Thursday 15 March 2018

बैंकों के निजीकरण के खिलाफ


सिझौरा में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया की दो हजारवीं शाखा खुली। यह कोई चालीस साल पुरानी बात है। उस दिन गांव में उत्सव का माहौल था। बैंक के चेयरमेेन बंबई से आए। भोपाल से सरकार के कौन-कौन नुमाइंदे आए यह अभी याद नहीं; लेकिन मैंने इसे एक ऐतिहासिक अवसर माना और अपने वरिष्ठ साथी सत्येन्द्र गुमाश्ता को कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने वहां भेजा। आप नक्शे पर देखना चाहेंगे, तो शायद कहीं एक छोटे से बिंदु के रूप में यह जगह आपको दिख जाएगी। रायपुर-जबलपुर मार्ग पर मंडला जिले में सिझौरा एक छोटा सा गांव है, जिसकी आबादी लगभग सौ फीसदी आदिवासी है। इस छोटे से गांव में जहां तक पहुंचने के लिए एक अच्छी सड़क भी न हो, और जहां के लोग बैंक का अर्थ भी न जानते हों भला वहां सेन्ट्रल बैंक को अपनी शाखा खोलने की क्या सूझी? आज चालीस साल बाद शायद यह सवाल पूछा जा सकता है। इसका जवाब बैंकों के राष्ट्रीयकरण में है। 


सिझौरा ही नहीं, भुआ-बिछिया, करंजिया, बीजाडांडी, नारायणगंज-पडरिया जैसे गांवों में भी बैंक ने शाखाएं खोलीं। इसी तरह अन्य बैंकों ने भी दूरदराज के गांवों में जाकर अपना कारोबार शुरू किया। तब के सरगुजा जिले में उदयपुर एक छोटा सा गांव था। वहां एक झोपड़ीनुमा मकान में सेंट्रल बैंक की शाखा खुली। बैंक के मेरे पूर्व परिचित राजेन्द्र खजांची उस एकल स्टाफ वाली बैंक शाखा के पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ थे। गांव में प्राथमिक शाला शायद रही हो, पुलिस थाना भी नहीं था। मंडला ज़िले की भुआ-बिछिया शाखा में में मेरे साथ कभी काम कर चुके चुन्नीलाल केला पदस्थ थे। इन गांवों में सामान्य बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन इन जैसे लोग बैंक राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को पूरा करने में लगे थे, यद्यपि इसके लिए उन्हें शहरी सुख-सुविधाओं से वंचित होना पड़ा था। एक जुनून था कि देश के गांव-गांव तक बैंकिंग सेवा पहुंचे और उसके माध्यम से आम आदमी के आर्थिक स्तर में सुधार आए। उसकी मेहनत की गाढ़ी कमाई सूदखोरों के पास न चली जाए।
1969 में जब इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो उसके कुछ और प्रभाव देखने में आए। देश में पहली बार प्रायरटी सेक्टर की अवधारणा आई।  इसका सरल अर्थ था कि कमजोर वर्ग की माली हालत सुधारने में बैंक योगदान करेगा। इसके दो रोचक उदाहरणों का मैं गवाह हूं। मालती प्रसाद जैन रायपुर में पंजाब नेशनल बैंक याने पीएनबी के मैनेजर थे। उनका भोपाल तबादला हो गया। वहां उन्होंने पुलिस के तमाम सिपाहियों को सायकिल खरीदने हेतु आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराया। विभाग ने वेतन से पांच रुपया या दस रुपया महीने की किश्त काटकर बैंक में जमा करने की अनुमति दे दी। सैकड़ों पुलिस वालों के पास खुद की साइकिल हो गई। रायपुर में सेंट्रल बैंक की विवेकानंद आश्रम शाखा के प्रबंधक थे गिरधरदास डागा। उन्होंने बढ़ईपारा में बैलगाड़ी के चक्के बनाने वालों को कर्ज दिया। उसकी मासिक किश्त की वसूली करने वे खुद उनके मुहल्ले में जाते थे। चक्के बनाने वालों के कारोबार में तरक्की हुई और बैंक का कर्ज भी पट गया। एनपीए की नौबत नहीं आई।
आज इन प्रसंगों का उल्लेख करना प्रासंगिक है और आवश्यक भी। मुझे उस समय की धुंधली स्मृति है जब 1952-53 में कभी लक्ष्मी बैंक दिवालिया हो गया था। यह एक निजी बैंक था। इसकी शाखाएं पूरे मध्यप्रांत और बरार में फैली थीं। बड़े विश्वास के साथ लोगों ने बैंक में पैसा जमा कराया था। उनकी जीवन भर की जमा पूंजी स्वाहा हो गई। बैंक के मालिकों पर क्या कार्रवाई हुई, यह नहीं पता, लेकिन एक खराब उदाहरण के रूप में लक्ष्मी बैंक का नाम बार-बार लिया जाता था। अपने आपको दिवालिया घोषित करने वाला वह अकेला बैंक नहीं था। देश में कई जगहों पर इसी तरह चालाक पूंजीपतियों ने जनता के साथ धोखाधड़ी की। बाद में चिटफंड कंपनियों के भी इस तरह के करतब लोगों ने देखे। अभी मैंने एक लेख में पढ़ा कि निजी बैंक द्वारा आम जनता के साथ धोखाधड़ी करने का भारत में पहला केस सन् 1840 में हुआ था। लेख आउटलुक पत्रिका के 12 मार्च के अंक में छपा है। 
इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद निजी बैंकों और बीमा कंपनियों के द्वारा की जा रही लूट पर अंकुश लगाने के लिए काफी सोच-विचार किया था। राष्ट्रीयकरण तो बाद में हुआ। पहले बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण की योजना लागू की गई। इसके अंतर्गत प्रावधान हुआ कि कोई भी उद्यमी अपने द्वारा स्थापित या नियंत्रित बैंक से ऋण नहीं ले सकेगा। इसकी काट निकालने में व्यापार-चतुर बैंक मालिकों ने देरी नहीं लगाई। बैंक ए का मालिक बैंक बी से ऋण लेने लगा, बी वाला सी से और सी वाला डी से। इस तरह एक दुष्चक्र रच दिया गया। कुल मिलाकर बैंकों पर पूंजीपतियों का नियंत्रण कायम रहा आया। आम जनता को इससे कोई फायदा नहीं पहुंचा। सच तो यह है कि आम जनता ने बैंकों में जो रकम जमा की थी उसका उपभोग ये इजारेदार अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए करते रहे। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बैंकिंग एक ऐसी सेवा है जो देश की गरीबी को दूर करने में मददगार हो सकती थी।
यह माना जाता है कि इंदिराजी ने कांग्रेस के भीतर अपने विरोधियों याने सिंडीकेट के नेताओं  के दबाव से मुक्त होने के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण की योजना बनाई थी। इसमें किसी हद तक सच्चाई है, लेकिन श्रीमती गांधी के इस साहसिक और अभूतपूर्व निर्णय के जो सकारात्मक दूरगामी परिणाम हुए उनकी तुलना में यह राजनैतिक लाभ तो क्षणिक था। जैसा कि मैंने शुरू में बताया देश के दूरदराज के कोनों तक बैंकों की शाखाएं खुलीं, बैंक कर्मचारियों का मनोबल बढ़ा, उन्हें लगा कि वे देश की तरक्की में अपना योगदान कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और यह ट्रेड यूनियन का कोई छोटा-मोटा मामला नहीं था। एक समय था जब बैंकों में सेवा शर्तें बहुत खराब थीं। काम का वातावरण बोझिल और कई बार प्राणलेवा भी था। बैंक कर्मचारियों के नेता एच.एस. परवाना और उनके साथियों ने इसके खिलाफ लगातार संघर्ष किया, पर वे सिर्फ खुद की सुविधाओं के लिए नहीं लड़ रहे थे, बल्कि बैंकिंग को एक समाजउपयोगी सेवातंत्र में बदलना उनका अभीष्ट था।
आज पीएनबी घोटाले के बाद बैंकों को वापिस निजी क्षेत्र के हवाले करने की आवाजें उठ रही हैं। देश के उद्यमियों की अग्रणी संस्था सीआईआई ने इस हेतु आवाज उठाने में एक दिन का भी समय नहीं लिया। हमें याद रखना चाहिए कि ये सीआईआई जैसे व्यापारिक संगठन ही हैं, जो उद्योगों के लिए सारी रियायतें चाहते हैं, जिन्हें लगता है कि भारत में टैक्स दरें बहुत ज्यादा हैं, जो निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण का विरोध करते हैं, जो एसईजेड में कारखाने खोल देश के तमाम नियम कायदों को धता बताते हैं और जिनका वश चले तो सारे स्कूल कॉलेज भी निजी क्षेत्र के हवाले कर दें। यही लोग जीएसटी के भी समर्थक हैं और चाहते हैं कि टैक्स का सारा भार अप्रत्यक्ष कर के रूप में गरीब से गरीब आदमी को भी भुगतना पड़े।
नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, जतिन मेहता, ललित मोदी, विजय माल्या, दिवंगत हर्षद मेहता इत्यादि तमाम लोग इस अभिजात समाज के हिस्से हैं। बैंकों से अरबों-खरबों का ऋण ये लेंगे। फिर उसे नहीं पटाएंगे। कानून से बचते फिरेंगे, और फिर कहेंगे कि बैंक इनके हाथों में सौंप दिए जाएं। कहावत है -चित भी मेरी पट भी मेरी। वह इन्हीं लोगों पर पूरी-पूरी लागू होती है। ठीक है कि पीएनबी और अन्य राष्ट्रीयकृत बैंकों में घपले हुए हैं, लेकिन उसका लाभ किसने उठाया? आपने या मैंने तो नहीं। कुछ बैंक कर्मचारी यदि भ्रष्ट निकले तो उससे पूरी व्यवस्था तो गलत नहीं हो जाती। और क्या निजी बैंकों में घपले नहीं होते? अगर विदेशों में निजी बैंक डूब सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं? किसी दिन उनका कच्चा चिट्ठा भी सामने आएगा। मेरा यह सब कहने का मतलब इतना ही है कि जनता को सार्वजनिक क्षेत्र की संपदाएं, चाहे बैंक हो या और कुछ, उनके निजीकरण अथवा विनिवेश के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए।
देशबंधु में 15 मार्च 2018 को प्रकाशित 



 

No comments:

Post a Comment