन्होंने अपने रहने के लिए यह हवेली बनवाई थी। इसमें कालांतर में परिवर्तन भी हुए, कुछ नया निर्माण भी हुआ और परिवार बढ़ने के साथ-साथ आगे चलकर विभाजन भी हुआ। हवेली का जो भाग हमने देखा उससे लगे हुए उसी परिवार के दो अन्य रिहायशी भवन भी हैं इन्हें देखते हुए मुझे जबलपुर में राजा गोकुलदास महल, जिसे बखरी के नाम से जाना जाता है, का ध्यान आ गया। यह हवेली उस बखरी का एक लघुरूप ही मुझे प्रतीत हुई।
सुशील पेड़ीवाल हवेली के वर्तमान मालिक हैं। उन्होंने अपने दादा रायसाहब शोपतराय पेड़ीवाल की स्मृति में इसका नामकरण किया है। पेड़ीवाल परिवार का पिछले डेढ़ सौ साल से व्यापार जगत में नाम है ही, उन्होंने जिस जगह आकर भौतिक समृद्धि अर्जित की, उस मिट्टी के प्रति अपना कर्ज उतारने के भी उपक्रम किए। सौ साल से अधिक पुराने सिविल अस्पताल का जनाना वार्ड इसी परिवार ने बनवाया, जलप्रदाय व्यवस्था भी की और बाजार चौक में घंटाघर का निर्माण भी करवाया। इनकी तीन-चार पीढ़ियां भी स्थानीय नगरपालिका में अध्यक्ष पद पर काबिज रहीं। घंटाघर हवेली से कोई आधा फर्लांग की दूरी पर है। उसका रख-रखाव आज भी सुशील पेड़ीवाल के सहयोग से होता है। इसका निर्माण हुए भी सौ साल से ऊपर हो गए हैं और इस नाते इसकी गणना भी विरासत स्थल के रूप में होने योग्य है।
बहरहाल हवेली की बात करें। यह एक खूबसूरत आवासीय भवन है, जिससे हमें आज से दो सौ साल पहले की अपने देश की भवन निर्माण कला और कौशल का परिचय मिलता है। इसमें दरवाजों पर की गई नक्काशी बेहद खूबसूरत है। पुराने चित्र और भित्तिचित्र हैं। वे उस दौर के कलाकारों की प्रतिभा को दर्शाते हैं। भवन के बीच में खुला आंगन है जैसे कि पहले के अधिकतर मकान हुआ करते थे। खुले आंगन के कारण तापमान को संतुलित करने में मदद मिलती है। एक रोचक बिन्दु ध्यान में आया कि भूतल पर सीढ़ी के बाजू में एक चार फुट ऊंची और एक बड़ी टेबल के आकार की मोटी सी लोहे की तिजोरी है, लेकिन सुशीलजी ने बताया कि यह सिर्फ तिजोरी का दरवाजा है। इसका ढक्कन खोलने पर नीचे जाने के लिए सीढ़ियां हैं। नीचे उस तलघर में कभी वजन से तौलकर थैली  में बांधकर चांदी के सिक्के जमा कर दिए जाते थे। कुछ अन्य कमरों में भी तिजोरियां रखी हुई हैं वे भी इंग्लैंड की बनी। इन पर भारी-भरकम ताले लगे हुए हैं जिन्हें छोटा-मोटा चोर तो नहीं खोल सकता।
सुशीलजी ने हवेली का थोड़ा कायाकल्प किया है। हाल के वर्षों में अनेक पूर्व राजाओं ने अपने महलों को हैरिटेज होटल में तब्दील कर दिया है। हवेली को होटल तो नहीं बनाया गया है, लेकिन इतनी व्यवस्था अवश्य है कि विदेशी पर्यटक या खास मेहमान आएं तो उन्हें यहां आराम के साथ ठहराया जा सके। सुशील पेड़ीवाल कलात्मक रुचि सम्पन्न हैं। उन्होंने हवेली की शोभा बढ़ाने के लिए देश के अनेक स्थानों से हस्तशिल्प लाकर इस स्थान को अलंकृत कर दिया है। यहां भित्तिचित्र, नक्काशी, पेटिंग्स और अन्य कलाकृतियों को अगर इत्मीनान के साथ देखना चाहें तो एक पूरा दिन तो लग ही जाएगा। बहरहाल मुझे अच्छा लगा कि सुशीलजी न सिर्फ अपने पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई संपत्ति की देखभाल कर रहे हैं बल्कि वे देश की लगभग दो सदी पुरानी कलाकारी और कारीगरी का भी संरक्षण कर रहे हैं। 
वे हमें हवेली दिखा रहे थे। बातचीत में मालूम हुआ कि पास के किसी गांव में उनका कृषि फार्म भी है। वे हमें वहां भी ले गए। जहां हमने आधुनिक तकनीक से खेती और बागवानी होते देखी। जिस पॉली हाउस पद्घति को सामान्य तौर पर किसानों के लिए घाटे का सौदा माना जाता है, वहीं सुशील पेड़ीवाल पॉली हाउस में टमाटर और अन्य सब्जियों की फसलें ले रहे हैं। उन्होंने एक सिरे से जामुन के सौ-दो सौ पेड़ लगाए हैं जिससे भी वे संतोषजनक आमदनी कर लेते हैं। कीनू के ग्यारह सौ पेड़ उन्होंने लगाए हैं, जिनकी बल्कि पूरे फार्म की मॉनीटरिंग सीसी टीवी से होती हैं। इस तरह एक ओर हमने फ़ाज़िल्का की विरासत से परिचय पाया, वहीं दूसरी ओर आधुनिक और उन्नत कृषि का भी एक मॉडल देखा। इस वृतांत को समाप्त करने से पहले दो-एक छोटी-छोटी बातें और। हरियाणा में सारे साइन बोर्ड देवनागरी में, पंजाब में सिर्फ गुरुमुखी में।
फ़ाज़िल्का के पुराने बाजार में ही हिन्दी के साइन बोर्ड दिखे। चार सौ किलोमीटर के रास्ते में जो भी अच्छे-बुरे ढाबे थे वे सब के सब 'शाकाहारी वैष्णो ढाबा' थे। कुछ गांवों के नाम दिलचस्प थे जैसे बहू अकबरपुर और अबुल खुराना। आखिरी बात, आप कभी इस रास्ते पर जाएं तो हिसार के पास हांसी के पेड़े और दूध की दूसरी मिठाइयों का स्वाद लेना न भूलें।
देशबंधु में 21 दिसंबर 2016 को प्रकाशित 

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